सदगुरु विश्वमित्र और धनुर्यज्ञ
धन्य हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आराध्य ‘पृथ्वी के प्रथम सद्गुरु, युगद्रष्टा-युगस्रष्टा विश्वमित्र’
विश्वमित्र संग राम व लक्ष्मण का मिथिला आगमन
देखि अनूप एक अंवराई। सब सुपास सब भांति सुहाई।।
कौसिक कहेऊ मोर मनु माना। इहां रहिअ रघुबीर सुजाना।।
भलेहिं नाथ कहि कृपा निकेता। उतरे तहँ मुनि वृंद समेता।।
विश्वमित्र महामुनि आए। समाचार मिथिला पति पाए।।
(रा.मा.बा 213/3 एवं 4)
विश्वमित्र मिथिला पहुँचकर आम के एक सुन्दर बाग में रुक गए। अपने शिष्य से राजा सीरध्वज जनक को आगमन की सूचना भेज दी। राजा अप्रत्याशित सूचना पाकर घबरा गए। शतानन्द को बुलाकर कहा- ‘विश्वमित्र का आगमन नारद का आगमन नहीं है। इनका एक कदम भी व्यर्थ नहीं उठता है। ये अत्यंत दूरदर्शी, क्रांतिकारी, न्यायप्रिय ऋषि हैं। रूढ़ि तथा परम्परा को ढोने के आदी नहीं हैं|’
तभी एक गुप्तचर ने आकर सूचना दी कि ऋषि के साथ ब्रह्मचारी, मुनि, ऋषिगण हैं तथा दो अयोध्या के राजकुमार राम-लक्ष्मण भी हैं। उन्होंने ही ताड़का का वध कर करुष और मलप को स्वतंत्र किया है। उन्होंने गौतम के पूर्व आश्रम में जाकर अहिल्या का उद्धार भी किया है। उन्हें साथ लाकर गौतम को अपनी पुत्री के रूप में विश्वमित्र ने सौंपा है। साथ ही नम्रतापूर्वक कहा है कि ‘आज से मेरी पुत्री को कष्ट नहीं होना चाहिए। इन्द्र को मैंने चुनौती दे दी है। उससे उचित समय पर उचित व्यवहार किया जाएगा। आप लोग निश्चिंत रहें|’
सीरध्वज अकल्पनीय प्रसंग सुनकर शून्य में विचरने लगे। पुरोहित शतानन्द की आँखों से आँसू बह चले। वे अपनी माँ के पिताश्री के पास जाने की सूचना से एक तरफ अत्यंत भाव विह्वल थे, दूसरी तरफ विश्वमित्र का चरण रज लेने को उत्सुक थे। राजा सीरध्वज के मुँह से अनायास निकला- ‘विश्वमित्र अत्यंत अद्भुत ऋषि हैं। उनके सोचने का, कार्य करने का ढंग अत्यंत मौलिक है। अकल्पनीय है। मैंने गौतम को दूसरा आश्रम स्थापित करके दिया। शतानन्द को पुरोहित पद भी दिया। इन्द्र से संबंध तोड़ भी लिया परन्तु पवित्र अहिल्या को निष्कलंकित नहीं कर सका। उन्होंने आज पच्चीस वर्ष के बाद कर दिखाया|’
शतानन्द के मुंह से निकला- ‘विश्वमित्र! सचमुच आप निर्विरोध विश्व के मित्र हैं। आप धन्य हैं। आपने राजा दशरथ के पुत्रों को लेकर राक्षसों को मारा। रावण साम्राज्य को चुनौती दे दी। जो आर्यावर्त के राजा नहीं कर सकते, वह कर दिया। गौतम के आश्रम पर जाकर माँ अहिल्या का उद्धार कर दिया। उसे गौतम को सौंपकर पुरोहित वर्ग, ब्राह्मण वर्ग का हृदय जीत लिया। आप ब्राह्मण वर्ग के हृदय के सम्राट बन गए। अब राम-लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी में आ धमके। संभवतः सीरध्वज और दशरथ के बीच अकल्पनीय राजनीतिक संधि स्थापित करना चाहते हैं। जिससे संपूर्ण आर्यावर्त शक्ति-संपन्न एवं समृद्धिशाली बन सके। तुम जानते हो कि रूढ़िवादी, परम्परावादी, हठवादी ब्राह्मण वर्ग इसका विरोध करेगा। राजनीति में इन्हीं का वर्चस्व रहा है। अब ये कैसे विरोध करेंगे? अपनी दूरदर्शी नीति से एक साथ आपने राक्षस संस्कृति, देव संस्कृति के साथ-साथ परम्परावादी ब्राह्मण संस्कृति पर भी अनोखा हमला कर दिया। हमला ही नहीं किया बल्कि विजय भी प्राप्त कर ली। तुम धन्य हो! जय हो, जय हो- विश्वमित्र!’
राजा सीरध्वज अपने साथ राज पुरोहित शतानन्द, मंत्रीगण, कर्मचारीगण तथा देश के गणमान्य नागरिकों को लेकर रथारूढ़ होकर शीघ्र ही विश्वमित्र की सेवा में उपस्थित हुए। विश्वमित्र मुनि सीरध्वज से राम-लक्ष्मण का परिचय कराते हैं। राम का श्याम सुन्दर बलिष्ठ चेहरा देखकर राजा प्रसन्न होते हैं। गौर वर्ण के चपल, गुरुतनय अग्रज के अटूट भक्त लक्ष्मण से हृदय तृप्त हो जाता है।
शतानन्द बार-बार विश्वमित्र को प्रणाम करते हैं। राम-लक्ष्मण को धन्यवाद देते हैं। कहते हैं- ‘हे कौशिक मुनि! आज आपको देखकर प्रतीत होता है कि आपने नए युग पुरुष का निर्माण कर दिया। आज से नए युग का सूत्रपात कर दिया। जो हमारे मस्तिष्क में नहीं आ रहा था, उसे आपने साकार कर दिया|’
सीरध्वज प्रतीक्षा में थे कि गुरुदेव कुछ आदेश देंगे। वे जानते थे कि इनका एक-एक शब्द अत्यंत कीमती है। तौलकर बोलते हैं। कुछ देर के बाद आतुर राजा को देखकर, विश्वमित्र मधुर मुस्कान के साथ बोलते हैं- ‘हे राजन! सुना है आप धनुष यज्ञ कर रहे हैं। कृपया मेरे शिष्य राम-लक्ष्मण को वह शिव धनुष दिखा दें|’ राजा का हृदय तुरंत हलचल करने लगा। फिर भी गुरुदेव के सम्मान में उनकी आज्ञा सिर पर रखते हैं। उन्हें अपने साथ लेकर चलते हैं।
राजमहल में सम्मानित अतिथि के रूप में विश्वमित्र, राम-लक्ष्मण तथा उनके शिष्यों को रखा जाता है। गुरुदेव रात्रि में समझाते हैं- ‘हे राम! सीता अत्यंत सुन्दरी, सुलक्षणी अज्ञात कुल-शीला युवती है। राजा खेत जोतने की परम्परा में हल लेकर खेत पर गए थे। वहीं खेत में नवजात बच्ची पड़ी थी। राजाज्ञा से उसे उठाकर लाया गया। वह राजाश्रय में पलने लगी। राजा सीरध्वज उदयवान, कारुणिक, र्ध्म प्रिय राजा थे। सीता भूमि-पुत्री थी। राजा ही भूमिपति होता है। उस बच्ची से आकर्षित हो गए। पुत्री पर प्यार उमड़ पड़ा। अपने हृदय से लगाकर उसे प्यार दिया। सीता को सुनयना की गोद में डाल दिया। सुनयना के वक्ष में पुत्री के प्रति प्रेम उमड़ पड़ा, वह राजसी संस्कारों से पाली-पोसी गई। अब वह युवा अवस्था को प्राप्त हो गई है। वह असाधारण रूपवती है। उसके रूप-गुण की चर्चा देव, दानव, मानव समाज में सर्वत्र हो रही है। सीरध्वज उसके लायक वर खोजने में परेशान थे। दशरथ से किसी प्रकार का संबंध नहीं था। न ही भविष्य में संबंध होने की कोई संभावना थी। सीरध्वज ने सीता को अपनी लाड़ली पुत्री के रूप में पाला है। इसकी शादी हेतु शिव-धनुष भंग की प्रतिज्ञा कर ली है।
विश्वमित्र ने राम को समझाया कि ‘राम! सीता वीर्यशुल्का, अज्ञात कुल गोत्र वाली लड़की है। वह तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर, तुम्हारे सुख-दुख को अपना समझकर चलने वाली युवती है। परम्परा, रूढ़ि को ध्वस्त कर नीति-नियम बनाने वाली कन्या है। तुम्हें साहस करना होगा। तुम वनजा को सम्मानपूर्वक निषाद गहन के उत्तराधिकार में सौंपकर सम्मान दे सकते हो। अहिल्या का उद्धार कर ऋषि गौतम को सौंप सकते हो। ताड़का को मारकर मलप और करुष का उद्धार कर सके हो तो यह कार्य भी तुम्हीं कर सकते हो। राम! तुम रात्रि-भर सोच लो|’
राम सविनय, सप्रेम गुरुपद में सिर रखकर बोलते हैं- ‘गुरुदेव! मेरी धृष्टता माफ करेंगे। मैंने अब सोचना छोड़ दिया है। गुरु आज्ञा स्वीकार कर ली है। गुरु खोजने में सोचना आवश्यक है। मिल जाने पर सोचना समय की बर्बादी है। मैंने स्वयं को आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। अब आपकी आज्ञा ही शिरोधार्य है। मुझे वही करना है जो आप निर्देश देंगे। भले ही मौत को गले लगाना हो, मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा। सीता कौन है, कैसी है? किस योग्य है, यह सब विषय सोचने का आपका है। आप मुझे आदेश दें प्रभु|’
विश्वमित्र आनन्दमग्न हो गए। बोले, ठीक है। तुम विश्राम करो। कल प्रातः आगे की कार्यवाही की जाएगी।
दोनों भाई गुरु पद सेवा करके रात्रि विश्राम करते हैं। प्रातः राजा सीरध्वज के साथ धनुष का निरीक्षण करते हैं। दोनों भाइयों ने धनुष देखा, जिसे पांच हजार वीर पुरुष आठ चक्कों वाली गाड़ी से खींचकर लाए। उस पर एक सन्दूक जैसा बना था सन्दूक में अत्यंत भारी धनुष रखा था। वह ऐसा यंत्र था जिसे भगवान शिव के अलावा दूसरा चलाना जानता ही नहीं था। राम-लक्ष्मण ने अत्यंत गौर से उस धनुष का निरीक्षण किया और गुरु के समीप वापस लौट आए।
‘सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाई|
गुरुपद पंकज नाई सिर बैठे आयसु पाई|’
विश्वमित्र ने पूछा- ‘वत्स राम! तुमने धनुष देख लिया!’ अत्यंत विनीत भाव से हाँ कहते हैं। साथ ही उसे उठाने और भंग करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। विश्वमित्र हँसते हुए कहते हैं- ‘तुम अत्यंत भोले हो वत्स। कल सोचने, विचार करने की जिम्मेवारी मेरे ऊपर छोड़ दी थी। आज उसे वापस ले लिया|’ राम ने लज्जा से सिर झुका लिया।
रात्रि का प्रथम प्रहर है। उस कक्ष में गुरुदेव के साथ दो शिष्य ही हैं। एकान्त, शांत वातावरण है। गुरुदेव बताते हैं- ‘हे राम! देखो|’ जमीन पर एक धनुष बना देते हैं।
राम भौंचक हो जाते हैं। गुरुदेव तो धनुष देखने गए नहीं, पृथ्वी पर एकदम वैसा ही धनुष बना दिया। सचमुच दुनिया में इनके लिए कुछ भी रहस्य नहीं है। सभी कुछ इनकी आँखों के सामने है।
फिर गुरुदेव बोले- ‘राम! क्या वह धनुष ऐसा ही था?’ मानो वे दूसरे लोक से उतरकर कह रहे हैं।
‘हाँ गुरुदेव, हाँ ऐसा ही धनुष था|’
‘ध्यान से देखो राम, इसे कभी भी शक्ति से उठाने की धृष्टता मत करना। इस धनुष का नीचे का भाग ऐसा होगा। इसे अपने पैर के अंगूठे से दबाना। इस यंत्र का संचालन केन्द्र (स्विच) यही है। इसे दबाते ही धनुष सीधा खड़ा हो जाएगा। फिर उसके दूसरे छोर पर लगे इस केन्द्र (स्विच) को हाथ के अंगूठे से दबा देना। जिस दिशा में आदमी, न हों उत्तर दिशा में दबाना। जिससे अत्यन्त कठोर शब्द के साथ प्रक्षेपास्त्र निकलेगा। जो सीधे महेन्द्र पर्वत पर गिरेगा। जिसकी आवाज से साधारण नर-नारी बेहोश हो जाएंगे। तुम्हें यह कार्य अत्यंत सावधानी से करना होगा। अब तुम सो जाओ। गुरुदेव भी शयन करने चले गए।
‘मुनिवर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई||
जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग विरागी||’
(रा.मा. बाल. 225/2)
पद पंकज सेवा के उपरान्त राम-लक्ष्मण शयन करने चले गए। राम सोचते रहे- धन्य हैं गुरुदेव। बहुत से ट्टषि मुनि, राजा, राक्षस, देवता, गंधर्व सीता को प्राप्त करने आ रहे हैं। धनुष तोड़ना तो दूर, उसे हिला भी नहीं पाते। कुछ राजा लोग क्रोध में आकर मिथिला को एक वर्ष तक घेरे रह गए। जिस समस्या का निदान सीरध्वज, कुशध्वज ने अति कठिनाई से किया। उसी धनुष को भंग करने की कला गुरुदेव ने मेरे लिए कितने सरल ढंग से बताई है। मानो बच्चों का खिलवाड़ हो। इनके अंदर कितना विशाल हृदय छिपा है। ऊपर से सरल, साधारण ऋषि हैं। अन्दर क्रांति की, दूरदर्शिता की ज्वाला फूट रही है। जो समय, स्थान और व्यक्ति के अनुसार निकलती है। गुरुदेव तुम्हारी महानता का आकलन हमसे संभव नहीं है। गुरु चरण की वंदना करते-करते रात्रि व्यतीत हो जाती है।
‘वंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।
(रा.मा. बाल. 5)
‘बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरूचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू।।
सुकृति संभु तन बिमल बिभूति। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जनमन मंजु मुकुर मल हरनी। किए तिलक गुनगन वस करनी।।
श्री गुरुपद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।
गुरुपद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि बिमल बिवेक विलोचन। बरनऊ राम चरित भव मोचन।।
इसी स्तुति में पता नहीं कब सुबह हो गई। अरूण शिखा (मुर्गा) बोलने की आवाज सुनाई पड़ने लगी। लखन जी उठ गए।
‘उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरून सिखा धुनि कान।
गुरु तें पहिलेहिं जगत पति जागे रामु सुजान||’
(बाल का. 226)
जगत पति उठ गए। स्नानादि से निवृत्त होकर गुरु विश्वमित्र का पैर दबाने लगे। गुरुदेव समझ गए कि सुबह हो गई। राम ने गुरु को स्नान कराया। उनकी पूजा-अर्चना की। राम ने गुरु के सिवाय अन्य किसी की पूजा-अर्चना नहीं की। इनके लिए आराध्य, पूज्य एकमात्र गुरु ही हैं। इन्होंने अपनी जीभ को बन्द कर दिया है। गुरु मुख के शब्द पर ही ध्यान देते हैं और शब्दों पर क्या सोचना है? सदगुरु कबीर कहते हैं-
‘जिभ्या को तो बन्द दे, बहु बोलन निरूवार।
सारथी से संग करू, गुरु मुख सबद विचार||’
अपने मन से किए गए कर्म को भी दुत्कारते हैं-
‘काला मुंह करू कर्म का, आदर लागू आग।
लोभ बड़ाई छाड़ि के, राचो गुरु के राग||’
दर्शन किसका किया जा सकता है। एकमात्र गुरु का ही दर्शन श्रेष्ठ है-
‘कबीर दर्शन गुरु का, करत न कीगै कानि।
ज्यों उद्यम से लक्ष्मी है, आलस मन के हानि||’
प्रातः संध्यावंदन से निवृत्त होकर गुरु-शिष्य आमने-सामने ऐसे बैठते हैं जैसे भगवान शंकर अपने पुत्र कार्तिक और गणेश के साथ बैठे हों। उसी समय जनक आते हैं। गुरुदेव को प्रणाम कर धनुर्यज्ञ में चलने का निवेदन करते हैं। गुरुदेव राम-लक्ष्मण को आशीर्वाद देते हैं-
‘सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे||’
(रा.म.वा. 236/2)
धनुर्यज्ञ
गुरुदेव अपनी शिष्य-मंडली के साथ धनुर्यज्ञ में पहुँचते हैं। जहाँ जनक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च आसन पर गुरु विश्वमित्र को बैठाते हैं। उनका चरण प्रच्छालन कर, चरणामृत ग्रहण करते हैं तथा परिवार के सदस्यों को अमृत की तरह वितरित करते हैं। उनकी आरती वगैरह की जाती है। तत्पश्चात जनक के आदेश से यज्ञ की कार्यवाही शतानन्द प्रारम्भ करते हैं। यज्ञ में राक्षस, देव, नाग, किन्नर, यक्ष संस्कृति के राजा, राजऋषि, महर्षि लोग भाग लेते हैं। सभी हताश होकर अपने आसन पर लौटकर बैठ जाते हैं। उसमें कोई राजकुमार सम्मिलित नहीं है। ऐसे व्यक्तियों की ही भीड़ है जिनकी एक से अधिक पत्नियाँ हैं। वे चौथेपन पर पहुँच गए हैं। उनके पौत्र भी राम से बड़ी उम्र के हैं। यह देखकर लक्ष्मण क्रोध से काँपने लगते हैं। यह क्या भोगवादी संस्कृति नहीं है? गुरुदेव ने इशारे से उन्हें बैठने का संकेत दिया। जनक भी नकारात्मक स्थिति देखकर बिफर जाते हैं। लक्ष्मण पुनः आवेश में आ जाते हैं। गुरु अनुशासन में बैठते हैं।
गुरु उचित समय पर उचित आदेश देता है। जिस पर शिष्य पूर्ण आस्था रखकर अमल करता है।
‘विस्वमित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी||
उठहु राम भंजहु भव चापा। मेटहु तात जनक परितापा||’
(मा.रा.वा. 253/3)
राम बिना विलम्ब किए, बिना किसी तर्क के, पूर्ण आस्था और समर्पण भाव से, बिना किसी हर्ष तथा विषाद के, गुरु आज्ञा पालन में उठते हैं-
‘सुनि गुरु वचन चरन सिरू नावा। हरषु विषादु न कछु उर आवा||’
गुरु मंत्र पा चुके हैं। सूत्र मंत्र में अंतर समझ चुके हैं। गायत्री छन्द है। सूत्र बड़े होते हैं। मंत्र एक या ढाई अक्षर का होता है। जो अत्यंत विस्पफोटक होता है। पीपल का बीज अत्यंत छोटा होता है। परन्तु पक्षी जैसे ही बीट करता है, वही बीज उसके पेट से बीट के रूप में निकलता है तथा अत्यंत बड़ा वृक्ष बन जाता है। गुरु से राम मंत्र पा चुके हैं-
‘मन्त्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बसु कर अंकुस खर्व||’
राम गुरु के आदेश से ही उठ रहे हैं। पुनः उनके चरण पर सिर रख रहे हैं। जिससे वह बीज रूपी मंत्र वृक्ष में परिवर्तित हो जाता है। जब राम धनुष के समीप जाते हैं तब पुनः मन ही मन गुरु स्वरूप का ध्यान करते हैं। उन्हें प्रणाम करते हैं। अपने को पूर्णतः गुरु को समर्पित करते हैं-
‘गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाई धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभधनु मंडल सम भयऊ।।
लेत चढावत खैंचत गाढ़ें। काँहु न लखा देख सबु ठाढे।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा||’
जैसे रिमोट से प्रक्षेपास्त्र को नियंत्रित किया जाता है। वैसे ही उसे नियंत्रित किया, जिससे प्रक्षेपास्त्र छूट गया। अत्यंत भयानक शब्द हुआ। उन्हें उठाते खींचते कोई कैसे देखेगा। शब्द ही सुन सकते हैं। उस शब्द ध्वनि में कुछ लोगों को छोड़कर सभी बेहोश हो गए।
गुरु विश्वमित्र अत्यंत प्रसन्न हुए। राम को नायक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। शक्ति का प्रदर्शन हो गया। सभी राजा श्रीहत हो गए।
‘श्री हत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छवि छूटे।’
विश्वमित्र के सामने अंतिम शक्ति का पदार्पण होता है। जिसके भय से सम्पूर्ण आर्यावर्त के राजा काँपते थे। जो सहस्त्रार्जुन के खानदान का इक्कीस बार नाश कर चुके। पूरे आर्यावर्त में आतंक बने हुए थे, प्रगट हो गए।
परशुराम जी अत्यंत क्रोध में, लाल आँखें किये, सारे राजाओं से अनियंत्रित भाषा का प्रयोग करते हुए उपस्थित हुए। धनुष भंग करने वाले को मृत्यु दंड देने की ध्मकी भी दे रहे हैं। कौन दोषी है? यदि दोषी को नहीं बताएँगे तो सब उपस्थित जन समूह को मृत्यु के घाट उतार देंगे। ऐसा कठोर वचन सुनकर लक्ष्मण भड़क उठे। वे प्रतिउत्तर देते हैं। उनका प्रतिउत्तर आग में घी का काम करता है। परशुराम जी विश्वमित्र की बहन के पोते हैं। अतएव इनके भी पोते ही हुए। परन्तु अहंकार में परशुराम जी अपने नाना को शिष्टाचारवश ही सही दंड-प्रणाम भी नहीं करते हैं। राम इस सत्य को जानते हैं। वे उठना नहीं चाहते हैं। उनको कुछ भी बोलना गुरु का अपमान होगा। बार-बार गुरुदेव का मुंह देख रहे हैं। गुरु मौनता की भाषा से समझाते हैं- ‘वत्स राम, न्याय की तराजू में अपना-पराया नहीं होता है। यह तुम्हारी अंतिम परीक्षा है|’ राम गुरु चरण की वंदना कर उठते हैं। परशुरामजी को भी प्रणाम करते हैं। विनम्र भाषा में धनुष भंग की जिम्मेवारी अपने ऊपर लेते हैं।
परशुराम क्रोध से काँप रहे हैं। वे लक्ष्मण की मौत आने की बात कहते हैं। लक्ष्मण चिढ़ाते हुए कहते हैं- ‘तो आप भविष्यवक्ता भी हैं।’ जिसे सुनकर जनक भय से काँपने लगते हैं। पुनः कहते हैं-
‘मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता धरहि के वाढे।’
परशुराम अपना परशु ऊपर उठाते हुए कहते हैं- ‘कौशिक! अब तुम्हारा नीच शिष्य नहीं बचेगा। राम सहज भाव से आगे बढ़े तथा एक हाथ से लक्ष्मण को पीछे हटाते हैं। दूसरे हाथ से परशु पकड़कर, छीनकर पीछे फेंक देते हैं, जिसे लक्ष्मण उठा लेते हैं। वह परशु उस समय का अत्यंत आविष्कृत आयुध, शस्त्र था। राम विनीत स्वर में बोले- ‘मुनि श्रेष्ठ! भृगुकुल दीपक! एक बच्चे पर इतना क्रोध किसलिए?’
राम के इस शौर्य से परशुराम हतप्रभ हो गए। इसने ऐसा किया जैसे कोई बड़ा आदमी बच्चों का झगड़ा निपटाता है। परशुराम का क्रोध शांत हो गया। वे धीरे से कहते हैं- ‘राम! तुम कौशिक मुनि के शिष्य हो। तुम्हारा लघु भ्राता कितना अशिष्ट है|’ राम ने पूछा- ‘मुनिवर! आप वृद्ध हुए। इस अवस्था में कितने शिष्ट ढंग से आपने बर्ताव किया|’
लक्ष्मण तपाक से फिर चिढ़ाते हुए बोले-‘भृगुकुल केतु! आपकी वाणी से तो अमृत बरस रहा है। आप बहुत देर से खड़े हैं। कृपया अपने बुढ़ापे पर ध्यान देकर बैठ जाएं। यहाँ कोई कोहड़ा का भतियाँ नहीं है, जो आपकी उंगली दिखाते ही मर जाएगा|’
परशुराम चिढ़कर क्रोध से बोले,‘राम! तुम्हारा भाई ऊपर से सुन्दर है। अन्दर से हलाहल भरा है। यह भी दुष्ट, अन्यायी क्षत्रिय है। मैंने इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य किया है।’
राम प्रतिउत्तर देते हुए बोले- ‘हे मुनि! मैंने अद्वितीय विद्वान, प्रतिभासम्पन्न, गुरु विश्वमित्र से शिक्षा-दीक्षा पाई है। मुझे ज्ञात है कि आपने सहस्त्रार्जुन का वध कर अपने पिता का बदला लिया है। उसी क्रोध में अभी तक जल रहे हैं। बार-बार उसके खानदान को मारते जा रहे हैं तथा सभी क्षत्रियों को मार देने का दम्भ भरते हैं|’
राम कुछ उच्च स्वर में बोले-‘भृगु श्रेष्ठ! आप इसी आचरण से नमस्य नहीं रह गए। आप क्रांतिकारी नहीं हैं। रूढ़िवादी हैं। परिवारवादी हैं। जातिवादी हैं। आज के संदर्भ में आप कितना रूढ़िवादी हैं- कभी आपने सोचा है! कुछ क्षत्रियों को मार कर आपने महेन्द्र गिरि पर बैठकर परशु की धार को साफ किया है। क्रोध को रूढ़िवाद का घी देकर तप का नाटक कर रहे हैं। क्या आप यह नहीं देखते या नहीं सुनते कि आज जन-विरोधी राजनीति, पशुबल, धन-शक्तियों ने शोषण के बाद सोने की लंका बना ली है। जहाँ राक्षस रावण भी आपकी तरह ही विमान से चलता है। वह ऋषि-मुनियों की हत्या करता है, औरतों का अपहरण करता है। सर्वत्र अनाचार का बोलबाला है। आज कोई भी अपने को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहा है। क्या आपकी दृष्टि मंद पड़ गई है या मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया है।
आज के अराजकता के संदर्भ में आपने कभी क्रांति के अग्रदूत हमारे पूज्य गुरु विश्वमित्र से मिलने की चेष्टा की है? आप वर्तमान के दायित्व को भूलकर भूतकाल के कृत्य का यश ओढ़ते हुए, उचित-अनुचित का विचार छोड़कर, लोगों को डराने-धमकाने में रह गए हैं। आपकी यह प्रवृत्ति आतंकवादी है। आप आतंक से प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं|’
परशुराम का क्रोध जरा शांत हुआ। धीरे स्वर में पूछा- ‘राम! क्या तुम नए युग के क्रांतिकारी हो? क्या तुम्हारे गुरु ने बड़े-बूढ़ों का सम्मान करने का ढ़ंग इसी तरह सिखाया है!’
राम समझ गए कि ये हमारे गुरु पर चोट कर रहे हैं। अब राम को असह्य हो गया। वे गंभीर एवं उच्च आवाज में बोले- ‘यदि बड़े-बुजुर्ग स्नेह-प्रेम की भाषा को अपनाते हैं तब हम उनके पैरों की धूल अपने सिर पर रखने को प्रस्तुत हैं। आपने आते ही आतंक मचा दिया। मेरे गुरु ने यही शिक्षा दी है कि अन्याय व हर आतंक को चुनौती समझकर उसका प्रतिउत्तर दो। आपकी ताकत सिद्धाश्रम की राक्षसों से रक्षा नहीं कर सकती थी। अहिल्या के रक्षार्थ इन्द्र को चुनौती नहीं दे सकती थी। निषादों पर हुए अत्याचार के विरुद्ध आपकी शक्ति नहीं काम आ सकती है। आपकी शक्ति प्रतिष्ठित व्यक्तियों, साधु-संन्यासियों को अपमानित करने, हम लोगों को अपशब्द कहने, नीचा दिखाने में ही काम आई है|’
परशुराम निरुत्तर हो गए। वे शांत भाव में कहते हैं- ‘तुम्हारा कथन सही है राम! शायद मैं पुराना पड़ गया हूँ। वर्तमान समय की पहचान हमें नहीं है। मैं वहीं खड़ा हूँ। समय के साथ क्रांति को, ऋषि को भी बदलना चाहिए। तभी सम्मान मिलता है|’
राम भी नम्र स्वर में हाथ जोड़कर बोले- ‘हे भृगुपति! आपने मुझे इन शब्दों के प्रयोग के लिए बाध्य कर दिया। देखें हमारे गुरुदेव के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं है। मानो वे ब्रह्मानन्द में गोता लगा रहे हों। तभी तो उनसे क्रांति का सूत्र स्वतः निस्पंदित होता है। जिन्हें आपने अभी तक पहचानने की कोशिश नहीं की। संभवतः उन्होंने भी थककर हमारी खोज की। मुझ अपात्र को पात्र बना कर गागर में सागर भरकर स्वयं निर्विकार समाधि में चले जाते हैं। अब आप कृपया बताएं कि आपके क्रोध का कारण क्या है? मेरा क्षत्रिय होना? मेरे द्वारा धनुष तोड़ना? या शिव का पुरातन धनुष होना। इनमें से कौन-सी बात है? स्पष्ट करें|’
परशुराम तेज हीन हो गए। वे किंकर्तव्यविमूढ़ से कुछ देर खड़े रहे, पुनः बोले- ‘ठीक कहते हो राम! सम्भवतः तुम सत्य कह रहे हो। मेरे गुरु शिव का धनुष था। वह भले ही बेकार था, परन्तु पूज्य था। तुमने क्षत्रिय होकर धनुष भंग किया यह मेरे लिए अपमानसूचक हो गया। राम तुमने मेरा दंभ तोड़कर अच्छा किया|’
परशुराम जी अपना वैष्णव धनुष देते हैं। व्यक्ति चाहे कितना भी तप क्यों न कर ले लेकिन उसका अंहकार नहीं घटता है। तप से, कर्मकाण्ड से अहंकार बढ़ता ही है। यही तप एक तरफ सिद्धियाँ अर्पित करता है। संसार की सुख-सुविध प्रदान करता है। जगत विजयी बनाता है। दूसरी तरफ इसी की आग में श्रद्धा, प्रेम, सेवा, समर्पण जल जाता है। ‘मैं’ का अहंकार घनीभूत हो जाता है। जगत के सारे राक्षस तथा देवता तपस्वी होते हैं। बुद्धत्व, रामत्व, कृष्णत्व से उनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता है।
परशुराम जिसके मुंह में वेद हैं, पीठ पर धनुष-बाण है, हाथ में फरसा है। फिर भी अपने ही नाना विश्वमित्र रूपी सद्गुरु को नहीं पहचान सके। संभवतः उनमें रामत्व की पात्रता होती तो विश्वमित्र को इतना कष्ट भी नहीं होता। बहुत पहले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया होता। परशुराम उस समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वान, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, सर्वश्रेष्ठ शारीरिक शक्ति से सम्पन्न थे| परन्तु अहंकार के चलते उनकी ऊर्जा गलत दिशा में भटक गई। यदि वह शक्ति राक्षसों के विरोध में लगी होती तो आर्यावर्त का इतिहास ही दूसरा होता। जैसे बाढ़ का पानी लाभकारी कम होता है, विध्वंसकारी ज्यादा होता है। ये चिह्न विध्वंसकारी बनकर रह गए।
सामने विश्वमित्र जैसा समय का एकमात्र सद्गुरु बैठा है। विष्णु स्वरूप राम सामने हैं। आत्मस्थ जनक उपस्थित हैं। त्रिवेणी संगम बना है। कितने भाग्यशाली लोग होंगे। जो उस समय वहाँ उपस्थित होंगे। त्रिवेणी ही नहीं भक्ति स्वरूपा जानकी, कुण्डलनी ऊर्जा शक्ति लक्ष्मण उपस्थित हैं। पंच नदियों का संगम है। सचमुच अत्यंत पावन संगम है। अहंकार वहाँ भी तर्क करता है। परीक्षा चाहता है। बहुमूल्य समय चूक जाता है। उस पावन पंच संगम में उसी ने स्नान किया जिस पर गुरु कृपा थी। विश्वमित्र के साथ आए सारे ब्रह्मचारी ऋषियों ने खूब गोता लगाया। इतना गोता लगाया कि उन्हें तप करने, ध्यान करने की कोई जरूरत ही महसूस नहीं हुई। वे सहज योग में चले गए- खुले नैन हंसि हंसि पहचाने| वे सभी हंसते थे। पहचान रहे थे। लीला देख रहे थे। सीता के साथ की कुछ सहेलियाँ भी गोता लगा कर परमानंद में डूबी हुई थीं।
परशुराम की आँखों पर अहंकार की पट्टी है। वे कहते हैं- ‘हे राम! जो धनुष तुमने भंग किया है, वह शिव धनुष था। उसी के अनुरूप यह वैष्णव धनुष है। जो मेरे पास है|’ आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि परशुराम जी कितने शक्ति सम्पन्न थे। जिस धनुष को कोई उठा नहीं सकता है। उसे परशुराम एक साधारण धनुष की तरह लेकर चलते हैं। वह सदैव उनके पीठ पर रहता है। अखण्ड बाल ब्रह्मचारी हैं। अद्भुत योद्धा हैं। प्रचंड तपस्वी हैं। अपूर्व त्यागी हैं। फिर एक छोटा-सा अहंकार उन्हें पराजित कर देता है। वह अहंकार तप से नहीं हटता बल्कि गुरु अनुकम्पा से हटता है। परशुराम वैष्णव धनुष राम को देते हैं।
‘लो इसे चढ़ा दो। तब तुमसे द्वंद्व युद्ध करूँगा|’ राम गुरुदेव से उस विधि को जान ही गए थे। अतएव क्षणमात्र में उसे चढ़ा दिया। जिसे देखकर परशुराम काँपने लगे।
राम कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए बोले- ‘हे परशुराम! इसके प्रक्षेपास्त्र को कहाँ छोड़ूँ? आप मेरे गुरु की बहन के पोते हैं। अतएव आपकी हत्या मैं कर नहीं सकता। हाँ इससे आपकी गमन शक्ति समाप्त कर देता हूँ। चूँकि यह अचूक है। यह व्यर्थ नहीं जाएगा|’ परशुराम अपना शस्त्र राम के चरणों में रख देते हैं। सम्भवतः अपने जीवन में प्रथम बार विनयी भाषा में निवेदन करते हैं।
‘हे राम, गुरु आज्ञा से संध्या होते ही मुझे महेन्द्र पर्वत पर चले जाना है। अतएव आप ऐसा न करें। हाँ मेरे द्वारा जीती गई भूमि पर इसे छोड़ दें। जहाँ पूर्व में मेरा आश्रम था। मेरा आश्रम ध्वस्त हो जाएगा। जिसे आप मेरी ही मृत्यु समझ लें। मैं भी समझ लूँगा। शेष समय सेवा, सत्संग, समर्पण में बिताऊँगा। भविष्य में अस्त्र-शस्त्र कभी नहीं उठाऊँगा। आप हम पर दया करें|’
विश्वमित्र ने आदेश दिया- ‘ऐसा ही करो राम। तुम अपनी अंतिम परीक्षा में भी सफल हुए|’
राम के साथ उनके अन्य तीनों भाइयों की भी शादी सम्पन्न होती है। विश्वमित्र राम-लक्ष्मण को आशीर्वाद देकर गुरु दक्षिणा में रावण राज्य की समाप्ति तथा राम राज्य की स्थापना, जिसका संविधान वाल्मीकि के द्वारा लिख दिया गया है, लागू करने का शब्द देकर चले जाते हैं। अंतिम शब्द चलते-चलते कहते हैं-
‘राम! तुम अपने रास्ते पर निरंतर आगे बढ़ो। मेरा आशीर्वाद, छाया की तरह तुम्हारी मदद करेगा। तुम्हारा पूरे जीवन का सूत्र मैंने जोड़ दिया है। मात्र तुम्हें इसका उपयोग करना है|’ विश्वमित्र विदाई तक नहीं रुके। अब वे बार-बार यही कहते मुझे जल्दी है। मेरा कार्य पूरा हो गया। अब रुकना अपना समय क्षय करना है।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘मेरे राम’ से उद्धृत…
||हरि ॐ||
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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