तन का मन, ब्रह्माण्ड का ब्रह्म
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत ….
तन का मन, ब्रह्माण्ड का ब्रह्म
देह में चैतन्य का ही एक नाम है मन। सच कहें तो यह हमारी ही स्वप्नावस्था है। चेतन मन, अवचेतन मन, अचेतन मन और अति चेतन मन को क्रमशः बुद्धि, मन, चित्त, अहंकार नाम से हम जानते हैं। ये आत्मा के ही अलग-अलग व्यापार हैं। इनका अलग से अस्तित्व नहीं है।
मन सदा जीव को वर्तमान से दूर कभी भूत (विचार) में तो कभी भविष्य (कल्पना) में भगाए रहता है। जागरण यानि वर्तमान, बुद्धि का क्षेत्र है। बुद्धि में संघर्ष होता है, जीवन होता है। इसीलिए जीव मन की शरण में भागा रहता है। मन कर्म से भागता है। सपनों से खेलने की उसे आदत होती है। इसीलिए साधना का दारोमदार मन को वर्तमान में लाने का है।
मन की तीन सन्तानें हैं- काम, क्रोध और लोभ। क्रोध सदा अतीत के लिए होता है, जो बिगड़ गया या टूट गया, गिर गया या बह गया। जबकि क्रोध भविष्य के लिए होना चाहिए। जब अतीत मन के अनुकूल नहीं होता, वह क्रोध में चला जाता है, पीछे की बर्बादी पर झल्लाता है | तब यह दोष हो जाता है | पर भविष्य की तैयारी के लिए क्रोध हो तो गुण माना जाता है | अतः मन को भूत से छुड़ाकर भविष्य में खड़ा कर दें तो दुख नहीं होगा।
लोभ हम भविष्य के लिए करते हैं- धनसंग्रह हो या जायदाद इकठ्ठा करना आदि वर्तमान के लिए होना चाहिए, क्योंकि लोभ भोग की कामना है और भोग जब होगा, वर्तमान में ही होगा। अभी होगा। अभी आज खाएं, कल के लिए रखें नहीं तो लोभ दुख नहीं बनेगा। लोभ में विषय से बंध कर हम तनाव में जीते हैं। अशान्ति भविष्य के लिए होती है। मन वर्तमान में खड़ा रहे तो प्रसन्न रहेगा।
काम वर्तमान के लिए होता है तो पीड़ा होती है, वही अतीत के लिए हो तो तप बन जाता है। कामना को अतीत से जुड़ना चाहिए। कामना मन का संवादवाहक है। यही कारण है कि मन का बुद्धि पर वश नहीं होता। इसी कारण ये तीनों बुद्धि को ग्रस्त करते हैं। ये तीनों आते हैं, जब हम बेहोश होते हैं या कहें कि बेहोशी का ही नाम है मन। मन आता है बुद्धि को बेहोश करने के लिए। वह वर्तमान में ठहरता ही नहीं है। वर्तमान में आते ही उसी का नाम हो जाता है बुद्धि, जागरण। बुद्धि व मन का वर्तमान में होना ही साधना है। वर्तमान क्षण में जीना तप है।
मन कर्तव्य का भार लेना नहीं चाहता क्योंकि वह द्रष्टा है। सपनों से खेलने का वह आदी है। पुस्तकें पढ़ने, सिनेमा देखने, कथा-कहानी, नाटक, सत्संग करने में मन मुदित होता है। ये सारे सपने होते हैं। मन सोएगा पर सपने रचने लगेगा। आप उसे वर्तमान में ढूँढेंगे तो वह मिलेगा ही नहीं। इसीलिए उपासक उसे अतीत में यादों में ढूँढते हैं और योगी उसे भविष्य में ढूँढते हैं। उपासक अतीत का आराधक होता है विगत को सहेजता है, बीती कथाओं में जीता है और योगी उपलब्धियों की, भविष्य की चिन्ता में होता है | मन को सुविधा होती है, दोनों के साथ। भक्त अतीत की कथाओं में जीने का अभ्यास करता है | वहाँ मन रमता है, आराम में होता है क्योंकि अतीत का कोई कर्म नहीं होता | वैसे ही भविष्य का कोई खतरा नहीं होता। तो उपासक और योगी मन को ही भोजन देते हैं।
मन कभी मलिन नहीं होता | मलिन होती है बुद्धि क्योंकि बुद्धि कर्म में लगी होती है। मन यथार्थ में होता ही नहीं। मन तो ईश्वर का प्रतिनिधि है, तन का बादशाह है। मन का तो आत्मा पर भी शासन चलता है। आत्मा देह में रहकर भी कूटस्थ है और मन देह से बाहर रहकर भी मालिक बन जाता है। आत्मा तटस्थ है, पर मन नियामक है। मन परमात्मा का सेवक है, सखा है और आत्मा परमात्मा की प्रेयसी है। इसी कारण मन बलवान होता है- आत्मा से भी। मन का काम है इच्छा, और बुद्धि का काम है उसे कार्यान्वित करना। परमात्मा की ही तरह मन भी प्रेरक है। मन इच्छाचारी है। उसकी रात्रि अव्याहत है, अबाधित है।
मन को पकड़ना मुश्किल है। यह गलत भाषा है कि मन को मारो, मन को बांधो, मन को जीतो | कौन मारेगा मन को ? कौन बांधेगा मन को ? मन पर कोई काबू नहीं कर पाया। मन से सभी हारे हैं क्योंकि मन त्रिकाल आयामी है। बुद्धि वर्तमान से आगे-पीछे नहीं जा सकती, चित्त अतीत से बाहर नहीं आ सकता। अहंकार आभास है, होता ही नहीं और मन है कि भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों में रमण करता है- आप उसे पकड़ नहीं सकते।
मन के दो गुण हैं- चित्त और आनन्द। उसके दो अवगुण हैं- रज और तम। मन का आयाम है भूत और भविष्य और आत्मा न तो अतीत में होती है, न भविष्य में। वह तो वर्तमान है। आप होश में हैं तो वर्तमान में हैं, आत्मा में हैं | आप बेहोश हैं तो मन में हैं। मन हमेशा विश्वास करने पर राजी होता है। ताकि उसे कुछ करना न पडे़ और बुद्धि कभी भी विश्वास करने को राजी नहीं होती। वह प्रमाण चाहती है। मन सपनों में विश्वास करता है क्योंकि इसमें सहूलियत है। विश्वास करने में कुछ करना नहीं पड़ता, अतः विश्वास करना आसान है पर पाना और तस्दीक करना कठिन है तो मन कहेगा- विश्वास कर लो और विश्वास सदा भविष्य के लिए होता है। जानो मत, बस मान लो – यही है विश्वास। मान लो न -भाई, अमुक व्यक्ति संत हैं | क्या लगता है मानने में ? पर बुद्धिजीवी विश्वासी नहीं होगा।
मन तो अतीत का भी विश्वास करता है- प्रणय कथाएँ पढ़ता है। मन को डर है तो बस वर्तमान से | अतः वह वर्तमान में रहता ही नहीं। आप बैठे रहेंगे, पूजा पर; मन घूमता रहेगा बाजार में। हाथ में फेरते रहेंगे माला, मन टहलता रहेगा मीना बाजार में, ससुराल में। मुंह कीर्तन करेगा, मन चला जाएगा भंडार घर की मिठाइयों पर। मन देह में है पर ताबेदार नहीं है, परवरदिगार है। मन को वर्तमान में लाना ही मन पर विजय पाना है। जब तक मन को देश, काल और व्यक्तित्व से छुड़ाएंगे नहीं, उस पर विजय असंभव है। मन को भीतर अन्तर्यात्रा के लिए राजी करना आसान बात नहीं है।
मन के दो पंख हैं- आशा और विश्वास। उसके दो संरक्षक हैं मोह और संशय। हम ईश्वर दर्शन की बात करते हैं। आखिर दर्शन कौन करेगा ? मन को ही तो दर्शन की भूख है। अतः मन सदा बुद्धि के सिर पर चढ़ा रहता है- यह करो, वह करो। बुद्धि को ईश्वर दर्शन की फुर्सत ही नहीं है। वह तो व्यस्त है। चित्त तो दर्शन में बाधक है और अहंकार आंधी तूफान लिए खड़ा है। मन ही जब अपने को देखने लगता है तो आत्मा बन जाता है। जब तक मन प्रत्ययों- प्रतीकों में, सपनों में खेल रहा है- यह आत्मा नहीं है, कर्ता नहीं है- रसिया है। जब वहीं ठहर गया तो समाधान।
मन शुद्ध हो, निर्मल हो, इतने से काम नहीं चलता | मन को स्थिर भी होना चाहिए। दर्पण कितना ही साफ हो, अगर वह हिलता रहे तो उसमें छवि दीखेगी क्या ? क्या मन लहरदार चेतना है ? कंपित चित्त ही मन है | तरंगायित चित्त में शांति खोजोगे – मिलेगी नहीं | सागर की तरंगों में कभी शान्त समुद्र दीखा है ? स्व-बोध ही मन रूपी दर्पण का किनारा है। मन मुकुर है, दर्पण है। उसमें जो दीखता है, वह उसमें होता नहीं है। केवल प्रतिबिंबित हो रहा है।
मन को वर्तमान में लाना ही, उसे स्थिर करना है। मन को उपासना या कल्पना में दौड़ाना तो उसे भोजन देना है। मन को स्थिर करने के लिए ज्यों ही आप उसे कोई मूर्ति, कोई रूप, कोई चिन्ह देंगे- वह गुरु का हो या परमात्मा का, मन उससे खेलने लगेगा क्योंकि वह यथार्थ नहीं है याद है, कल्पना है। मनोरंजन करने लगेगा मन। आप समझेंगे हम तो उपासना कर रहे हैं और मन को खुराक मिलती रहेगी। मन को अतीत में जाने और भविष्य का ताना-बाना बुनने में रस मिलता है। अतीत की आराधना ही उपासना कहलाती है। एक ही स्थान पर खड़े होकर दौड़ते भी रहो तो क्या दूरी तय हो पाएगी ? अतः उपासना भोंदू बना देती है- ज्ञान नहीं प्रदान करती।
एक ही तरीका है- मन को प्राण से बांधो। प्राण अभी है, वर्तमान है। ऐसा न कर, आपने उसको शक्ल दे दी तो इसे तो वह चाहता ही है। गले में ताबीज लटकाना, मन को बड़ा भाता है, हाथ में ताबीज का रखना आसान नहीं है। मन तो चाहता है कि उसे खेलने के लिए कुछ भी दो माला दो, पोथी दो, मंत्र दो – वह मन संस्कार पकड़ने का आदी है। स्मृति अतीत का सुख है। उसमें मन को रस मिलता है और उपासक उसे वही देता है तो मन एकाग्र हो जाएगा, पर स्थिर नहीं होगा। आप प्रत्याहार करते रहेंगे, वह भागता रहेगा।
एकाग्रता अतीत में है तो वर्तमान तो निंदित हो गया न। व्यर्थ गया | उतना समय सोने में निकल गया। भक्ति का सारा आयोजन चित्त को जगाने और मन को सुलाने का अभ्यास है। मन को सुला दो राम कथा में, कृष्ण कथा में, भागवत कथा में। वह सिनेमा देखे और जीवन का वर्तमान आकाश में खो जाए। मन को जागरण में लाना ही सहजयोग है। जहाँ मन ठहरा वर्तमान में, विज्ञानमय शरीर की यात्रा शुरु हो जाती है। मनोमय कोष का आयाम बड़ा विस्तृत है। सारा धर्म, कर्मकांड, यज्ञ, कथा मन के मनोरंजन हैं- प्राण के अपव्यय हैं। ये मन को भाते हैं।
मन को सत् में ठहराओ। सत् क्या है ? प्राण ही अस्तित्व है। प्राण ही वर्तमान है। प्राण न हो तो तीनों काल आपके लिए मिट जाएंगे। प्राण का अगला पांव है भविष्य, पिछला पांव है अतीत। अगर आपका एक पांव अतीत में हो एक पांव भविष्य में उठा हो तो आप वर्तमान में खड़े तो नहीं रह सकते। इसी स्थिति में है मन, उसके दोनों पांव उठे हुए हैं- वह गिर रहा है। वर्तमान से कटा मन चित्त हो जाएगा तो फिर क्या होगा। वर्तमान एक श्वास भर ही है। अभी जो श्वास भीतर गई- वर्तमान, अभी जो श्वास बाहर आ रही है- वर्तमान। निकल गई तो अतीत। आएगी तो भविष्य। इसी छोटे से वर्तमान के साथ मन को बांधना है। योग यही है, मन को सत् में ठहराना। श्वास ही सत् है। श्वास के कारण ही समय का बोध है। समय को बांधना ही जीवन है।
पांच सोपान हैं | नीचे से ऊपर की तरफ – तम, रज, सत्, चित, आनंद। मन नीचे रज, तम् में जाकर असुर बन जाता है। ऊपर आनन्द में जाकर देवता बन जाता है। नीचे गया तो नदी, पशु बन जाता है। ऊपर गया तो शिव बन जाता है और पाँचों के बीच सत् पर ठहर गया तो योगी बन जाता है। इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को ‘योगी भव’ कहा। मन को बुद्धि में ठहराया, प्राण में स्थिर किया तो योग-युक्त हुए। द्विज बने तो शक्ति का विस्पफोट हुआ।
मन भी दौड़ रहा है, आप भी दौड़ रहे हैं। यह तो ऐसा ही है जैसे गन्तव्य तक पहुँचने के लिए कोई दौड़ती हुई रेलगाड़ी में चढ़कर भी दौड़े। आप चढ़कर स्थिर बैठ जाएं तो पहुँच ही जाएंगे। उसी प्रकार श्वास की डाली पकड़ लें। आश्वासन है संतों का, आपको पकड़ने में देर है, पहुँचने में नहीं। क्योंकि दूर जाना हो तो दौड़ भी हो, अपने में स्थिर होने के लिए तो ठहर जाना ही काफी है। आपकी दौड़ के कारण दरवाजा दीखता नहीं। मन को प्राण में झोंक दें और देखें तमाशा | मीरा-कबीर बनकर झांकी लें।
।। हरि ओम ।।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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