प्रेम ही परमात्मा हैं ।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्ति दाता ’ से साभार
प्रेम ही परमात्मा हैं ।
प्रिय आत्मन,
प्रेम!
अत्र कुशलम तत्रस्तु ! तुम्हारे लगातार चार पत्र हस्तगत हुए। प्रेम शब्द न ही स्त्रीलिंग है, न ही पुलि्ंलग है। आत्मा में भी विभेद नहीं किया जा सकता है। जहाँ भेद दृष्टि है_ वहाँ प्रेम नहीं है-वासना है। मन वासना के पंक में सदा से उलझा रहना चाहता है। जिस दल-दल में फंस कर कभी हंसता है। कभी रोता है। वासना अर्थात् वह जगह जहाँ वास, निवास, ठहराव स्थिरता न हो। मन का स्वभाव ही अस्थिर है। यही कारण है कि मन मनन से भयभीत रहता है। मनन अर्थात् जहाँ मन नहीं है-मन न इति मनन।
तुमने पत्र में लिखा है- मनन में ही प्रेम करती हूँ। आपकी पूजा करती हूँ। आपके ही ध्यान में सोती हूँ। जागती हूँ। हर क्षण आप मेरे सामने होते हैं। बेताब दिल की तमन्ना यही है, तुम्हें चाहेंगे, तुम्हें पूजेंगे, तुम्हें अपना खुदा बनाएंगे। ̧
देखो शकुंतला। यह औरत-पुरुष का भेद शाश्वत नहीं है। क्षणिक है। जब तक भेद है तभी तक वासना। भेद हटते ही वासना गिर जाती प्रेम आ जाता है। लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, गार्गी, मैत्रेयी, ज्ञानवल्भा इत्यादि विदुषी पूज्य नारी चरित्र तुम्हारे सामने हैं। जब नारी में प्रेम ऊर्जा र् होता है तब वह दुर्गा बनती है। देवी बनती है। वही जब अधोगामी होता है- तब नारी ही स्वर्णरेखा हो जाती है। नागिन हो जाती है। एक परम पुरुष से प्रेम करती है, केवल प्रेम। एक उन्हें अपनी वासना में घसीटना चाहती है। एक रूप की पूजा होती है, आराधना होती है। एक रूप का नाक कान काटना पड़ता है। उसी तरह पुरुष में भी दो रूप होते हैं-।उर्ध्वगामी प्रेम के प्रतीक हैं राम, कृष्ण, नानक, कबीर, भगवान महावीर इत्यादि। अधोगामी ऊर्जा के प्रतीक हैं-रावण, बाली, दुर्योधन , कंस, कालनेमि तथा वर्तमान के समाज में भरे पड़े बलात्कारी, शोषण के ताक में रूप बदले बहरूपिए। सिृ ष्ट में सदा ही दोनों रहते हैं। कभी किसी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। प्रकृति अपना हर बीज सुरक्षित रखती है। जिस किसान को जो बीज बोना हो_ उसे बोने के लिए पूरा स्वतंत्र है। समय पर वही फल स्वयं मिलता है। तब कोई अहोभाव से भर जाता है। कोई पश्चाताप का आँसू बहाता है। दैव, ईश्वर, भाग्य पर मिथ्या दोष मढ़ता है ।
स्थूल प्रेम
प्रेम के तीन स्तर होते हैं। पहला स्थूल प्रेम-प्रेम की प्रथम सीढ़ी है। इसमें शरीर से प्रेम होता है। शरीर से आकर्षण होता है। शरीर से शरीर मिलना चाहता है। मिलने के बाद एक-दूसरे से अलग हो जाता है। इसे वासनात्मक प्रेम भी कहते हैं। पशु-पक्षी एवं साधारण स्त्री-पुरुष जन्मजन्मान्तर से इसी में फंसे हैं। यह आकर्षण मन का है। माया से है। सुने हैं मुल्ला एक औरत से शादी करके बाहर निकला ही था कि रोड पर एक सुन्दर औरत दिखाई पड़ गई। बोला फातिमा अब तुम से तलाक। नई नवेली दुल्हन ने अभी दो कदम ही साथ रखा था घर भी नहीं गई, वह चौंक गई क्यों मुल्ला क्या हो गया? कल तक तो हम पर मरता था। हमारे बिना तुम्हें चैन नहीं था। जीवन भर साथ रहने की कसमें खा रहा था। अभी शादी की रस्म पूरी ही हुई कि तुम ने तलाक-तलाक कह दिया। मुल्ला बोला-तब तक तुम ही मेरे लिए परम सुन्दरी थीं। मैं तुम पर मर रहा था। देखो न रोड पर वह लड़की जा रही है न_ वह तुमसे ज्यादा सुन्दर है। अब मेरा मन उसे चाहता है।
मन डाँवाडोल रहता है। यह कभी किसी को चाहता है। दूसरे ही क्षण बदल जाता है। यह क्षण-क्षण बदलता है। यह निम्नतम स्थिति है-प्रेम की, जो केवल वासना चाहती है। शरीर चाहती है। वह भी शरीर बदलने में विश्वास करती है। एक से कुछ दिन में अरुचि हो जाती है। मन भागता है। दूसरे को खोजता है। यही कारण है कि पश्चिम का प्रेम प्रथम स्तर का शरीरगत है। पति, पत्नी रोज बदल देते हैं। उनमें स्थायित्व नहीं है। क्षणिक आकर्षण है। वहाँ परिवार समाप्त हो रहा है। बच्चे अनाथ हो रहे हैं। माँ-बाप वासना के चक्कर में निरंतर शरीर बदल रहे हैं। पूरब की शादियाँ भी अब शरीर के स्तर पर ही होने लगी हैं। अब लड़का-लड़की सुन्दरता देखते हैं, शरीरगत सुन्दरता। आत्मा की सुन्दरता देखने परखने की क्षमता ही नहीं है। पश्चिम की हवा ने पूरब के लोगों को भी अस्थिर कर दिया है, यही कारण है कि मानसिक तनाव से लोग गुजर रहे हैं। शुगर, गैस्, ह्रदय आदि की बीमारी, इसी का परिणाम है। यह शहरों में ही ज्यादा है। अभी भी भारत के किसानों में ह्रदय की बीमारी नहीं है। वे ह्रदय की गति के रुकने से नहीं मरते हैं। चूंकि उनका ह्रदय जीवन्त है। शहरी लोगों के पास ह्रदय की कमी है। ये मस्तिष्क से काम लेते हैं। अतएव ह्रदय की गति मस्तिष्क रोक देता है।
इस प्रेम का ही ऊर्ध्वगमन किया जाता है। यही प्रेम दूसरे रूप में बदलता है तब आप देवी, देवता के स्थूल रूप से प्रेम करते हैं। आप जानते हैं कि यह पत्थर की मूर्ति है। फिर भी उसकी सुन्दरता में आकर उसकी महिमा में आकर उसकी पूजा करने लगते हैं। उस मंदिर को कोई क्षति करता है, या उसके विरुद्ध कोई अपशब्द निकालता है तब आप मानसिक तनाव में आ जाते हैं। इसी प्रेम को गुरु रूपान्तरित करता है-भावनात्मक प्रेम में।
मानसिक प्रेम
दूसरा प्रेम, यह प्रेम की मध्य की सीढ़ी है। यह सीढ़ी अत्यन्त कीमती है। अत्यन्त प्यारी है। अत्यन्त खतरनाक भी है। इसमें शरीर का आकर्षण गिर जाता हैं। उसके गुण का आकर्षण जाता हैं। यही कारण है कि इसमें उम्र का, लिगं का भान व्यक्ति भूल जाता है। पुरुष से पुरुष, पुरुष से नारी, नारी से नारी प्रेम करने लगती है। यह प्रेम प्रथमतः एक तरफा शुरु होता है। इसमें समर्पण की भावना प्रबल होती है।
कृष्ण की उम्र पाँच वर्ष थी। राधा युवती थी। वह उसके पेम्र में पड़ गइ। वह शादी-शुदा औरत थी। पाँच वर्ष के बच्चे से वासना की क्या उम्मीद की जा सकती है? कृष्ण काला था। राधा परम सुन्दरी थी। उसकी सुन्दरता बाहर एवं अन्दर दोनों समान थी। वह कृष्ण को देखते ही मोहित हो गई। उसका मोह प्रेम में बदल गया। अब उससे छिप-छिप कर मिलने लगी। मिलने की प्यास बढ़ने लगी। उसका खाना-पीना-सोना बैठना हराम हो गया। वह बिना कृष्ण के रह नहीं सकती। शारीरिक आकर्षण ने कुछ दिन में भावनात्मक रूप ले लिया। वह अपने पति एवं पिता के परिवार को भूल गई। उसके अन्दर बाहर कृष्ण ही हो गए। प्रेम तो दीवाना होता है। वह हर समय खतरा लेना चाहता है। आंधी तूफान के थपेड़ों से भयभीत नहीं होता है। कठिनाइयाँ तो उसकी अभिन्न मित्र हो जाती हैं। वह अपनी सुधबुध भूल जाता है। अपनी शरीर गत सुविधा का भान भूल जाता है। राधा को तो अब कृष्ण चाहिए। कृष्ण जिसका अपना घर ही नहीं है। जंगल में ही रैन बसेरा है। भोजन-विश्राम की सुविधा से वंचित है। इसे कौन स्वीकार करेगा। राधा का प्रेम भावनात्मक है। वह घर से निकल गई कब निकली, कैसे निकली, क्यों निकली? ये प्रश्न वाचक चिन्ह भी शरीर गत हैं। शरीर एवं मन सुरक्षा चाहता है। तभी तो आज की शादियां कचहरी में लिखा-पढ़ी गवाही से शुरु होती हैं। कुछ ही दिनों में पुनः उसी कचहरी में समाप्त हो जाती हैं। हमारे यहाँ पहले की शादियाँ अग्नि को साक्षी मानकर होती थीं। अग्नि को साक्षी मानकर ही श्मशान पर समाप्त होती थीं। समाप्त न कहें-फिर मिलने का आश्वासन प्राप्त होता था।
राधा ने कृष्ण को स्वीकार कर लिया। पेड़ के नीचे रहना भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। वृषभान पुत्री थी। वृषभान बड़े जमींदार थे। उनकी हवेली थी। कोठी थी। सुख सुविधा थी। वह वे भी धन – धान से सम्पन्न थे। परन्तु राधा तो कृष्ण की दिवानी थी। दिवानों के सामने जलता हुआ अंगारा भी बर्फ बन जाता है। सूर्य से भी शीतलता आने लगती है। पेड़ की छाया में रहना स्वीकार कर लिया। कृष्ण की छाया मिल गई।
कृष्ण उसे छोड़कर मथुरा आ गए। साधारण लोगों ने राधा पर ताने कसे मजाक उड़ाया। कृष्ण के चाचा उद्धव जी भी ज्ञानी थे। अपनी ज्ञान की गठरी लेकर वृंदावन पहुँच गए। कृष्ण के ही बनावटी रूप में गए थे। वही पीताम्बर वही रूप शक्ल बना लिया था। राधा देखते ही बोली यह बहुरूपिया कहाँ से आ गया। यह कृष्ण बनने का नाटक करता है।
उद्धव जी अपनी गठरी एक-एक कर खोलने लगे। कृष्ण का प्रेम छोड़कर निर्गुण निराकार परम ब्रह्मा स्तुति करने की विधि समझाई। कृष्ण में कमियाँ निकालीं वह निर्मोही है। उसने तुम्हें छोड़ दिया। फिर दूसरे को पकड़ लेगा। पकड़ना फिर छोड़ देना उसका काम है। राधा बोली-कृष्ण हम से दूर नहीं जा सकते हैं- राधा के अगल-बगल, दाएं-बाएं कृष्ण ही कृष्ण हैं। सिर घुमाते हैं-तो देखते हैं, सभी गोपियाँ कृष्ण से घिरी हैं। उद्धवजी का ज्ञान गुम हो गया। हवा में उड़ गया। उनके मुँह से अनायास निकल गया – ” हैं प्रेम जगत में सार। और कुछ सार नहीं। “
आत्मिक प्रेम
राधा का भावनात्मक प्रेम ही आध्यत्मिक प्रेम में बदल गया। अब वह हर जगह कृष्ण को ही देख रही है। वह स्वयं कृष्णमय हो गई।
कबीर साहब कहते हैं-
“हेरत हेरत हे सखी, रहन कबीर हेराय ।
बूद समानी समुद्र मे, सो कित हेरि जाय ।।”
भक्ति स्त्रैण चित्त का खेल है। पुरुषैण चित्त आक्रामक होता है। शुष्क ज्ञान का भंडार, अहंकार युक्त। गोपियाँ भक्ति की प्रतीक हैं। राधा कृष्ण में विलीन हो गई। द्वैत गिर गया। वह अद्वैत हो गई।
मीरा की भी यही स्थिति थी। बचपन में ही अनजाने में ही कृष्ण के पार्थिव मूर्ति से प्रेम हो गया। वह पार्थिव प्रेम इतना आगे बढ़ गया कि भावनात्मक प्रेम का रूप ग्रहण कर लिया। वह अपने पति को भूल गई। कृष्ण की मूर्ति के साथ ही सोती, जागती, गाती। वह कृष्ण में ही प्रवेश कर गई। मीरा का स्थूल शरीर नहीं मिला। कैसे मिले वह कबीर की तरह ही अपने प्रिय में प्रवेश कर गई।
कश्मीर में एक संत औरत लालना बाई हुई है जो बिल्कुल नग्न रहती थी। उसमें परमात्मा का प्रकाश इतना फैला कि लोगों ने उसके सामने स्वयं को समर्पित कर दिया। उसमें परमात्मा का नूर जगमगाने लगा।
भगवान महावीर स्वयं नग्न रहते थे। उनके साथ तीस हजार युवतियाँ रहती थीं। सभी भगवान के सान्निध्य में रहती थीं। क्या यहाँ स्त्री पुरुष का भेद था। हालांकि महावीर कहते थे कि स्त्री मुक्त नहीं होगी। मुक्त होने के लिए पुरुष होना जरूरी है। मैं ऐसा नहीं कहता। मैं तो कहता हूँ कि कोई भी कहीं से भी मुक्त हो सकता है। मुक्ति के लिए स्वयं हम जिम्मेदार हैं।
सद्गुरु कबीर कहते हैं-
“खोजी होय तुरत मिलि जाऊँ , एक पल की ही तलाश में ।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, सब श्वांसो की श्वांस मे ।। ̧”
परमात्मा तो एक पल में मिलने को उत्सुक है। हम ही जिम्मेदार हैं_ उस क्षण के लिए। यहाँ तो भेद दृष्टि मिटाने का सतत् प्रयत्न होता है। फ्कण-कण में साईं रमत है, कटुक वचन मत बोल रे। ̧ कण-कण में साईं ही है। सारी भेद दिृ ष्ट स्थलू शरीर तक हैं। भाव शरीर में गिरने लगती हैं। आध्यात्मिक प्रेम मैं सारी भेद दृष्टि समाप्त हो जाती है।
राजकुमारी मल्लिका (तीर्थन्कर )
जैनियों के उन्नीसवें तीर्थंकर हुए हैं- मल्लिक नाथ। मल्लिका नाम की एक राजकुमारी थी। वह अत्यन्त सुन्दर युवती थी। बहुत सारे राजा उसकी सुन्दरता पर मुग्ध । सभी उससे शादी करना चाहते थे। राजकुमारी मल्लिका पर गुरु अनुकम्पा हो गई। वह भावात्मक प्रेम के माध्यम से आध्यात्मिक प्रेम में पहुँच गई। वह गृह त्याग करना चाहती थी।
परमात्मा कोई न कोई कारण अवश्य लाता हैं। जो कारण मानव के परिवतर्न में सहायक बनता है। एक राजकुमार ने राजा को संदेश भेजा-आप अपनी राजकुमारी से हमारी शादी करें या युक्त स्वीकार करें। जो राजकुमार आपको युक्त में पराजित करेगा, उससे राजकुमारी मल्लिका की शादी करें। इस संदेश से माँ-बाप-भाई के साथ-साथ राज्य के सारे प्रजा जन चिन्तित हो गए। राजकुमारी को भी सूचना मिली। वह अपने पिताश्री से बोली आप मेरे सम्बन्ध में चिंता न करें। आपकी इज्जत-सम्मान इतनी छोटी नहीं कि मेरे चलते ध्वस्त हो जाएगी।
शादी-विवाह, घर-द्वार, बाल-बच्चे ही प्रतिष्ठा के प्रतीक नहीं होते हैं। यह तो संसारी के प्रतीक हैं।
संत तुलसीदास भी कहते हैं- ” सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होइ ।” ̧ पुत्र-पत्नी और लक्ष्मी धन संपत्ति तो पापी को भी होता है। वह अपनी प्रतिष्ठा किसी से कम नहीं आंकता है। वास्तविक प्रतिष्ठा से हम सभी वंचित हैं। प्रभु से प्रेम ही आवागमन से मुक्त कराता है। उसी प्रेम में प्रभु प्रतिष्ठा देता है।
राजकुमारी ने सभी राजकुमारों के यहाँ संदेश भेज दिया – “आप लोग मुझसे प्रेम करते हैं। मेरी सुन्दरता पर मुग्ध हैं। मैं भी प्रेम करती हूँ। आप लोग अमुक दिन को हमारे राज भवन में पधारे । जिससे आप हमें नजदीक से देख सकें एवं वरण करने की प्रक्रिया पर विचार करें। ̧ सभी राजकुमारों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
राजकुमारी ने अपनी ही तरह सुन्दर मूर्ति का निर्माण कराया। स्वयं जुलाब (पेट साफ करने की दवा) खा लिया। उसे शौच हुआ_ जिसको उसी मूर्ति में बंद कर दिया। एक सप्ताह तक ऐसा ही किया। वह एक सप्ताह में सूख कर कांटा हो गई। उसकी सुन्दरता विलीन हो गई।
राजकमुार महल में पहुँच गए ।राजकमुारी की प्रतिमा को देख देख कर खुश हों हो रहे थे। सभी वरण करने को उत्सुक थे। वे अपना सभी कुछ दाँव पर लगाना चाहते थे। मूर्ति ऐसी थी जैसे अभी बोलने ही जा रही हो सभी राजकुमार उसकी सुन्दरता को अपनी आँखों से पी रहे थे
राजकुमारी मल्लिका राजकुमारों के मध्य आकर खड़ी हो गई। राजकुमार उत्तेजित स्वर में चिल्लाए तुम हमारे एवं राजकुमारी के मध्य में क्यों खड़ी हो गईं? तुम क्यों बाधा बन गईं? तुम कौन हो? राजकुमारी बोली हे राजकुमारों आप सभी क्षत्रिय वीर, बहादुर राजपुत्र हैं। आपके ये ही प्रश्न अत्यन्त गम्भीर हैं। हमारे बीच कोई खड़ा हो गया है। वह क्यों बाधा बन गया है। वह कौन है? हम पहचान नहीं पाते या पहचानने की कोशिश नहीं करते।
मैं ही आपकी आँखों के सामने सुन्दर राजकुमारी मल्लिका हूँ। जिस पर आप त्रटक लगाए हैं-वह हमारी प्रतिमा है। मेरी सुन्दरता इसी में छिपी है। आएं आप लोग देखें-राजकुमारी ने मूर्ति का ढक्कन खोल दिया। खोलते ही दुर्गन्ध में फैल गई। उसके अन्दर सड़ी विष्टा को देखकर कुछ राजकुमार क्रोधित हो गए। कछु को कै लगी। सभी एक झटके में राजमहल से बाहर भाग आए। अब उस मूर्ति की तरफ देखना भी नहीं चाहते थे।
राजकुमारी ने कहा- हे मेरे प्रिय भ्रातागण। आप जिस हाड़-मांस-चमड़ी की सुन्दरता पर मुग्ध हैं वह आपके सामने है। मैंने अपनी ही सुन्दरता उस मूर्ति में भर दी है। जिसे देखकर आप बाहर भाग आए। क्षण भर पहले उसे पाने के लिए आप युक्त करने को तत्पर थे। उसकी वास्तविक सुन्दरता देखकर आप घृणा से भर गए। इस सृष्टि में एक ही सुन्दर है, एक ही प्रेम करने के योग्य है। जिसके शरण में मैं जा रही हूँ। आप भी चाहो तो मेरा अनुगमन करो।
मल्लिका गुरु की शरण में चली गई। बहुत सारे राजकुमारों ने भी मल्लिका का अनुगमन किया।
राजकुमारी मल्लिका क्षण भर में बदल गई। हो गई तीथर्कंर मल्लिकनाथ। वह जगत गुरु हो गई। उसने परम सौंदर्य को प्राप्त कर लिया। उसका सौंदर्य अक्षय हो गया। करोड़ों राजकुमारी राजकुमार हुए हैं जो वासना के गर्त में डूब गए हैं। उनका कोई नाम लेने वाला नहीं है। इतिहास ने उन्हें भुला दिया है। राजकुमारी मल्लिका का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। उसकी पूजा उस समय भी हुई। अभी भी हो रही है। भविष्य में भी होगी।
मैंने चरम निर्देश में स्पष्ट कर दिया है कि गुरु के साकार रूप का ध्यान करते-करते निराकार स्वरूप में स्थित हो जाना है। जहाँ गुरु कृपा-गुरु ध्याता , ध्यान , ध्येय में भेद समाप्त कर देगा। जहाँ मैं (ध्याता) शाश्वत चेतना के साथ एकाकार होकर ब्रह्मा मैं विलीन हो। जाएंगे उसमें ग्यारह निर्देश हैं जिनका पालन करने से सभी कुछ का पालन स्वयं हो जाता है।
आप लिखती हो- मैं इतनी लिखी पढ़ी नहीं हूँ जो आपके किसी काम को संभाल सकूँ। मैं प्रवचन भी नहीं दे सकती हूँ। संसार मेरे शरीर से सौदा करता है। आप मेरी आत्मा से सौदा करते हैं। मैं आपको आत्मा से प्रेम करती हूँ। यही मेरा गुनाह है। प्रभु आप हमें माफ कर देना। आप हमें याद करें या न करें इसकी भी हमें चिंता नहीं है। परन्तु आप ही मेरे प्यार हैं। पूजा हैं। आराधना हैं।
तुम भाग्यवान हो। भावनात्मक प्रेम में लोगों के जन्मों जन्म लग जाते हैं। साधारण जीव शारीरिक वासना से ऊपर नहीं उठता है। हजारों जन्म पशु-पक्षी की तरह कीड़े-मकौड़ों की तरह शारीरिक वासना रूपी नाली में पड़ा रहता है। जैसे ही प्रभु कृपा, गुरु अनुकम्पा होती है-वह इससे ऊपर उठकर भावनात्मक प्रेम में आ जाता है। सारी सिद्धियों की जड़ यही है। भक्त जैसी भावना करता है- भगवान को उसी रूप में आना पड़ता है।
संत तुलसीदास जी कहते है – “जाकी रहीं भावना जैसी प्रभु मूरत तीन देखि तैसी।”
शबरी का भावनात्मक प्रेम था। अतएव श्रीराम के लिए प्रतिदिन रास्ते पर फूल बिछाती रहती थी। मीठा बेर उनके लिए रखती, खट्टा स्वयं खा जाती। वही प्रेम आध्यात्मिक प्रेम में बदल गया। श्रीराम पहुँच गए। शबरी परमधाम के लिए पृष्ठं कर गइ।र् लक्ष्मण ने उसके प्रेम को नहीं स्वीकार किया। उन्हें मूछिर्त होना पड़ा फिर वही जूठा बेर संजीवनी बूटी के रूप में स्वीकार किया। इसके बाद उन्हें कभी मूर्छित नहीं होना पड़ा।
कबीर साहब कहते हैं-
” प्रेम न बाड़ी उपजै , प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्र्र्रजा जेेेहि रूचैैै, शीश देेेय लेेे जाय ।। ̧”
प्रेम क्रय-विक्रय का सौदा नहीं है। इसमें ऊंच नीच भी नहीं होता है। चाह-े राजा हो या प्रजा , शीश देना पड़ेगा । शीश अथार्त मस्तिष्क, विचार, अहंकार , तर्क को छोड़ना पड़ेगा । शृद्धा से समर्पण करना होता हैं । समर्पण हे प्रभु के दरबार की कुंजी है। जिससे व्यक्ति नर से नारायण तत्क्षण बन जाता है।
हमारा काम क्या संभालना है। हमारी चाह मात्र यही है कि तुम अपने को पहचान लो, संभाल लो। मेरा काम संभल गया। जैसे ही तुम अपने को संभाल लोगी दुनिया को संभालने की क्षमता तुम में आ जाएगी। तब तुम को छोटा घर रूपी घरौंदा नहीं बाँट सकेगा। तब पूरी प्रकृति ही तुम्हारा गृह हो जाएगी। पराया गिर जाएगा। पूर्ण उतर आएगा। उसके उतरते ही प्रवचन स्वयं तुम से निर्झर की तरह फूट पड़ेगा। जिसमें साधारण जनता स्नान कर स्वयं को धन्य समझेगी
तुम्हारे सामने भारत में सैकड़ों साध्वियाँ हैं जो धर्म गुरु बनी हुई हैं। जिनका पिछला भाग अच्छा नहीं कहा जाएगा। कुछ ने पारिवारिक प्रताड़ना से गृह त्याग किया। परन्तु उन्हें पथ प्रदर्शक अच्छा मिला, जिससे वह स्वयं को पवित्र कर अन्य को पवित्र करने के पुनीत कार्य में संलग्न हैं। ब्रह्मा कुमारी समाज को लेख जी महाराज ने केवल औरतों से ही चलाया है। उसमें सारी प्रमुख जिम्मेदारियाँ औरतों को ही दी जाती हैं। जो सम्पूर्ण विश्व में फैल गया है। सबसे अहम् प्रश्न है-स्वयं को समर्थ बनाना।
शरीर के सौदे के लिए भी स्त्री और पुरुष स्वयं जिम्मेदार हैं। उसी औरत में दुर्गा की क्षमता भी निहित है। उसी में सीता का सतीत्व है। जो रावण से सामना करने की क्षमता रखती है। अभी औरत की क्षमता का पूर्व से ज्यादा विकास हुआ है। औरतें अधिकारी बनी हैं, वैज्ञानिक बनीं, शासन अध्यक्ष बनीं, राष्ट्र अध्यक्ष बनीं और धरम पुरोहित भी बन गईं। इसके पूर्व औरतों को शासन में हिस्सेदारी नहीं मिलती थी। परिस्थिति उलट गई है।
आत्मा का सौदा परमात्मा से होता है। चाहे उसके हाथों क्रय हो जाओ या उसे क्रय कर अपने हाथ में कर लो।
प्रभु से, परमात्मा से भावनात्मक प्रेम श्रेष्ठ है। गुरु तो माध्यम है। बीच की कड़ी है। जो प्रेमी-प्रेमिका को मिलाता है। दोनों के मिलते ही वह हट जाता है। यही कारण है कि गुरु पूज्य है। पावन है। जो आश्रम का द्वार खोलता है। दाता तक पहुँचाता है। इस पृथ्वी पर आज तक ऐसा काइे नहीं हअुा है जो शिष्य एवं शिष्या को शिष्य-शिष्या के साथ-साथ पुत्र पुत्री का संकल्प देता हो एवं स्वयं ग्रहण करता हो। इसे मैं ही करता हूँ। तुम अपने दीक्षा के दिन का समय तथा स्थिति को याद करो। इस संकल्प से गुरु घबराता है।
भगवान कृष्ण भी अर्जुन से कहते हैं-हे निष्पाप अर्जुन-तुम में हम में मात्र यही अन्तर है कि तुम अपने पूर्व के जीवन को नहीं जानते हो। मैं अपने पूर्व के जन्म को जानता हूँ। ̧ गुरु शिष्य में भी यही अन्तर है। उसने अपने जेल के फाटक को तोड़ दिया है। तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है-तुम्हारे दरवाजे को तोड़ने के लिए। परन्तु तुम उसे ही सत्य समझ रही हो। उसे ही अपना सुरक्षा कवच समझ रही हो। गुरु इसी भ्रान्त धारणा को तोड़ता है।
तुम्हारी स्थिति देखकर मैं यह कह सकता हूँ कि तुम शीघ्र ही अधयत्मिक प्रेम की सच्चाई को प्राप्त कर लोगी। उसे प्राप्त करते ही ‘स्व’-‘पर’ मिट जाता है। पूजा आराधना समाप्त हो जाती है। स्वर्ग नरक की दीवार गिर जाती है। इसके गिरते ही तुम विश्व की सेवा में उतर सकती हो। तब तुम्हारे लिए कोई दीवार नहीं बनेगा। तुम स्वयं गुनहगारों पर दया करोगी। क्षमा करोगी।
आश्रम अभ्यास स्थल हैं। जैसे साइकिल चलाना सीखते है- मैदान में । सीखने के बाद हम उतरते हैं-संसार में। अपने उद्देश्य हेतु चला कर पहुँच जाते हैं। हर समय मैदान में ही साइकिल चलाने वाला पागल समझा जाएगा। आश्रम में शिक्षण प्राप्त करो-प्रेम का, सीखो ढाई आखर प्रेम का। फिर प्रेम बाँटने निकल जाओ निष्ठुर, कृपण, अहंकारी संसार में। फिर मुड़ कर नहीं देखना है-कौन क्या कहता है?
प्रेम ही परमात्मा है। धारणा ही संसार है।
सद्गुरु कबीर कहते हैं,
” प्रेम प्रेम सब कोई कहैं , प्रेम न चीन्हैैै कोइ ।
जेहि मार्ग से साहब मिले, प्रे, कहावे सोय ।। ̧”
।। हरि ओम ।।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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