शिव नेत्र एवं षट् चक्र
|| श्री सद्गुरवे नमः ||
शिव नेत्र एवं षट् चक्र
यह आप समझ लें कि आप ही शिव स्वरूप हैं। आपका तृतीय नेत्र खोलना है। त्रिनेत्र खुलते ही आपमें सारी क्षमता स्वतः आ जाती है जिससे समाज का कल्याण कर सकते हैं। लामा लोग चिकित्सा द्वारा चीरकर उस नेत्र को निकालते हैं। लामा तिब्बत प्रदेश में इस पर बहुत काम किए हैं। परन्तु मेरा विचार इससे भिन्न है। जैसे किसी बच्चे को पाँच मास में ही माँ के पेट से निकाल लें। वह बच्चा सदैव मरा-मरा ही होगा। जितने त्रिनेत्र सर्जरी के द्वारा लामा लोगों ने निकाले हैं, वे बुद्धत्व को नहीं उपलब्ध हो सके। यही कारण है कि भारतीय मनीषी गणों ने इसे षट् चक्रों के द्वारा ही खोला है। जैसे कोई लड़का प्रथम कक्षा से पढ़कर सीधे एम.ए. करे अथवा किसी बड़े बाप के पुत्र को एकाएक एम.ए. कक्षा में ही बैठा कर शिक्षा दी जाए। अतएव आप षट् चक्रों के द्वारा ही यात्रा करें। विशेष जानकारी कुण्डलिनी-जागरण एवं दिव्य गुप्त विज्ञान में दी गई हैं। फिर भी मैं इसका वर्णन यथासम्भव कर रहा हूँ।
आप शरीर+मन+प्राण के समन्वय हैं। साधना के लिए स्वस्थ शरीर अत्यावश्यक है। षट् चक्रों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। काम केन्द्र, प्राण केन्द्र एवं विज्ञान केन्द्र। इन्हें हम तमोगुणी, रजोगुणी एवं सतोगुणी भी कह सकते हैं। तीन का अटूट समन्वय है।
मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र दोनों काम केन्द्र हैं। मणिपुर और अनाहद प्राण केन्द्र तथा विशुद्धि और आज्ञा चक्र विज्ञान केन्द्र हैं। सहस्रार तो केन्द्राधिपति है। हमारी चेतना इन्हीं केन्द्रों से सदैव प्रवाहित होती है। ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन और अधोगमन दोनों तरफ होता है।
सर्वसाधारण व्यक्ति में ऊर्जा काम केन्द्र के ही चारों तरफ चक्कर लगाते रहती है। यही कारण है कि सही दिशा निर्देशन के अभाव में व्यक्ति जन्मों जन्म तक पशु ही बना रह जाता है। मनुष्य चाहे बड़े से बड़ा पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है लेकिन काम के तनाव से मुक्त नहीं हो पाता है। जिससे व्यक्ति राग-द्वेष, निराशा, आशा, संयोग-वियोग, प्रिय-अप्रिय के भाव से सदैव जूझते रहता है। यह भाव काम केन्द्र के चारों तरफ फैली हुई चेतना के स्पन्दन से उत्पन्न होते हैं। अन्य वृत्तियाँ लोभ, ईर्ष्या, भय, अपमान, द्वेष तो क्षणिक होते हैं।
फ्रायड ने सभी वृत्तियों को काम से ही जोड़ कर देखा है। ऊर्जा का प्रवाह इन्हीं दो चक्रों के चारों तरफ घूमता है। अतएव चेतना भी उधर ही दौड़ती है। चूंकि मन उसी दिशा में कल्पना करता है। कल्पना के बिना व्यक्ति काम में नहीं उतर सकता है। काम में उतरने के लिए कल्पना जरूरी है। जैसे ही काम के सम्बन्ध में कल्पना करते हैं- सारी चेतना उधर ही प्रवाहित हो जाती है। जिससे सम्बन्धित इन्द्रियों में उत्तेजना प्रारम्भ हो जाती है। साधक के लिए यही स्थिति युद्ध के तुल्य है- कैसे कल्पना की दिशा को परिवर्तित करेंगे। जैसे ही कल्पना की दिशा में परिवर्तन करते हैं ऊर्जा का प्रवाह एवं चेतना की दौड़ भी दिशा बदल देती है।
मणिपूरक और अनाहद चक्र प्राण केन्द्र हैं। काम या क्रोध के समय साधक अपने श्वास के प्रति सजग हो जाए। श्वास बाहर जाती है तो कुछ क्षण बाहर रोक दे। अन्दर जाता है तो कुछ क्षण अन्दर ही रोक दे। श्वास ही प्राण का माध्यम है। प्राण से गुरु मंत्र को जोड़ दें। तत्क्षण अधोगामी ऊर्जा का गमन ऊर्ध्व दिशा में प्रारम्भ हो जाएगा। लेकिन ऊर्जा, जल का स्वभाव है नीचे की तरफ गिरना। पृथ्वी अपनी तरफ आकर्षित करेगी ही। मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्त्व है। स्वाधिष्ठान चक्र जल तत्त्व है। स्वाधिष्ठान ही काम केन्द्र है। जल सदैव पृथ्वी में मिलना चाहता है।
यही दो चक्र प्रेत लोक भी कहे जाते हैं। ये तमोगुण प्रधान हैं। अतएव भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी आदि निवास करती हैं। इसी के अनुरूप बाह्य जगत में भी लोक हैं। ये आत्माएं अराजकता उत्पन्न करती हैं। ये बड़े-बड़े राजनेता की अकाल मृत्यु, ट्रेन, बस, वायुयान दुर्घटना, प्रलयंकारी बाढ़, तूफान, सुनामी ऐसे झंझावात के मुख्य कारण होते हैं। सामूहिक नर संहार, हिंसा, बलात्कार, सामूहिक घरों में अग्नि लगा देना इनका स्वभाव है। ऐसे स्थानों पर कल्पना से ज्यादा उत्पात करा देती हैं। स्वयं रक्तपान करती हैं। साथ ही अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति पुनः प्रेत योनि को प्राप्त हो जाता है। इन चक्रों पर निवास करने वाले के शरीर में प्रेतात्मा प्रवेश करती है।
मणिपूरक चक्र का नीचे का पाँच दल कमल काम केन्द्र अर्थात् (स्थूल शरीर) अधोभाग से प्रभावित रहता है। पाँच दल मध्य भाग से। मध्य भाग रजोगुणी होता है। यह चक्र सूक्ष्म शरीर एवं स्थूल शरीर दोनों का मिलन बिन्दु है। यह नाभि प्रदेश है। बच्चा माँ से नाभि के माध्यम से ही जुड़ा रहता है। योगी जन स्थूल शरीर को नाभि में ही छोड़कर सूक्ष्म शरीर धारण करता है। प्रेत भी जब तक सूक्ष्म शरीर नहीं ग्रहण करते तब तक दूसरा जन्म नहीं ले सकते हैं।
मणिपूरक के प्रथम खण्ड अर्थात् नीचे के भाग में मनुष्यात्माएँ निवास करती हैं। ऊपर के खण्ड में सूक्ष्म शरीरी आत्माएँ निवास करती हैं। यह चक्र अत्यन्त रहस्यमय है। अतएव आत्माएं एक-दूसरे खण्ड में आ जा सकती हैं। यदि स्थूल शरीर में कोई काम रह गया, उसकी कामना शेष रह गई तब वह स्थूल शरीर में चली जाती है। यदि उनका कार्य सूक्ष्म शरीर में रह गया तो वह सूक्ष्म में चली जाती है। दोनों शरीर कर्म प्रधान हैं। स्थूल शरीर मानसिक एवं शारीरिक कर्म संयुक्त रूप से करता है। जबकि सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म जगत में केवल मानसिक कार्य करता है।
भूत-प्रेतादि तामसिक आत्माएं साधारणतः जन्म नहीं लेती हैं। यदि कहीं जन्म ले भी लिया तो धर्म भ्रष्ट, नास्तिक, देश द्रोही होते हैं। कुछ उपखण्ड में तामसिक अप-देवता निवास करते हैं। वे भी मानव शरीर धारण कर मानवता के विरुद्ध कार्य करते हैं। कुछ धर्म की चादर ओढ़कर धर्मगुरु बनकर घोर अधर्म फैलाते हैं। ये राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर से अपने को श्रेष्ठ साबित करते हैं तथा अपने को ही सृष्टि का रचयिता, सतयुग लाने वाले कहते हैं। अधर्म को धर्म समझाकर समूह के समूह को नर्क का द्वार दिखाते हैं। ये लोगों को अपने प्रभाव में शीघ्र ही ले लेते हैं। ध्यान का भी नाटक करते हैं। धर्म, राजनीति तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में उपद्रव कराते हैं। लेकिन इन्हें पहचानना अति कठिन है। अभी इनका प्रचार पृथ्वी पर जोरों से चल रहा है। ये समूह के समूह लोगों को पथ भ्रष्ट कर रहे हैं।
मणिपूरक के निम्न भाग एवं स्वाधिष्ठान के ऊर्ध्व भाग में अकाल मृत्यु प्राप्त पितर एवं अपदेवता भी निवास करते हैं। अभी समाज में अप-देवताओं और अधोगति प्राप्त पितरों का जन्म अधिक हो रहा है। ये राजनीति से धर्म तक में अपना साम्राज्य फैलाए हैं। इसी का परिणाम है आज का विश्व।
दूसरा खण्ड अर्थात् रजोगुणी मणिपूरक का ऊर्ध्व भाग एवं अनाहद चक्र है। यहाँ यक्ष, गंधर्व, किन्नर निवास करते हैं।
सकाम तपस्वी, कुछ देव लोग भी रहते हैं। अनाहद चक्र के ऊर्ध्व भाग में ऐसे देवता या तपस्वी रहते हैं जिनकी इच्छाएँ, कामनाएँ पृथ्वी पर शेष रह गई हैं। ये अपना पुण्य भोग कर पृथ्वी पर अच्छे परिवार में जन्म ग्रहण कर लेते हैं। पुण्यात्माएँ इस लोक में निवास करती हैं। साथ ही पृथ्वी पर अपने पुत्र-पौत्र के मंगल की कामना करती हैं।
तीसरा केन्द्र है- विज्ञानमय। यह सतोगुण प्रधान है। विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र। यहाँ सतोगुणी आत्माएँ निवास करती हैं। इसके निम्न भाग में जिसे देव मण्डल कह सकते हैं- देवगण निवास करते हैं। मध्य भाग को सिद्ध मण्डल कहते हैं, जिसमें सिद्ध गण निवास करते हैं। सबसे ऊपर है ऋषि मण्डल जहाँ ऋषि गण निवास करते हैं। यहीं तीनों छंद भी हैं। सूर्य का उषा-काल श्वेत, दूसरा अरुण-काल पीत तथा तीसरा सूर्योदय काल रक्त वलय के अनुसार तीन छन्द हैं- गायत्री छंद, अनुष्टुप छंद और बृहती छंद। गायत्री छंद है मंत्र नहीं है। इसे ही आत्मा कह सकते हैं। आत्मा का कोई स्वरूप नहीं है बल्कि परम चैतन्य है। परम प्रकाश है। अनुष्टुप छंद को ही आप मन तथा बृहती छंद को प्राण कह सकते हैं। आध्यात्मिक लोग इसे ही आत्मा (गायत्री)+मन (अनुष्टुप छंद)+प्राण (बृहती छंद)=पूर्ण चैतन्य मनुष्य। गायत्री को विभिन्न देवी के रूप में पूजना एक तरह के भ्रमजाल में स्वयं को डालना है। विशुद्धि चक्र आत्म शरीर चक्र भी है। यहाँ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का मान होता है। आत्मा ही ब्रह्म है। आत्म शरीरी आत्माएँ यहीं निवास करती हैं।
जिस साधक की कुण्डलिनी ऊर्जा आज्ञा चक्र पर पहुँच जाती है, साथ ही सद्गुरु की कृपा बरस जाती है तब उस साधक का तृतीय नेत्र खुल जाता है। यह विधि सर्वोत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ है। सद्गुरु योग्य शिष्य की खोज में स्वयं लगा रहता है।
इसके ऊपर शरीर नहीं है। आज्ञा चक्र ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का बोध होता है। आनन्दमय स्वरूप हो जाता है। यहाँ गुरु भक्त ही पहुँचता है। पाँच तक तो योगी जन भी पहुँच जाते हैं। आज्ञा चक्र पर पहुँचना गुरु अनुकम्पा का परिणाम है। यहीं पर तीसरा नेत्र भी है। आज्ञा चक्र से मात्र आधा इंच पर है। विभिन्न साधकों में स्थान का थोड़ा सा परिवर्तन हो सकता है। यही है शिव नेत्र।
इस नेत्र के खुलते ही सृष्टि चक्र का सारा रहस्य स्वतः खुल जाता है। फिर आप कहेंगे ऐसा गुरु दुर्लभ है। ऐसी बात नहीं है। मैं सुनता था कि रामकृष्ण परमहंस शिष्य के लिए रात्रि-रात्रि भर रोते थे। लोगों को विश्वास नहीं होता था। लेकिन जैसे ही मैं अपना अनुभव दिनांक 4.4.07 को प्रातःकाल से अंकित करना प्रारम्भ किया। मैं स्वयं ऐसे शिष्य के लिए तीन दिन तीन रात्रि रोता रहा। आश्रमवासी सोचते कि गुरुदेव हम लोगों से नाराज हैं। मैं अपनी नाराजगी किससे कहूँ। मात्र गुफा में रोने के सिवाए कोई चारा नहीं था। अपनी वेदना कैसे, किससे कहूँ। आज तक जिस-जिस पर ध्यान केन्द्रित किया, सेाचा यह अच्छा है। इस पर मैं अपने रहस्य को उतारूँ तत्काल वह अपनी शर्त रख देता है। गुरुदेव पहले मेरा यह काम कर दो। मुझे ऐसा बन जाने दो फिर आपका कार्य करूँगा। मुझे घोर निराशा होती है। योग्य शिष्य मिलना अति कठिन है।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत.
|| हरि ॐ ||
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
Sawa solah aane saty jay gurudev Jay jay gurudev 🙏