स्त्री की आस्था
स्त्री की आस्था
वो जी लेती है खुद ही,
जो करती है व्रत, तप और पूजन
सबकी लंबी उम्र के लिए,
मंगल कामनाओं के लिए।
उसके लिए कोई उपवास नहीं,
कोई मंगल नहीं,
उसकी रक्षा के लिए
कोई सूत नहीं।
पर वह बांधती है,
कलाइयों पर रक्षा ,
वह जानती है
सब कर लेगी वो ।
नहीं मांगती वरदान
अपने लिए,
उसकी आस्था उसे
बांधे रखती है
उसकी डोर जीवन से।।
तभी…….
वही दुर्गा काली कहलाती है,
सावित्री बन वापस लाती है,
कभी सीता बन वन को जाती है
वो नहीं उठाती
सवाल अधिकारों के,
और उर्मिला बन
महल में रह जाती है।
सरस्वती बन कभी
सबको राह दिखाती है
कभी कैकई बन
इतिहास पलट जाती है।
उसे रोकना कठिन है
वो नदिया सी बहती है
और अधिक भर जाने पर
प्रलय रच जाती है।
हर जख्म अपना
स्वयं ही भर पाती है
तभी एक स्त्री
स्त्री कहलाती है…
रचयिता रेणु पांडे