संगिनी या बंदिनी
संगिनी या बंदिनी
हमें पता नही था,
परंपराएं रूढ़ियां
जातिगत संस्कार
सब घेरे हैं
जो बनाए गए हैं,
सुरक्षा की आड़ में
बंदी बनाए गए हैं ।
फैसलों का दामन
हरदम तंग ही रहा,
रीतियों और ख्वाहिशों
का ऐसा जंग रहा ।
निभाना ही बर्चस्व है
तो हमसे क्यूं नही निभाया जाता
कभी हमारे हक में भी
रीत कोई बनाया जाता ।
जिम्मेदारियों के नाम पर
कठघरे तैयार हैं,
हर पल परीक्षा है,
प्रश्नों की बौछार है।
गुजरता हर पल मानो
उपलब्धियों का शोर है
कहां सुना जाता है
हरदम मन की
कहता कोई और है।
हम नही चाहते प्रशंसा
न रुतबा हैसियत तुम्हारी,
बस सम्मान आहत न हो
दब जाए हम जिसमे
सर पर ऐसी चाहत न हो।
घर का कोना छोटा सा
शांति का दीप जले हमारा
हर कोना जिसका सजाया
ख्वाब निरन्तर पले हमारा।।
रचयिता रेणु पांडे