अधूरा-सा मैं

“इतने देर से नारियल के उस पेड़ को क्यों देख रहे हो?” अंशिका ने शौर्य के कंधे से अपना सर उठाकर उसके चेहरे को देखते हुए कहा।
“मैं पेड़ को नहीं देख रहा।” शौर्य ने अंशिका की ओर बिना देखे नारियल के उस पेड़ को एकटक देखते हुए कहा।
“पर नजरें तो तुम्हारी वहीं टिकी हैं।”
“नजर शायद वहीं हैं, पर मन कहीं और गोते लगा रहा है।”
“तुम्हें कभी किसी चीज़ में इतना खोया तो नहीं देखी हूँ जनाब। बात क्या हैं?” अंशिका ने चिंताभरी नजरों से शौर्य को देखते हुए उसके हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा।
“ऐसी कोई बात नहीं है अंशु।” शौर्य ने उसके हाथ को सहलाते हुए कहा।
“तो फिर कैसी बात है?”
“कुछ नहीं। बस अपने बारे में सोच रहा था।”
“हमेशा औरो की चिंता करने वाला आज अपने बारे में सोच रहा। तबियत तो ठीक है जनाब की।” अंशिका ने अपने दाएँ हथेली के पिछले हिस्से को शौर्य के ललाट पर रखते हुए कहा।
“तुम्हारे नखरे उठाते-उठाते मेरी तबियत ऐसे ही खराब रहती।” तुरंत जवाब आया।
कुछ ही क्षण बाद पीठ पर लगी थपकी की आवाज पक्षियों के कलरव में कहीं गुम हो गई ।
सूर्य अब नींद से जाग कर पहाड़ के पीछे से निकलते हुए, इस प्रेमी जोड़े को देख ईर्ष्या से शनैः शनैः आग बबूला होने लगा था । सूर्य की भी कोई गलती नहीं थी। वो तो बेचारा, अपनी प्रेमिका “इंदु” से मिलने की तड़प में हमेशा व्यथित रहता।
वैसे तो ‘सूर्य’ और उसकी प्रेमिका ‘इंदु’ की प्रकृति एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत है। एक ओर सूर्य, अपने गर्म स्वभाव के कारण विश्वभर में प्रचलित है तो दूसरी ओर इंदु अपने शीतल और नम्र स्वभाव से जानी जाती है। पर अंग्रेजी में कहते हैं न, “Opposite attracts”। वैसा ही कुछ ‘सूर्य’ और ‘इंदु’ के साथ है। वे दोनों चुम्बक के विपरीत सिरे के समान एक-दूसरे को आकर्षित करते रहते।
पर उनके मिलन में एक बहुत बड़ी समस्या भी है। इंदु की सबसे अच्छी दोस्त ‘निशा’ है और वो उसी के साथ ही बाहर निकलती और सूर्य का सबसे अच्छा दोस्त ‘प्रभात’ है और वो भी उसी के साथ बाहर निकलता। पर समस्या ये है कि ‘निशा’ और ‘प्रभात’ में हमेशा से युद्ध छिड़ी रहती। इसलिए जब ‘निशा’ रहती तो ‘प्रभात’ बाहर नहीं निकलता और जब ‘प्रभात’ बाहर निकलता तो ‘निशा’ अपने घर पर कहीं गुम रहती। ‘सूर्य’ और ‘इंदु’ अपनी दोस्ती निभाने के लिए अपने प्यार के अरमानों को कुर्बान कर देते। परंतु कभी संयोगवश ‘निशा’,‘इंदु’ के साथ बाहर जाने से मना कर देती तो ‘प्रभात’, ‘सूर्य’ और ‘इंदु’ के मुलाकात के लिए एक शर्त पर राजी हो जाता कि उनदोनों की मुलाकात में वो भी साथ में रहेगा। यद्यपि इससे ‘सूर्य’ और ‘इंदु’ को प्रेमभरी बातें करने में कठिनाई होती, पर वो एक-दूसरे के थोड़े समय के साथ से ही इतने हर्षोल्लास से भर जाते कि उन्हें ‘प्रभात’ की उपस्थिति से कोई समस्या न होती। पर इनके मिलने का क्षण बहुत कम आता था, इसलिए आज ‘सूर्य’ इन दो प्रेमियों,शौर्य और उसकी अंशु के मुलाकात से जलन से भर चुका था। पर सूर्य की जलन , इन दोनों पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रही थी।
कुछ आधे-पौन घंटे तक न शौर्य ने कुछ कहा और न अंशिका ने। समुद्र अब अपना प्रेमगीत गुनगुनाने लगा था। वो शौर्य और अंशिका के करीब आता, उन्हें छूता और उनके पैरों के नीचे की मिट्टी अपने साथ ले जाता।
“क्या हुआ शौर्य? बताया नहीं तुमने, क्या सोच रहे थे अपने बारे में?” अंशिका ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा।
“तुम अभी तक वहीं अटकी पड़ी हो।” शौर्य ने आँखे बंद ही रखते हुए कहा।
“हाँ, जानते हो न तुम, कितनी जिद्दी हूँ मैं।”
“कितनी जिद्दी हो, मुझे भी बता दो।”
“न बाबा न। मैं न बताने वाली अभी। नहीं तो हर बार की तरह तुम फिर मुझपर ही इल्ज़ाम लगाओगे कि बच्चों की तरह जिद्द करती हो तुम। अब मुझे इधर-उधर की बात में मत फंसाओ और बताओं कि क्या सोच रहे थे?” अंशिका ने अपनी चंचल आँखों को स्थिर करते हुए कहा।
“बस अपने बीते कल के बारे में सोच रहा था।” शौर्य ने अंशिका की आँखों में आँखे डाल कर कहा, मानो वह चाह रहा हो कि अंशिका उसकी आँखों को पढ़ कर सारी बात समझ जाए और उसके आगे कुछ न पूछे। पर वो जानता था अपनी अंशु को, “बच्चों की तरह जिद्दी हैं वो।”
“बीते कल में तो मैं तुम्हारे साथ ही तो थी।”
“अंशु, मैं 7-8 साल पहले की बात कर रहा। जब सब अलग था। जब मैं वो था, जो मैं अब नहीं हूँ। जब मेरे पास पैसे तो नहीं थे, पर ख़्वाब बड़े थे। जब मैं धन से तो अमीर नहीं था, पर दिल से बहुत अमीर था। जब हर दिन एक नई कहानी बयां करती थी और मैं उन कहानियों के किसी पात्र में खुद की परछाई देखा करता था। जब मेरे जिंदगी के मायने अलग थे। जिंदगी को देखने का नज़रिया अलग था। जब हरेक क्षण ऐसा बीतता था, जैसे कल आए ही न। जब जिंदगी अपने ढेरों रंग दिखाया करती थी और हम उन रंगों में कहीं खो जाया करते थे।” शौर्य ने एक सांस में सबकुछ कह दिया था, मानो दफन कर दिए गए यादों से भरे पिटारे को किसी ने एक झटके से खोल दिया हो।
अंशिका ने हर समय खुशनुमा दिखने वाले शौर्य का ये रूप पहली बार देखा था। उसे आज मालूम चला था कि इस हंसमुख चेहरा जिसे वो दिल-ओ-जान से भी ज्यादा प्यार करती थी, उसमें कितना दर्द छुपा भरा है। अंशिका बस अपने शौर्य को देखे जा रही थी, मानो वो उसके मन में उत्पाद मचा रहे सारे विचारों को देख लेना चाहती थी।
यादों का पिटारा, जिसे शौर्य ने कहीं गर्त में छुपा लिया था, वो अब अंशिका के सामने धीरे-धीरे प्रकट हो रहा था।
शौर्य ने भी अंशिका के अंदर सवालों का जो बवंडर उठ रहा था, उसको भाँप लिया था। अब वो उस भवंडर को शांत करना चाहता था।
“अंशु, क्या तुम भी यार! बीती बातों को लेकर बैठ गई। हमारा आज सामने है, जिसमें मैं और सिर्फ तुम हो और कोई नहीं। क्यों न आज पर फोकस किया जाए।” शौर्य ने अपने दोनों हाथों को अंशिका के कंधे में रखते हुए कहा।
“बोल कौन रहा है, आज पर फ़ोकस करने के लिए। जो खुद आज इस सर्द सुबह में पुरानी बातों में खोया हुआ है। शौर्य मुझे आगे सुनना है|” अंशिका ने अपने कंधों में रखे शौर्य के हाथों को सहलाते हुए कहा।
शौर्य अब अपने अंदर उठ रहे दर्द के ज्वालामुखी को फटने से रोकने में विफल सा हो गया था।
“बस सोच रहा था कि कैसे कुछ रिश्तें जिसे हम कभी अपना अभिन्न अंग मानते थे, वो एक छोटी-सी चोट से कांच की भांति बिखर जाते। हमने अपने अतीत में कितने रिश्ते गढ़े और आज देखो, उसकी सुगबुगाहट भी अब हमें आसपास सुनने को नहीं मिलती या यूं कहें तो हम उनकी सुगबुगाहट अब सुनना भी नहीं चाहते। जिसके लिए कभी हम मरने-मारने को उतारू थे, अगर आज उनके इस दुनिया से फना होने की बात पता चल जाए तो हमें कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा और अगर फर्क पड़ा भी तो वो काफी सूक्ष्म और आंतरिक होगा। क्यों हम हमेशा दूसरों की ही गलती ढूंढ़ते? क्यों न एक पल के लिए हम अपने मन में बैठे उस चोर का पता लगाते, जिसकी भी कहीं न कहीं भागीदारी थी। रिश्ते बनाते समय तो हम एक-एक कदम काफी फूंक-फूंक कर रखते और जब उसी रिश्ते को तोड़ने की बात आ जाए तो हम एक पल के लिए भी उन बीते लम्हों के बारे में नहीं सोचते, जो बहुत खास थे। वो मुलाकातें भी हम भूल जाते, जिनके होने के लिए हमने कितना प्रयत्न किया था। वो मुलाकातें, जिनके बीत जाने के बाद भी रात में खुले आकाश में तारों के जमावड़े के बीच भी हम उन्हें ही देखा करते थे, अपने ख्वाबों में उन मुलाकातों के एक-एक क्षण को पुनः एक धागे में पिरोया करते थे और फिर अगली मुलाकात की आस लिए अपने जिंदगी को खुल कर जिया करते थे।” शौर्य ने अपने अंदर चल रहे उथल-पुथल से तंग आकर अब अपने हथियार नीचे रख दिये थे।
अंशिका ये सब सुनकर स्तब्ध हो गई थी। उसे ऐसा लगने लगा था कि जिस शौर्य को वो जानती थी, वो तो कोई बहरूपिया था, जो किसी जोकर का मुहँखोटा लगाकर सबको हंसाया करता था। पर उस मुहँखोटे के पीछे का असल चेहरा उसे अब दिख रहा था।
अंशिका शौर्य के अंदर चल रहे हलचल को अब शांत करना चाहती थी। इसलिए शौर्य के थोड़े देर तक कुछ न कहने पर उसने अपनी उंगलियों से उसकी उंगलियों को आलिंगन पास में लेकर धीरे से कहा,”जब रिश्ते टूट ही गए तो उसे भूल जाने में ही तो भलाई है। है न?”
“कुछ बंधन टूट जाने के बाद भी यादों के एक सुनहरे अदृश्य धागे से जुड़े रहते। यादें तो कभी भी जीवंत हो जाते। उन्हें नियंत्रित करना शायद भगवान के भी बस में नहीं है।” शौर्य ने अंशिका के गोद में सर रखते हुए कहा।
“कौन थी वो?” अंशिका से अब रहा नहीं गया और उसने बेवाक पूछ डाला।
शौर्य ने अपनी अंशिका को प्यार से देखते हुए कहा,”एक अधूरी मुहब्बत।”
कुछ देर तक मानो सब कुछ थम सा गया था। न समुद्र में कोई हलचल थी और न हवा गतिमान थी। मानो शौर्य के दर्द में सब खो से गए थे। शौर्य के अंदर चल रहा तूफान भी अब अंशिका की गोद में आकर शांत हो चुका था और शौर्य नींद की दुनिया में कहीं खो चूका था।
शौर्य के चेहरे ने बारिश की कुछ बूंदों को महसूस किया। जब उसने अपनी आँखें खोली तो देखा कि अंशिका के नेत्र, वर्षा-धारी मेघों का रूप ले चुके थे और बस गर्जना के साथ बरसने ही वाले थे।
शौर्य ने भी मेघों को बरसने से रोका नहीं। वो चाहता था कि अंशिका अंदर से खाली हो जाए और उस खालीपन में नए बीज का अंकुरण हो।
कुछ देर बाद बारिश थम चुका था।
शौर्य ने चुप्पी तोड़ते हुए अंशिका की गोद में ही लेटे हुए कहा,”मेरे इस अधूरेपन को पूरा कौन करेगा?”
धीमे से आवाज़ आई ‘मैं’ और शौर्य ने गर्म सांसों को अपने चेहरे पर महसूस किया। प्रकृति फिर से गतिमान हो गई थी। अंशिका के गले में लटक रहा मंगलसूत्र भी शौर्य के अधूरेपन को पहली बार महसूस कर रहा था।
उपसंहार-
हम सब के अंदर कुछ दर्द दफन है। हम सबकी कुछ अधूरी कहानियां हैं, जिसका हम दमन करने की कोशिश करते रहते है। पर आप उनका जितना दमन करने का प्रयास करेंगे, वो उतना ही शक्तिशाली होते जाएगा। उन्हें बाहर निकलने दीजिए।
यादें न अच्छी होती है और न बुरी। हमारे देखने का नजरिया उन्हें अच्छा या बुरा बनाता है। यादें तो बस यादें होती हैं।
अब सवाल ये उठता है कि क्या अपने अंदर के अधूरेपन को पूरा किया जा सकता हैं?
शायद नहीं। उस अधूरेपन को पूरा करने की जद्दोजहद भला क्या करना। चाँद भी तो पूर्णिमा में पूर्ण होने के बाद दुबारा अपूर्ण हो जाता। उस अधूरेपन के साथ जीने का भी एक अलग रस है।
किसी ने ठीक ही कहा है,
‘मैं’
कुछ खास तो नहीं,
बस ‘संपूर्णता’ का लिबास पहने
एक ‘अधूरापन’ हूँ..
Wahhh
Mere ashique
ha ha.. 😛