अजपा साधना : जीवन का महाविज्ञान
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत ….
अजपा साधना : जीवन का महाविज्ञान
इस सृष्टि में शिक्षकों की बहुलता है। ये शिक्षक इधर-उधर का बहुत-सा सूत्र-फार्मूला, छंद तोते की तरह रट लेते हैं। उसे विभिन्न प्रकार के क्रिया-कर्मकाण्डों से जोड़कर अपनी विद्वता सिद्ध करते हैं। कालान्तर में उसे अपने शिष्यों को बता देते हैं। इस तरह शिष्य भी उसी सूत्र को बार-बार दुहराने में अपना जन्म गंवा देते हैं। फिर अपनी सांसारिक विद्वता के आधार पर अपने नाम के आगे ब्रह्मविद्, ब्रह्मर्षि आदि जोड़कर अपनी श्रेष्ठता साबित करने की कुचेष्टा करते हैं। चाहे हम जो भी कर लें वह हमारी भ्रान्ति होगी। मन का छलावा होगा। मन को भुलाने का भ्रम होगा। कोई शराब, सिनेमा, क्लबों में मन को भुलाता है, कोई खास सूत्रों को रटकर मन को भुलाने की चेष्टा करता है। दोनों में बहुत अन्तर नहीं है। दोनों एक ही सिक्वे के दो पहलू हैं। यही गुरु-डम है। शिष्य इसे ही पसन्द करते हैं। जैसे ग्राहक होते हैं उसी के अनुरूप बाजार में सामान उपलब्ध होते हैं | प्रत्येक व्यक्ति जल्दी में उल्टा-सीधा करने लगता है। जिसका परिणाम यह होता है कि उसका यह जन्म भी भटक जाता है।
कल एक महिला हमसे मिलने आई। वह कहती है कि मैं अमुक गुरुजी की शिष्या हूँ। मैंने उससे पूछा, क्या आप अपने गुरुजी से मिली हैं ? वह आवेश में आकर बोली, मैं दस वर्षों से उनकी शिष्या हूँ। हर रविवार को सत्संग में जाती हूँ। लगभग हर माह दस हजार दान भी करती हूँ। गुरु की तस्वीर गर्दन में लगाकर रखी थी। वह दिखाते हुए बोली- देखो यही हमारे गुरु हैं। मैंने उससे पुनः पूछा – आप केवल यह बताएं कि आप अभी तक अपने गुरु से प्रत्यक्ष मिली हैं या नहीं। आप का मंत्र जाप भ्रामक है। तब वह निराश हो गई। नहीं अभी तक नहीं मिल पाई हूँ। उनसे मिलना इतना आसान नहीं है। वहाँ लाखों लोगों की भीड़ होती है। वे तो मात्र कुछ बड़े-बड़े लोगों से ही मिल पाते हैं। उनके यहाँ धर्म प्रचारक हैं जिन्हें महीना मिलता है | वे ही हमें मंत्र देते हैं। एक बार गुरुजी गुरु पूर्णिमा के अवसर पर लाखों व्यक्ति के मध्य उपस्थित हुए थे। उन्होंने माइक पर कुछ मंत्र बताए। जिसे हम लोगों ने लिख लिया। इतनी भीड़ थी कि मैं उनका चेहरा ठीक से नहीं देख पाई। मैंने उससे पूछा कि तू क्यों उसकी भीड़ में सम्मिलित हुई ? वह जवाब में बोली- उनके यहाँ बड़े-बड़े लोग जाते हैं। वहाँ जाने से सम्मान बढ़ता है। बड़े लोगों से परिचय होता है। यही मेरे जाने का मुख्य आकर्षण था।
सद्गुरु तथाकथित मंत्र छीन लेता है | आज का शिष्य गुरु से भी सम्मान चाहता है। सद्गुरु कबीर कहते हैं, ‘‘जो गुरु से सम्मान चाहता है वह सीधे यमपुरी में बंध कर जाता है।’’ सद्गुरु सारा सूत्र, छंद छीन लेता है। वह एक तकनीक प्रदान करता है – जो सदा से सभी को मिली है। परमात्मा ने बिना किसी भेदभाव के सभी को उपलब्ध कराई है। लेकिन व्यक्ति अपने नजदीक खोजने की कला भूल गया है। वह खोजता है भीड़ में। वह खोजता है पर्वतों पर। वह खोजता है जंगल में। वह खोजता है समुद्र में। जहाँ कभी भी किसी को नहीं मिला है। न ही मिलने की सम्भावना है। यह सब मन का खेल है। मन उसे वहीं खोजने को कहता है | जहाँ उसे मिलने की सम्भावना नहीं है।
सुना है रविन्द्र नाथ ने एक कहानी लिखी थी। एक साधक परमात्मा को खोजने निकला। किसी ने उसे परमात्मा का पता बता दिया। वह सीधे वहाँ पहुँच गया। सोचता था, देखो मैं वर्षों से इसी रास्ते से गुजरता था। कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा कि परमात्मा यहीं, इतने नजदीक मिल जाएगा। वह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर चला गया। वहाँ परमात्मा के नाम का बोर्ड भी टंगा था। उस व्यक्ति ने हाथ उठाया तथा घंटी के स्विच पर रख दिया। अचानक तेजी से हाथ उठाया, जूता निकाल कर हाथ में लिया, फिर धीरे-धीरे उल्टे पांव भागा। कहीं ऐसा ना हो जाए कि परमात्मा हमें पकड़ ले। फिर हमारे खोजने का ढोंग समाप्त हो जाएगा। खोजने में रस आता है। परमात्मा यदि सामने खड़ा हो जाएगा तब मैं क्या कहूँगा ?
वह व्यक्ति अभी तक परमात्मा की खोज में लगा है। लेकिन हर समय सजग रहता है कहीं भूलकर भी कदम उधर न उठ जाए; जिधर कभी उठ गया था। पाखण्डी गुरु और चमत्कार- यही स्थिति है व्यक्ति की। उसे परमात्मा की प्यास रत्ती भर भी नहीं है। कुछ उत्साही युवक परमात्मा-आत्मा का रटा-रटाया प्रश्न जरूर करते हैं। लेकिन जैसे ही उस रास्ते पर चलने को कहते हैं तो उनकी जो प्रतिक्रिया होती है, उसमें केवल अपेक्षाएँ होती हैं- क्या मुझे नौकरी नहीं मिलेगी ? मेरी शादी नहीं होगी ? मेरी पत्नी से नहीं पटती है ? मैं कर्ज में फँस गया हूँ। उससे मुक्ति दिला दें। हमें बच्चा नहीं है आप दे दें। अपने-अपने सांसारिक कष्टों से गुरु का दोहन करते हैं। मेरा अमुक कार्य कर दें। मैं अवश्य भजन करूंगा। उसका यह कार्य हो गया तब दूसरी समस्या रख देता है। इस तरह अन्तहीन समस्या बनी रहती है।
जिसकी समस्या का समाधान हो जाता है। वह फिर गुरु की शिकायत, निंदा में व्यस्त हो जाता है। उसे झूठा, नीच, मक्कार, ढोंगी के विशेषण से विभूषित करता है। यही कारण है कि वास्तविक गुरु समाज में चूक जाते हैं। नकली गुरु, नकली तांत्रिक समाज में प्रसिद्धि, नाम अर्जित करते हैं। वह बोर्ड ही लगाकर रखते हैं, ‘आपकी सारी समस्याओं का समाधान मेरे यहाँ मिल जाएगा’| वह प्रत्येक समस्या के लिए मोटी रकम लेते हैं। जब लोभी शिष्य की पॉकेट खाली हो जाती है, तब अपनी बेवकूफी छिपाने के लिए उसकी झूठी प्रशंसा करता है और लोगों को फंसाता है। जिससे उसकी भी आय में वृद्धि होती है। इस तरह हजार व्यक्ति को ताबीज बांटा गया तो दो सौ अवश्य ठीक होंगे। उन्हें पकड़कर अपनी सिद्धि के लिए प्रचारित कराते हैं। जिससे उनकी दुकानदारी शीघ्र ही फ़ैल जाती है।
लोग हमसे कहते हैं, “महाराज जी, चमत्कार को नमस्कार किया जाता है, आप तो कुछ चमत्कार करते नहीं |” वास्तविक गुरु मूर्ख प्रतीत होता है। चमत्कार तो राक्षसों के पास होता है। रावण, मारीच, मेघनाथ शूर्पणखा सभी चमत्कारी हैं। कालनेमि भी चमत्कारी है। जो राम, सीता, लक्ष्मण तथा हनुमान तक को अपने चमत्कार रूपी पाश में आबद्ध करने की कुचेष्टा करता है। चमत्कार रहित हैं राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, विश्वमित्र, संदीपनी, कबीर, नानक | अतएव साधक को अपने इष्ट के प्रति सजग रहना होगा, न कि चमत्कार की खोज में। अन्यथा आप निस्संदेह ठगे जाएंगे।
सर्वश्रेष्ठ है अजपा
अजपा विधि अभी तक की सारी विधियों में सर्वश्रेष्ठ है।
अजपा सदृशी विद्या अजपा सदृशो जपः।
अजपा सदृशम् मंत्रम् न भूतम् न भविष्यति।।
अर्थात् अजपा से और कोई श्रेष्ठ नहीं हो सकता। अजपा की स्थिति अत्यन्त चिरस्थायी चिरंतन विद्यमान है।
यह विधि सार्वभौमिक ऊर्जा के क्षय तथा संरक्षण के सिद्धान्त पर आधारित है। हम श्वास लेते हैं। वैज्ञानिक इसे ऑक्सीजन कहते हैं। फिर हम श्वास छोड़ते हैं। जिसे वैज्ञानिक कार्बन डाइ-ऑक्साइड कहते हैं। अब प्रश्न उठता है प्राण क्या है ? इस पर वैज्ञानिक अभी खोज कर रहे हैं। हो सकता है कुछ समय में खोज लें। मेरा अनुभव है -ऑक्सीजन के साथ जो जाता है, उसे हृदय ग्रहण कर लेता है। बाकी अवशेष को लौटा देता है। जिसे ग्रहण कर लेता है वही ‘प्राण’ है। जैसे हम सेब खाते हैं। उसका अवशेष मूत्र तथा विष्टा के रूप में निकाल देते हैं और सत्व ग्रहण कर लेते हैं।
प्राण अत्यन्त कीमती है। इसी प्राण के असंतुलन से व्यक्ति में, समाज में नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। योगीजन प्राणायाम के द्वारा, उपवास के द्वारा या विभिन्न हठयोग के द्वारा प्राण का संतुलन बनाते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप उनमें अपूर्व ऊर्जा का संचय हो जाता है। वे विलक्षण व्यक्ति हो जाते हैं। उनका रहन-सहन सभी कुछ बदल जाता है। जिसको करुणा की दृष्टि से देख लेते हैं, उसका भाग्य बदल जाता है। जिस पर क्रोध करते हैं, उसका भी भाग्य नष्ट हो जाता है। फिर आप प्रश्न करेंगे ऐसा क्यों ? उस साधक ने प्राण रूपी ऊर्जा का संचय प्रचुर मात्रा में कर लिया है। जिसके भाव बदलते ही सामने वाले व्यक्ति में ऊर्जा का प्रवाह होता है। उसका फलाफल उसके भाव के अनुरूप होता है। आज के व्यक्ति ने असंतुलन पैदा कर दिया है। जिसका परिणाम है- आतंकवाद, भ्रष्टाचार। प्रत्येक व्यक्ति उस खुशी को बाहर खोजता है। जिससे उसकी प्राण रूपी ऊर्जा का ह्रास होता है। वह असंतुलन का शिकार होता है। सारे दुःखों को निमंत्राण स्वयं देता है।
आत्म साक्षात्कार
अजपा की सम्यक आवृत्ति से श्वास की दिशा और प्रवाह अपने आप विपरीत दिशा में होने लगता है। जिससे प्राण का संरक्षण तथा संचय होने लगता है। संतुलन हो जाता है। जैसे-जैसे ऊर्जा की वृद्धि होती है, व्यक्ति की शारीरिक क्षमता की वृद्धि होती है। बाद में इसके परिष्कृत होने पर मानसिक विकास के साथ रोग प्रतिरोधी क्षमता में वृद्धि होती है। उच्च मानसिक तथा शारीरिक संतुलन होने के पश्चात् शक्ति घनीभूत होने लगती है। जो आध्यात्मिक शक्ति में बदल जाती है। इसी स्थिति को पूर्ण संतुलन कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में आत्म-साक्षात्कार कहते हैं।
अजपा मंत्र दीक्षा
इस विधि को बताने व सिखाने की कला को ही दीक्षा कहते हैं। यही जीवन का विज्ञान है। यही मृत्यु का ज्ञान है। अजपा अर्थात् जिसे दुहराया ना जा सके। जिसमें जीभ कंठ की आवश्यकता नहीं हो। जो बिना किसी प्रयास शर्त के स्वतः होता हो। यह महामंत्र है। चूंकि जो स्वतः जाप हो रहा है, उसे ही महामंत्र कहते हैं। श्वास-प्रश्वास की आवृत्ति से प्राण की ऊर्जा अनवरत स्पन्दन करती है। सद्गुरु उसी ध्वनि को शिष्य को सुनाता है। वही शब्द मंत्र है। यही पूर्ण जीवन का केन्द्र है।
‘महामंत्र जपत महेषु। काशी मुक्ति हेतु करत उपदेशु |’ भगवान शंकर भी इसी महामंत्र का जाप करते हैं। हमारे गुरु ‘ॐ नमः शिवाय’ पकड़ा देते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति प्रति मिनट में पन्द्रह बार श्वास लेता है। इस तरह प्रति घंटा नौ सौ बार। चैबीस घंटे में इक्कीस हजार छह सौ तथा एक वर्ष में अठहत्तर लाख चैबीस हजार तथा एक सौ बीस वर्ष में छियानवे करोड़ एक सौ दस लाख की श्वास हमें मिली है। यही कारण है कि ज्योतिषी लोग एक सौ बीस वर्ष की कुण्डली तैयार करते हैं।
मनुष्य एक मिनट में पंद्रह बार श्वास लेता है। एक श्वास में धड़कनों (पल्स) की संख्या पाँच होती है। इस तरह प्रति मिनट पचहत्तर तथा प्रति घंटा चार हजार पाँच सौ होगा। चैबीस घंटे में एक लाख आठ हजार बार होता है। यही कारण है कि साधक 108 मनकों की माला पहनता है। वेद कहता है कि ब्रह्म की प्रश्वास अर्थात् श्वास निकलने से इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई है। ब्रह्मा शब्द संस्कृत के ‘ब्रह्म’ धातु से बना है जिसका अर्थ हुआ सांस छोड़ना, वृहत् टोन फैलना या स्पन्दित होना।
प्रति श्वास में पाँच बार स्पन्दन होता है। जिससे शब्द उत्पन्न होता है। यही शब्द मंत्र है। यही महामंत्र है। जिस क्षण गुरु उसे बता देता है शिष्य का दूसरा जन्म होता है। उसी क्षण से वह द्विज हो जाता है। वही द्विज आत्म साक्षात्कार करने पर ब्राह्मण कहलाता है। ये शब्द जाति सूचक न होकर गुण सूचक हैं। जो इस विधि को शिष्य में हस्तांतरित करता है- वही सद्गुरु है। जो एक दीपक से दूसरे दीपक को प्रज्वलित कर देता है। इसी विधि के सम्बन्ध में कबीर साहब कहते हैं-
‘श्वास श्वास में नाम ले, वृथा श्वास मत खोय।
ना जाने केहि श्वास में, आवन होय न होय ||’
आगे कहते हैं-
‘श्वासा की करूं सुमीरणी, अजपा का करूं जाप |’
अजपा के द्वारा सारे रहस्य अपने आप खुल जाते हैं।
‘अजपा जपे सो जाने भेऊ ||’
।। हरि ॐ।।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
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