मूलाधार चक्र है कर्म योग

मूलाधार चक्र है कर्म योग
मैंने शरीर तल से परमात्म-तल की होशपूर्ण यात्रा को ही दिव्य गुप्त विज्ञान कहा है| पिपीलिका (हठ योग) मार्ग जन्म-जन्म का मार्ग है| कुछ कदम यात्रा हुई, फिर पड़ाव पड़ गया| उस रास्ते पर निकले मुरीद को न जल्दबाजी है न ही अन्य कोई कार्य है| कार्य है- मात्र यात्रा| पहले के राजा बैलगाड़ी से यात्रा करते थे योगी इसी पिपीलिका (चींटी) मार्ग से पैदल यात्रा करते थे| उन दोनों में सहज ही सम्बन्ध हो जाता था| समय बदला, युग बदला, परिस्थितियाँ भी बदलीं, बैलगाड़ी का स्थान हवाई जहाज ने ले लिया| परन्तु दुखद घटना है कि योगी वहीं खड़ा है| वायुयान के यात्री भी उसी रटी-रटाई पिपीलिका मार्ग के प्रशंसक एवं अनुगामी बने हैं|
आज समय एवं दूरी पर विज्ञान ने अधिकार कर लिया| हमारे योगी गण वहीं खड़े हैं| बौने प्रतीत होते हैं| फिर भी अपनी रटी-रटाई भाषा का प्रयोग कर दुनिया में नाम कमा रहे हैं| पैसा, पद, प्रतिष्ठा कमा रहे हैं| खैर समय का सद्गुरु अपना कार्य अपने ढंग से करता है| यह भी प्रकृति की महती अनुकम्पा रही है, मेरे योगी साधक, सिद्ध, सिद्धासिद्ध, आचार्य के विभिन्न सोपानों को रॉकेट पर बैठकर सुखद यात्रा करेंगे| जो आनंद-सागर की यात्रा होगी| जहाँ आप स्वयं आनंद में रहते हुए अन्य को आनंद प्रदान कर सकोगे|
मैं विभिन्न चेतना चेतना केन्द्रों पर ध्यान की विधि इस पुस्तक में दे रहा हूँ| जैसे मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहद चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्रों पर क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, प्राण, ह्रदय, मन, आत्मा और ब्रह्म है| इनका गुण धर्म क्रमशः कर्म, वासना, श्वास, प्रेम, विचार, अस्मिता, अनस्तित्व है| इससे योग क्रमशः कर्मयोग, तंत्र योग, हठयोग, भक्ति योग, ज्ञानयोग, राजयोग और सहज योग से सीधे उस परमपुरुष में छलांग लगायी जा सकती है| आप सात चेतना चक्रों से जुड़े सात चेतना केन्द्रों एवं सप्त शरीर की तरफ ध्यान दें| फिर आपकी यात्रा आसान हो जाएगी|
मूलाधार चक्र पर है कर्म योग, हैं वास गणपति का।
शारीरिक विकास इसी चक्र का गुण-धर्म है| पृथ्वी तत्त्व (ठोस खाद्य पदार्थ) भौतिक शरीर की मूल आवश्यकता है| भोज्य पदार्थ, पेय पदार्थ की माँग यह शरीर करता है| इसकी पूर्ति के बाद विश्राम की माँग करता है| जो प्रायः पशु भी करता है| इसी से शरीर का विकास होता है| हड्डी, मांस, खून का निर्माण भी होता है| कमर के नीचे का रोग या ग्रंथि, ट्यूमर इत्यादि रोग इसी चक्र के असंतुलन से होता है|
यह चक्र कर्म सिद्धान्त का प्रतीक है| यहीं कुण्डलिनी सोयी है| जिसका जागृत होना ही विस्फोट है| योग पतंजलि के अनुसार यही क्रिया योग का भी केंद्र है| मेरी मान्यता भी यही है| क्रिया योग के द्वारा योगी इस चक्र पर कुण्डलिनी जागृत कर लेते हैं| ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी बन जाते हैं| वैभवपूर्ण जीवनयापन होने लगता है| फिर कालांतर में समाधि का भी स्वप्न होने लगता है| सुखद स्वप्न बहुत प्रीतिकर होता है जिसके फलस्वरूप क्रिया योग के साधक जन्म-जन्म तक यहीं रुके रह जाते हैं| उन्हें यहाँ से न निकलने की आवश्यकता होती है, न ही इस चक्र के अधिष्ठाता इन्हें बाहर जाने देते हैं| इनकी समग्र आवश्यकताओं की सहज पूर्ति भी होती है| शारीरिक सुख-शांति, विश्राम प्रीतिकर लगना इस शरीर का स्वभाव भी है| पतंजलि भी इसी के अन्दर तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान मानते हैं|
भगवान् कृष्ण निष्काम कर्मयोग की व्याख्या गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 47 से 51 तक बहुत ही अच्छी तरह से करते हैं| जिसकी व्याख्या शंकराचार्य से तिलक, गाँधी तक ने विभिन्न तरह से की है| शंकर ने जहाँ कर्म को बंधन का मूल कहा है, वहीं तिलक सम्पूर्ण गीता को कर्मयोग प्रधान कहते हैं|
कर्म प्राणी का स्वभाव है| इससे न मुक्त हुआ जा सकता है, न ही इसके बिना जीवन संभव है| शरीर के अन्दर मस्तिष्क, धमनियां, ह्रदय, नाक, रक्त-वाहिनी नलिकाएं स्वतः कार्य करती हैं| इस कार्य में उन्हें थकावट भी नहीं होती. न ही इस कार्य के लिए कुछ पारिश्रमिक की इच्छा ही करती है | ये स्वयंसेवी हैं|
कर्मेंद्रियों को अपने कर्मों के लिए भोग के रूप में फल पाने की इच्छाएं प्रबल रहती हैं| इसके अति भोगवादी बनने से शरीर रुग्ण बनता है, जिसका फल सम्पूर्ण शरीर को भोगना पड़ता है|
अतएव भगवान् कृष्ण के कर्मयोग को ठीक से समझना होगा-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन| मा कर्महेतुर्भूर्मा संगोऽस्त्वकर्मणि|| 2.47 ||
अर्थात् कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है| फल पाने पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है| अतः कर्म करते समय फल प्राप्ति पर विशेष ध्यान मत दो| परन्तु ऐसा न समझ लो कि कर्म नहीं करना है|
इस श्लोक की आजतक गलत व्याख्या की गई है जिसका परिणाम है आज का दीन-हीन, शक्तिहीन, प्राणहीन भारत| अमेरिका अनजाने में इस श्लोक का अर्थ ठीक समझ गया है जिससे आज वह शक्ति संपन्न है|
अधिसंख्य लोग अन्याय अन्याय का शिकार बनने पर सिर्फ उसका रोना रोते हैं| निठल्ले होकर भाग्य, भगवान् पर दोष लगाते रहते हैं| सक्रिय लोग अपनी बुद्धि के सहारे उन्हें रौंदते हुए आगे निकल जाते हैं| महाभारत के पाण्डवों में ओज, तेज, प्रतिष्ठा भरी थी| वे सज्जन एवं साधु व्यक्ति थे, परन्तु निष्क्रिय थे| कौरव सक्रिय, सचेष्ट व कुटिल थे| वे पाण्डवों को अपनी सक्रियता एवं कुटिलता से रौंदते रहे| जैसे ही सद्गुरु कृष्ण के सान्निध्य में पाण्डव आये, सक्रिय हो गए| उनके तेज, पौरुष, विवेक, प्रतिभा ने एक निश्चित दिशा में गति करना प्रारंभ कर दिया| जिससे कुटिल बुद्धि, कुचेष्टा को पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के सान्निध्य में सद्-बुद्धि व कर्म से जीत लिया| हालाँकि युद्धभूमि में अर्जुन अपनी पुरानी आदतवश निष्क्रिय हो गए थे| निष्क्रिय व निठाल होने से ही अच्छे लोगों को रौंदकर मुट्ठीभर कुटिल बुद्धि व सक्रिय लोग सारी मलाई हथियाते हैं| जबकि भले लोग चुप बैठे, हाल मलकर सोचते रहते हैं कि भले-अच्छे लोगों के साथ अन्याय व दुर्व्यवहार क्यों होता है ? ऊर्जा को सही दिशा देने के लिए समर्थ समय का सद्गुरु चाहिए| जिसके निर्देशन में पाण्डव आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर सके|
भगवान् कृष्ण द्वारा गया गया गीत ही गीता है| वह गीत भी युद्धभूमि का है जबकि इस पृथ्वी के सम्पूर्ण राजा कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में एक दूसरे को मारने के लिए उद्यत हैं| दोनों अपने को धार्मिक समझ रहे हैं| धर्मयुद्ध प्रारंभ होने से पहले कृष्ण ने गीता गाई है, परन्तु आश्चर्य है कि कृष्ण ने कहा है कि हे पार्थ! यह गीता अर्थात् राजयोग मैंने पहले भी कहा है | वैवस्वत मनु से सूर्य, रघु अर्थात् राजपरंपरा से होकर ही यह राजयोग राजाओं के मध्य फैला है| राजा लोग योगयुक्त होकर राजकाज करते थे| यही कारण है कि उन्हें विष्णु का प्रतिनिधि कहा गया है|
महाभारत के अनुसार भगवान् कृष्ण गीता कह रहे हैं एक राजा (अर्जुन) से| दूसरा सुन रहे हैं- भीष्म पितामह, तीसरा सुन रहे हैं- संजय| सुना रहे हैं- धृतराष्ट्र को| इस गीता का उद्भव एवं गमन का माध्यम राजा ही है| चूँकि यह राजयोग है| राजा के अतिरिक्त दूसरा व्यक्ति न इसे सुन सकता है, न इसका ठीक-ठीक अर्थ ही कर सकता है| यही कारण है कि आज गीता के दो सौ अर्थ उपलब्ध हैं | सभी अपने को ही वास्तविक कहते नहीं थकते हैं| मैं भी आप लोगों से सदैव यही कहता हूँ कि आपलोगों को मैं राजयोग दे रहा हूँ| आप राजा की तरह कार्य करें, राजा की तरह सोचें, राजा की तरह रहें| विद्युत् की धारा को प्रवाह हेतु सुचालक तो बनना ही होगा| जैसे ही आप सुचालक बनते हैं, उससे सम्बन्ध होता है, स्वतः विद्युत् प्रवाहित हो जाएगी| आपको कुछ भी नहीं करना है|
हमें कर्म को ठीक से समझना होगा| कर्म तीन तरह का होता है| 1. क्रियमाण कर्म, 2. संचित कर्म, 3. चिरसंचित कर्म | कर्म के भी तीन आयाम होते हैं-
- उद्देश्य- जिसे ध्यान में रखकर फल की आकांक्षा से किया जाये |
- कर्म- जो तत्काल सामने है, किया जा रहा है|
- फल– अर्थात् परिणाम | फल की आकांक्षा ही व्यक्ति को विक्षिप्त करती है| फल आते ही भूतकाल में हो जाता है| उद्देश्य सदा भविष्य में होता है| व्यक्ति हर समय भूत या भविष्य के चिंतन में, कल्पना में लगा रहता है| जिससे उसका वर्तमान हाथ से निकलता जाता है| जबकि व्यक्ति का फल एवं उद्देश्य दोनों ही वर्तमान पर निर्भर करता है|
क्रियमाण कर्म- जो कर्म वर्तमान में कर रहे हैं, उसे आप योगयुक्त होकर करें| गुरु के दिशा-निर्देशन में कर्तव्य समझकर करें| सदैव गुरु पर्वत पर गुरु का ध्यान रखकर करें| यही कर्म कालांतर में संचित (प्रारब्ध) कर्म एवं चिर-संचित कर्म बन जाता है|
जो फल तत्काल मिल जाता है, दिनभर की मजदूरी संध्या समय (तत्काल) मिल गई| यह क्रियमाण कर्म है| इसे मैं बैंक का कर्रेंट अकाउंट कहता हूँ|
संचित कर्म या प्रारब्ध कर्म- जैसे बैंक का सेविंग अकाउंट| आपने कर्म किया लेकिन फल दीर्घकाल में मिला| बच्चे पढ़ते हैं| उसका फलाफल बीस से तीस वर्ष में मिलता है| यह भी होता है कि पिछले दो-चार जन्मों का भी फल इसी जन्म में मिलने लगा हो| इसे ही ज्योतिषी भाग्य कहता है| पुराण प्रारब्ध कहता है| योगी साक्षी होकर देखता है| अच्छा मिलने पर न हर्ष करता है, न ही बुरा मिलने पर दुःख करता है|
चिर-संचित कर्म- इसे फिक्स डिपॉजिट अकाउंट भी कह सकते हैं| यहाँ जन्म-जन्म का प्रारब्ध जमा रहता है| जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में अंकुरित होकर पुष्पित एवं फलित होता है|
जो भी साधक होगा, वह सद्गुरु के निर्देशन में अपने समय का सदुपयोग करेगा| वह जगत में ऐसा कर्म करेगा कि कोई भी सांसारिक व्यक्ति अपने कर्म में उसके सामने फीका प्रतीत होगा| वह कर्मयोगी होगा| सामने देखने में पूर्ण सांसारिक दिखाई देगा, पीछे देखने में वह विरक्त दिखाई पड़ेगा| जैसे हंस जल ही में रहता है परन्तु उसके उप्पर या पंख पर एक बूंद पानी नहीं रहता| किसी तरह पानी चला भी जाता है तो वह शीघ्र ही गिर जाता है| हंस को जल की सतह पर देखने पर वह जलीय जीव दिखाई देगा| ऊपर से देखने पर जल से अलग दिखाई देगा|
वर्तमान में रहकर आत्मोत्थान हेतु साधना करते हुए जगत-हित में कार्य करते रहना ही कर्मयोग है| फल की आकांक्षा से रहित होकर कार्य करना ही निष्कर्म है| वर्तमान में रहना है|
कर्म करते समय मन बीच से जैसे ही हट जाता है, फिर ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ की घटना घट जाती है| यही कर्म बोधपूर्वक कर्म कहलाता है| फलाफल गुरु-गोविन्द को समर्पित करना ही कर्मयोग है| व्यक्ति भौतिक कर्मों जैसे आश्रम की सेवा, खेत-खलिहान, कारखाने या अन्य किसी भी तरह के काम को कर्मयोग में रूपान्तरित कर सकते हैं| कबीर साहब का चरखा कातना, रविदास का जूता बनाना, नानकदेव का अनाज तौलते समय ‘तेरा’ को उपलब्ध होना ही कर्मयोग है| संत परंपरा में कर्म को प्रधानता दी गई है, परन्तु अभी के ध्यान-योग शिविर के प्रवर्तकों ने कर्म को छोड़ दिया| उन्होंने हर तरह की सेवा हेतु नौकर रखे हैं| ये मशीनवत् किसी बिंदु पर ध्यान करते, तो कहीं जाप करते, तो कहीं नाद, सुरत, शब्द योग का नाटक करते| जैसे ही हमारा सारा कृत्य प्रयासरहित, चेष्टारहित संपन्न होता है, हम कर्मयोग को पूर्ण हो जाते हैं|
कर्म, अकर्म, विकर्म की व्याख्या मैंने अपने ‘शिव तंत्र’ एवं ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ में किया है| विकर्म का अर्थ दग्ध कर्म, पाप कर्म नहीं, अपितु विशेष कर्म है| इसकी व्याख्या भी अभी तक ठीक नहीं की गई है| जैसे विज्ञान का अर्थ दग्ध ज्ञान, पाप ज्ञान नहीं, अपितु विशेष ज्ञान ही विज्ञान है|
|| हरि ॐ ||
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘लोक परलोक’ से उद्धृत…
***************
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –