विरह की अग्नि और मैं ।

विरह की अग्नि और मैं ।
शौर्य और उपासना आज फिर साथ थे। उनका साथ होना मानो पूरे प्रकृति को आनंदमय कर दिया था।
इंदु अपनी चाँदनी से पूरे माहौल को उस सर्द रात में सुकून पहुंचा रही थी। जिस बरगद के पेड़ के नीचे शौर्य और उपासना अपने हाथों की उंगलियों को एक-दूसरे के उंगलियों में फंसा कर बैठे हुए थे, वो भी उस प्रेम से भरे माहौल में अपने पत्तों को अपने मित्र समीर(हवा) के सहयोग से झर-झर की आवाज के साथ झकझोर कर अपने प्रेयशी को अपने पास आने का इशारा कर रहा था।
‘आज कितने दिन बाद आई हो तुम? मेरी याद तुम्हें कभी आती भी हैं?’ शौर्य ने अपनी उपासना से कहा।
‘तुम याद आने की बात करते हो। तुम ये पूछो कि ऐसा कौन सा पल रहता है, जब तुम मेरे साथ नहीं होते?’
‘ठीक है। बताओ ऐसा कौन सा पल रहता है, जब मैं तुम्हारे साथ नहीं होता।’ शौर्य ने कहा।
‘बुद्धू’ उपासना ने शौर्य की उंगली दबाते हुए कहा।
‘अभी तो तुमने कहा कि तुमसे ये सवाल पुछू। और अब तुम मुझे बुद्धू कह रही। ये बुद्धू-बुद्धू मुझे मत कहा करो ‘
‘लो कर लो बात। बुद्धू को बुद्धू नहीं कहूँ तो फिर क्या कहूँ।’
‘जिसे तुम बुद्धू कहती हो न, उसे उसके ऑफिस के लोग ‘perfect man’ कहतेहै।’
‘उनके लिए जो भी हो, पर मेरे लिए तो बुद्धू ही हो तुम।’
शौर्य ने गुस्से से फिर कुछ न कहा ।
‘तुम न आज कल बहुत सियानी हो गई हो। मैंने सवाल कुछ और पूछा था, और तुमने मुझे अपने सवालों में फंसा कर मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।’ शौर्य ने कुछ देर बाद कहा।
‘देखा। बोला था न कि तुम बुद्धू हो। Hence, proved.’ इतना कहकर उपासना जोर-जोर से हंसने लगी।
‘वैसे सवाल क्या था शौर्य?’
‘सवाल ये था उपासना कि तुम कितने दिन बाद आई हो मिलने। क्या मैं ये मान लूं कि इस सर्द मौसम में भी हमारे प्रेम की नदी धीरे-धीरेसुख रही है?’
‘उफ.. कैसी बात करते हो? मैं और तुम, धरती और इंदु(चंद्रमा) के समान है। माना अमावस्या वाली रात उनकी मुलाकात नहीं हो पाती। कभी बादल रूपी उसके घरवाले एक-दूसरे से उन्हें मिलने नहीं देते लेकिन फिर धीरे-धीरे चोरी छुपे वो तो मिलने लगते है और पुर्णिमा की रात वो एक हो जाते। न धरती का अलग अस्तित्व रहता और न इंदु का।’
‘तो आज क्या बहाना करके घर से आई हो?’ शौर्य ने अपनी उपासना से कहा।
‘कुछ खास नहीं। बस परीक्षा सर पर है तो late night study with my friend Indu, Nisha and others कह कर आ गई।’
‘ये गलत है। उन्हें झूठ कह कर तुम्हारा आना कहाँ तक उचित है?’
‘झूठ कहाँ कही? इंदु(चंद्रमा)अपनी चांदनी से मुझे और निशा(रात) को पढ़ने में मदद करेगी और others में तुम हो न ‘Mr पढ़ाकू’, तुम मदद करोगे मेरी परीक्षा पास करने में।’
‘तुम न अपनी बातों में सबको उलझा कर निकल जाती। सियानी बिल्ली…’ इस बार हंसने की बारी शौर्य की थी।
उपासना ने अपने दाहिने कोहनी से शौर्य के बाएं कोहनी में दे मारा और वो भी खिलखिला कर हँसने लगी।
‘चलो अब जाने का समय हो गया।’ उपासना के आवाज में दर्द था।
‘अरे, अभी तो मिली हो और अभी जाने की बात।’
‘आधी रात होने को है साहब। अगर अब देरी की तो फिर मेरी फ्रेंड भी अपने होस्टल के पीछे के दरवाजे से मुझे घुसाने में असमर्थ हो जाएगी और फिर रात भर मुझे उसके होस्टल के बाहर ही रहना पड़ेगा।’
‘वो भी तो ठीक है। फिर तुम मेरे साथ यही रुक जाना। ढेर सारी बातें करनी है तुमसे।’ शौर्य चहका ।
‘बात नहीं समझ रहे तुम। अगर किसी को पता चल गया तो हमारे प्यार को कोई न देखेगा। सब मेरे Character पर सक करेंगे।’
‘मैं लोगो को समझाऊंगा।”शौर्य व्याकुल हो रहा था।
‘लोग तुम्हें पहले सुनेंगे तब न..’
‘जाने दो अब शौर्य। नहीं तो शायद अगली मुलाकात हमारी कभी हो न पाएगी।’
शौर्य भी उसके बात का मर्म समझ गया था। वो समझ गया था कि ये समाज शायद उनके प्यार को कभी समझ न सकेगा। जिस समाज में कृष्ण और राधा का नाम साथ लिया जाता, या यूं कहें कि राधा का नाम उसके कृष्ण के पहले लिया जाता है “राधे कृष्ण”, वो उनके प्यार को शायद समझ न सके।
शौर्य ने अपनी उंगलियां, उपासना की उंगलियों से ढीली करने की कोशिश करने लगा। लेकिन इस विरह की अग्नि में भी उनदोनों की उंगलियां एक-दूसरे के बाहुपाश से अलग होने को राजी नहीं थी।
तभी अश्रुओं की बारिश शुरू हो गयी और उंगलियों ने न चाहते हुए भी एक-दूसरे को अपने से दूर किया।
पूरा वातावरण शांत सा हो गया था। उस बरगद के पेड़ ने भी अपने प्रेमी को अपने पत्तों से इशारा करना बंद कर दिया था। इंदु भी कहीं काले बादलों में छुप गई थी। वह भी यह क्षण देखना नहीं चाहती थी।
अब वहां कोई न था, बस शौर्य था और उसकी उपासना की यादें…
“मैं विरह की वेदना लिखूं या मिलन की झंकार…
तू ही बता कैसे बयां करूँ,
साथ बीते इतने कम लम्हों में सारा प्यार….”
लेखक~ सागर गुप्ता