चाय और एक निशाचर
चाय और एक निशाचर
बात उन दिनों की है जब मुझें कंपनी में करीब दो साल हुए थे। काम और कुछ घरेलू परेशानियों के चलते मैं दूसरी पाली (सेकंड शिफ़्ट) में काम करता था। मेरी शिफ्ट दोपहर के २ बजे से लेकर रात के १० बजे तक होती थी। कभी कभी काम के दबाव को लेकर या फिर ऑफिस की आखिर बस छूट जाने की वजह से रात ऑफिस में गुजारनी पड़ती।
ऐसे समय में शायद ही कोई ऑफिस में रहता। हमारी कैंटीन हमारे ऑफिस बिल्डिंग के छत पर थी। रात को वहाँ कोई नहीं होता। वहाँ चाय और कॉफी की वेडिंग(vending ) मशीन थी। बस वो शुरू होती। कभी कभी मैं रात में जब काम करते करते थक जाता, तो सुस्ती और बोरियत भगाने के लिए करते चला जाता। और चाय की चुस्कियों के बीच खुली छत पर चहलकदमी करता।
ऐसे भीड़ भाड़ वाले शहर में , इतना सन्नाटा, ऐसा खुला आसमान और मंद मंद हवा, काफी अच्छा लगता। कुछ देर बिताने के बात मैं फिर अपने डेस्क (काम करने की जगह) पर लौट आता।
एक रात को तक़रीबन दो बजे, मैं वेडिंग मशीन से चाय लेकर छत की तरफ़ बढ़ा ही था, तो दूर अँधेरे में एक मंडराते साये को देखकर ठिठक कर रूक गया। समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। मैं वहीं छत के दरवाजे के पास, अँधेरे में चुपचाप खड़ा हो गया, और अँधेरे में ही साये की टोह लेने लगा। क्या कोई सचमुच वहाँ था , या ये कोई मेरा वहम था। इतने महीनों में मैंने तो कभी किसी को नहीं देखा था। इसलिए मेरे लिए यह तनाव का विषय हो गया। ध्यान से देखने पर लगा की सचमुच कोई दुबला पतला सा व्यक्ति दूर छत की दूसरी तरफ चहलकदमी कर रहा था। अचानक बीच बीच में से छोटी टिमटिमाती लाल रोशनी भी दिखती। मैं चुपचाप चाय के कप को कसकर पकड़े खड़ा था। तैयारी थी की अगर जरूरत पड़े तो, मैं तुरंत दौड़कर सीढ़ियों से होते हुए पाँचवें मंजिल की सिक्योरिटी डेस्क तक पहुँच जाऊँ।
तकरीबन १०-१२ मिनटों तक ये सिलसिला चलता रहा। फिर देखा उस साये ने कुछ तो जमीन पर फेंका और मेरी ओर बढ़ने लगा। मैं दरवाजे से होकर वेंडिग मशीन की तरफ बढ़ गया।वहां रोशनी थी। वह साया जब रोशनी में आया तो देखा की एक दुबला पतला, बड़े बाल वाला व्यक्ति, था जिसने बिना मेरी तरफ देखे लिफ्ट (lift) की तरफ बढ़ गया और वहाँ से ४ थी मंजिल पर चला गया। उसके जाने के आधे घंटे बाद तक मैं वहाँ से हिला।
दूसरे दिन मैंने कुछ लोगों से ये कहानी बताई। तब पता चला की हो हमारे विभाग का सबसे होशियार कर्मचारी था और जो अक्सर रात को ही काम करता था। यह उसका स्वभाव था। खैर वो मेरी ही तरह एक इंसान था और कोई साया नहीं, ये मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था। नहीं तो मैं रात को कीबोर्ड (keyboard) के अपने आप आवाज आने वाली कहानियों को सच मान बैठता था।
उस घटना के बाद मुझे अहसास हुआ, उस बिल्डिंग में की मेरे जैसे निशाचर और भी थे। मेरा रात्रि को चाय पीने का क्रम थोड़ा कम हो गया और जब भी जाता , चाय लेकर अपने जगह पर तुरंत लौट आता।
दिनेश कुमार सिंह