ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत…
ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व
पौराणिकों ने उषाकाल को ब्रह्म बेला कहा, बुद्धिवादियों ने गलती से उसे ही ब्रह्ममुहूर्त कहना चाहा। मुहूर्त क्षण भर का होता है-घंटों-घंटों का नहीं होता। ब्रह्म-बेला ढाई घंटे प्रातः में माना जाता है। प्रातः चार से छह बजे सूर्योदय पूर्व का समय। मुहूर्त अलग ही बात है। योगी के लिए ब्रह्ममुहूर्त का महत्त्व है। श्वसन के तीन मार्ग हैं। सूर्य नाड़ी, चन्द्रनाड़ी और ब्रह्मनाड़ी जिसे काव्य की भाषा में गंगा, यमुना और सरस्वती कहा गया है। योग की भाषा में इन्हें पिंगला, इंगला और सुषुम्ना कहा गया है। दायीं नासिका रंध्र को पिंगला- गर्म धारा; बायीं को इंगला- ठंडी धारा और नासिकास्थि में स्थित ऊर्ध्व सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। जिसने इस दिशा में प्रयास किया है, उसने इसका एहसास भी पाया है।
सहज रूप में श्वास की दायीं-बायीं राह ही सामान्य लोगों को विदित है। कम ही लोग जानते हैं कि ये दोनों राहों का श्वसन भी बारी-बारी से डेढ़ घंटे के दरम्यान पर होता है। चैबीस घंटों में श्वास प्रत्येक रंध्र से सोलह बार चलती है। साधारण जन भूला रहता है कि कब प्राण का प्रवाह बदल गया पर योगी इसी मुहूर्त को पकड़ता है। दोनों श्वासों के बीच एक श्वास ब्रह्मनाड़ी से चलती है- फिर बदल जाता है मार्ग। जिस क्षण श्वास की राह बदलती है, वही ब्रह्म मुहूर्त है और यह ब्रह्म मुहूर्त सब का एक ही नहीं होता। यह मुहूर्त चैबीस घंटे में सोलह बार आता है। उसी मुहूर्त में आध्यात्मिक पथ के खुलने की संभावना है। वह कितना छोटा क्षण है, इसका अनुमान इसी से कर सकते हैं कि आज तक आपको उस मुहूर्त का पता नहीं चला है। उसका पता योगी को लगता है और इसके लिए कभी स्वस्थ चित्त होकर लगातार डेढ़ घंटे तक जाने-आने वाली श्वास का साक्षी होना होता है। एक बार आप उस क्षण को पकड़ लेते हैं तो आपकी अन्तर्यात्रा की संभावना बढ़ जाएगी। उस मुहूर्त को नहीं पकड़ पाए तो योग आपकी समझ में नहीं आएगा।
अध्यात्म में योग का अर्थ है दोनों नासिका रंध्रों से चलती प्राण वायु का सम होना। प्राण वायु की विषमता का मतलब है- दोनों रंध्रों से बारी-बारी श्वास चलना। दोनों से एक साथ चले तो इसे ही श्वास को समता में लाना कहा जाता है। प्राणायाम, जप, विपासना कीर्तन- सबका उद्देश्य है प्राणवायु को समता में लाना और यह तभी संभव होता है जब प्राणवायु ब्रह्मनाड़ी से आने-जाने लगे और एक बार यह नाड़ी चलने लगती है तो चक्र-भेदन के सारे रहस्य क्रमशः खुलते जाते हैं।
योगी की पहचान उसकी श्वास से ही हो जाती है। उसकी श्वास चैबीस घंटे समरस रहती है। जिसकी श्वास समरस हो जाती है, वह सदा जागा हुआ माना जाता है क्योंकि यौगिक क्रिया में लीन योगी, योगयुक्त हुआ जागरण में भी सोया रहता है देह से, और सोये में भी जागा रहता है चैतन्य से। ऐसा योगी रात भर योग चक्र में रहकर भी सवेरे तरोताजा ही दिखता रहेगा। नींद नहीं लेने की खुमारी या थकान वह अनुभव नहीं करेगा। दोनों दायीं-बायीं प्राण वायु का जिस स्थान पर योग होता है, उसे ही दशम् द्वार या त्रिकुटी कहा जाता है। उसे गुरु पीठ भी कहा गया है। वही कूटस्थ ब्रह्म भी कहलाता है। जिस मुहूर्त में योगी पहली बार इसे अनुभव करता है- उस क्षण उसे गुरु पीठ पर तारे का प्रकाश अनुभव होता है। अत्यन्त आनन्द का अनुभव होता है। वह मुकाम दिख जाता है, जिसे दो दल कमल कहा जाता है। यही आदमी भूला रहता है। इसी की याद को ईश्वर का स्मरण या सुमिरन कहा जाता है। यहीं सोऽहमस्मि का अहर्निश जाप चलता रहता है। यहीं जीव की बैठकी का मुकाम है। यहाँ जो पहुँच जाता है वह तीन अनुभव एक साथ करता है- ध्यान क्या है? समर्पण क्या है? और अन्तर्यात्रा क्या है? यही अध्यात्म का मुख्य द्वार है। आग्रह इतना ही है कि डेढ़ घंटे श्वास का साक्षी होकर उस ब्रह्म मुहूर्त को पकड़ लें। इतना तो पुरुषार्थ करना ही होगा।
आपने जीवन के कितने वर्ष खोए, कितने वर्ष साधु-महात्मा के पीछे दौड़े, समय खराब किया, पैसे बर्बाद किए क्या किसी ने आपको आपके भीतर उतरने की युक्ति दी? संतों ने अष्ट कमल और दस चर्खे की शरीर के भीतर चर्चा की है, क्या आपने एक भी देखा? अगर नहीं देखा तो इतना तो मान सकते थे कि अब तक जो राह बताई गई आपको वह गलत थी। हजारों में कोई एक ही विधि जानता है, वह बताए भी तो किसे? कोई संकल्पवान साधक मिले तब तो काम हो। अन्धी दौड़ छोड़कर जो अपने में ठहर जाता है, वह पा ही जाता है। अपना धन ढूंढने के लिए दूसरों के पॉकेट में कब तक हाथ डालते रहोगे? खुद जागो।
ये कमल और भँवर ऊर्जा शरीर के ही स्थल हैं। ये सभी प्राण वायु के ही क्रियाशीलन हैं। ज्ञान की गंगा भीतर है, जहाँ नहाकर तन-मन को शुद्ध करना है। आत्मा ही नदी है, ज्ञान ही पानी है और संयम-पुण्य ही तट है। श्वास ही निष्काम कर्म है। इसी की ओर गीता का संकेत है, पर पंडितों ने अनाप-शनाप व्याख्या करके गुमराह कर दिया। श्वास पर हमारा वश नहीं है। हम श्वास को संयमित कर मिनटों रोक सकते हैं, पर श्वास की राह हम बदल नहीं सकते। दाएं-बाएं श्वसन में हम गाफिल रहते हैं। योगी इसी में लीन रहता है और उस मुहूर्त की पहचान कर सुषुम्ना में सरक जाता है, वह अपनी ब्रह्म-नाड़ी को खोलकर अन्तः चक्रों में रसाई करना सीख जाता है।
उस मुहूर्त को पाने की विधि का संकेत किया जाता है आपकी श्वास को आप नासिकास्थि से ऊपर जाने दें, खिंचाव भृकुटी से करें। श्वास इतनी धीमी लें कि श्वास से जरा भी आवाज न हो। श्वास को अति विरल यानि पतली बनाएं कि पूरी श्वास लेने में मिनट भर समय लग जाए फिर किंचित कुसक कर उसी अनुपात से भृकुटी से नीचे उतरने दें। इसमें भी समय लगेगा। आप पाएंगे कि ऐसा श्वसन करते समय पता नहीं चलेगा कि श्वास किस रंध्र से चढ़ रही है और किस से उतर रही है? इसे ही श्वास का सम होना माना जाना चाहिए। सम श्वास हर हालत से सुषुम्ना से ही जाती-आती है और इसी पर अध्यात्म योग का सारा दारोमदार है।
जो संत कहे- आओ, बैठो, करो और देखो। वहाँ ठहर जाना। जो बातें बनाए बरगलाए- वहाँ से जल्दी टल जाना। विरले संत यह मार्ग जानते हैं और सबको बताते भी नहीं हैं। क्योंकि इस राह में विघ्न हजार हैं और बारह-चैदह वर्ष ठहरकर चक्र भेदन करने के लिए ठहरने वाले कम मिलते हैं। जब कुछ बनना है तो कुछ करना है।
|| हरि ॐ ||
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
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