थोड़ा विश्राम कर लो

थोड़ा विश्राम कर लो
चल तो रहे थे साथ हम,
दूर थे पर साथ थे हम,
साथ साथ चलते कितनी दूर चले आये,
कि अब साथ होकर भी दूर चले गए हम।
घाट से घाट तक चलते रहे,
मणिकर्णिका से हरिश्चन्द्र तक,
धधकती अग्नि में तपते रहे,
उन मिट्टियों के धधकते अंगारों में
दोनो मन यूँ ही सुलगते रहे।
अंधेरा कब घर कर गया घर में,
कब फूल भी काँटों से चुभने लगे।
तारे जो झिलमिलाते थे नभ में,
चोटिल हृदय में कब हालाहल भरने लगे।
चाह से द्वेष, द्वेष से ईर्ष्या, ईर्ष्या से घृणा
बहुत दूर कि यात्रा की है तुमने,
थक गई होगी,
थोड़ा विश्राम कर लो।
कटुता के ईंधन से शरीर अधिक ना चल पाएगा,
थोड़ा विश्राम कर लो।
कुछ दूर और चलना है, क्षितिज के उस पार,
थोड़ा विश्राम कर लो।
अब मिलेंगे फिर उस पार,
थोड़ा विश्राम कर लो।
रचयिता – आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”
“चाह से द्वेष,
द्वेष से ईर्ष्या, ईर्ष्या से घृणा
बहुत दूर कि यात्रा की है तुमने,
थक गई होगी,,”
बहुत कुछ कहती है लाइनें…….