गुरु आज्ञा

||श्री सद्गुरवे नमः||
गुरु आज्ञा
गुरु की महिमा अनन्त है। इस तथ्य से सभी परिचित हैं। एक अदना-सा व्यक्ति भी गुरु की महिमा की चर्चा करता है। फिर उससे पूछें कि क्या तू गुरु आज्ञा का पालन करता है? यदि सत्य होगा तो वह मौन हो जाएगा? असत्य ‘हाँ’ कहता है। विद्वान धूर्तता-पूर्ण ढंग से शास्त्र का सहारा लेता है। करोड़ों में एकाध ही गुरु भक्त बनते हैं। जो बनते हैं उन्हें भगवत्ता प्राप्त करते देर नहीं लगती है। ध्यान योग तो बहाना है। विभिन्न प्रकार के योगों से मात्र व्यक्ति में पात्रता आती है। भगवत्ता तो गुरु अनुकम्पा से ही प्राप्त होती है। भगवान की अनुकम्पा से गुरु मिलते हैं।
सद्गुरु कबीर कहते हैं-
‘ज्ञान प्रकाशी गुरु मिला, सो जनि बीसरि जाइ |
जब गोविन्द कृपा किया, तब गुरु मिलिया आइ ||’
सद्गुरु के समक्ष जाकर शिष्य को कुछ भी नहीं करना है। उसे मात्र अपने को अर्पित कर देना है। जो पूर्णतः अर्पित करता है वही सभी कुछ पा लेता है। जो तर्क-वितर्क छिद्रान्वेषण करता है या सोचता है मैं इतने दिन से गुरु के नजदीक आया हूँ क्या मिला। उससे आप पूछें-आपने क्या दिया? काम, क्रोध, वासना दे दिया या उनके आदेश का पालन किया? नहीं, ऐसा नहीं किया गया। शिष्य अपने में दोष न देखकर गुरु में दोष देखने लगता है। यहीं से उसके पतन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
‘सतगुरु बपुरा क्या करै, जे सिषहिं माँहे चूक |
भावै त्यूँ प्रबोधि लें, ज्यूँ बंसि बजाई फूंक ||’
अब शिष्य अपनी शर्तो पर शिष्य बन रहे हैं। वह गुरु से हर सांसारिक वस्तु चाहता है। जब तक मिलती है गुरु के साथ होता है। सभी से कहता है देखो मैं अपना घर-द्वार त्याग कर गुरु की सेवा में हूँ। मैं निष्काम सेवा करता हूँ। जैसे ही उसके मन के विरुद्ध कुछ भी होता है। उसका मुँह मिथ्या निन्दा में मुखर हो जाता है। गुरु को स्वार्थी, भ्रष्ट, लोभी, लालची कहने लगता है। उसकी सारी निष्काम सेवा झूठ साबित होती है।
सत्य को, भक्ति को, भगवान को आज तक वही उपलब्ध होता आया है जिन्होंने सेवा, सुमिरण तथा समर्पण किया है। लोकनाथ नामक बालक गुरु की खोज में था। वह माँ-बाप की एकलौती संतान था। उसके पिता पद्मनाभ चक्रवर्ती यशोहर जिला के रहने वाले थे। जो वर्तमान में बंगला देश में पड़ता है। लोकनाथ ने युवावस्था को प्राप्त कर लिया। एक दिन वह रात में चुपके से घर से निकल गया। पैदल चलकर नवद्वीप शहर पहुँच गया। वह युवक गौरांग महाप्रभु से मिला। गौरांग प्रभु ने उस युवक को दीक्षा दे दी। मात्र पाँच दिन अपने साथ रखा।
छठे दिन गुरु का ओदश हुआ- ‘लोकनाथ, अब तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ। आज से तुम द्विज बन गए। मेरे पुत्र हो गए। क्या मेरी आज्ञा का पालन करोगे?’
लोकनाथ ने कहा- ‘प्रभु ! आपकी हर आज्ञा का पालन करना ही मेरा धर्म है |’
गुरुदेव ने कहा- ‘लोकनाथ। अब तुम सीधे वृन्दावन चले जाओ। और निवास करो |’
‘गुरुदेव! आप मुझे यह आज्ञा क्यों दे रहे हैं। आपसे बिछुड़ने पर मेरा प्राणान्त हो जाएगा |’
गुरु ने कहा-‘लोकनाथ, तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। भक्ति का प्रचार करो। कुछ महीने बाद मैं आऊँगा।’
‘गुरुदेव! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है पर मैं कहाँ रहूँगा ?’
‘चीरघाट पर रहना। वहाँ विशाल जंगल, यमुना, तुम्हारा स्वागत करेगी। अपने साथ इस बालक भूगर्भ को भी लेते जाओ |’
दोनों शिष्य गुरु आदेश को शिरोधार्य कर चल पड़े। उन्होंने राह खर्च भी नहीं माँगा। पैदल भिक्षाटन के सहारे चल दिए। यह घटना संवत् 1432 की है। वे वृंदावन पहुँच गए। मुगलों ने सभी मंदिरों, धर्मशालाओं को तोड़ दिया था। मात्र जमुना एवं जंगल ही मिला। लोकनाथ गुरु आज्ञा को शिरोधर्य कर धर्म प्रचार में जुट गए। हफ़्तों केवल जमुना के जल पर ही रहना पड़ता। उनकी गुरु भक्ति कुछ ही महीनों में रंग लाई। धर्म प्रचार करते रहे। आस-पास के गांवों में पदयात्रा की। गाँव वासी उनकी सेवा में जुटने लगे। वृंदावन को नए सिरे से बसाने लगे। बहुत दिनों के बाद गुरु गौरांग महाप्रभु अपने शिष्यों के साथ पहुँचे। लोकनाथ ने भव्य स्वागत किया। गौरांग प्रभु उसकी मेहनत, सेवा, समर्पण को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो गए।
उनके मुँह से अनायास ही आशीर्वाद निकल आया- ‘बेटा ! तुम्हें आत्म दर्शन होगा। कृष्ण दर्शन होगा। तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई |’
हम जिस यात्रा में समर्पण करते हैं परमात्मा के उतने ही नजदीक जाते हैं। साधारण साधक को पत्थर की प्रतिमा की पूजा करना आसान व तप-धर्म परायण लगता है। गुरु के साथ दिक्कत उत्पन्न हो जाती है। गुरु उसे डांटता है। उसकी इच्छा के विरुद्ध बोलता है। वह तो वही बोलता है जिसमें शिष्य की भलाई हो। सद्गुरु की जब कृपा होती है तब कहीं पत्थर पूजने से बचते हैं |
कबीर कहते हैं-
‘हम भी पाहन पूजते होते बन के रोझ |
सतगुरु कृपा भई सिर से उतरा बोझ ||’
गुरु की आज्ञा को समझना उस पर चल पड़ना ही शिष्यत्व है। जो साधक अपने से तर्क-वितर्क करता है वह निश्चित ही माया के चक्कर में पड़ जाता है। माया ऐसी मोहिनी दीपक है जिसमें जीव कीट की तरह मोहित होकर दूर से खिंचा चला आता है। माया की लौ आकर्षण प्रिय लगती है जिसमें पड़कर अपना सर्वनाश कर लेता है। ऐसी स्थिति में गुरु द्वारा ज्ञान शब्द ही उसकी रक्षा करता है।
सद्गुरु कबीर कहते हैं-
‘माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़त |
कहै कबीर गुरु ज्ञान तै, एक आध उबरंत ||’
विश्वमित्र के विश्वविद्यालय में हजारों विद्यार्थी पढ़कर निकले परन्तु वास्तविक ज्ञान रूपी आदेश को राम ने ही ग्रहण किया। जिसमें उन्होंने अपना सर्वस्व लगा दिया।
रामानन्द ने भूल से कबीर को राम-राम कहने का आदेश दिया। कबीर ने उठकर उनका पैर पकड़ लिया और कहा कि आपने राम-राम का मंत्र देकर आज हमें कृतार्थ कर दिया। गुरु रामानन्द जी को उत्तर देते न बना। शिष्य ने इतने से ही सभी कुछ ग्रहण कर लिया। उन्होंने गर्व से अपने को रामानन्द जी का शिष्य घोषित किया-
‘काशी में हम प्रगट भए हैं, रामानन्द चेताए |’
मात्र इसी शब्द की कीमत में कबीर ने अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया। अतएव ये बिना प्रयास के ही रामत्व को उपलब्ध हो गए। जबकि रामानन्द के अन्य शिष्य जिन पर उन्होंने बहुत समय दिया चारों वेद का ज्ञान कराया, परन्तु उन्हें वह सिद्धि नहीं मिली; जिसे कबीर ने बिना मांगे पाया। गुरु महिमा में कहते हैं-
‘गुरु बिन चेला ज्ञान न लहै |
गुरु बिन इह जग कौन भरोसा, करके संग है रहिए ||
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत…
|| हरि ॐ ||
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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