अभ्युदय सिद्ध
||श्री सद्गुरवे नमः||
अभ्युदय सिद्ध
राम अयोध्या पहुँचते हैं। भरत भक्ति, श्रद्धा के प्रतिरूप हैं। वे स्वागत करते हैं। दोनों भाई एक-दूसरे को अंक में ऐसे आबद्ध करते हैं, जैसे दोनों मिलकर एक हो गए। फिर चारों भाई एक-दूसरे से यथा सम्मानपूर्वक मिलते हैं। राम-लक्ष्मण नगरवासियों से तथा सीता सास एवं अन्य सम्मानित महिलाओं से यथायोग्य मिलती हैं। अयोध्या पृथ्वी पर एक ऐसी नगरी है, जहाँ युद्ध नहीं हुआ है। वहाँ के राम विश्वमित्र के निर्देशन में विश्वशान्ति अभियान में निकले। चौदह वर्ष में उसे पूरा कर पुनः वापस आ गए। इस राज्य का राजमुकुट इतने दिनों तक राजा के सिर पर चढ़कर शोभा बढ़ाने से वंचित रह गया।
भक्तों का मेला लग गया है। सीता, भरत, हनुमान, विभीषण, सुग्रीव पाँच भक्त हैं। जिनकी ऊर्जा से अयोध्या की जनता भक्ति प्रवाह में गोता लगाने लगी। सभी परस्पर बैर भूल गए। एक-दूसरे के गले आ मिले हैं। माता कैकेयी भी अपना स्वभाव भूल गई हैं। वह राम-सीता को अपने अंक में ऐसे बाँध लेना चाहती हैं, जैसे कोई गाय बिछुड़े हुए अपने बच्चे से मिलती है। कैकेयी की मलिन वासना भाग गई। वह भी भक्ति के रंग में रंग गईं।
अवसर पाते ही भरतजी ने निवेदन किया- ‘हे भैया! यह अयोध्या का राजमुकुट आपका इंतजार कर रहा है। सूर्यवंश की परंपरानुसार आप राज्यारूढ़ होकर हमें कलंक से मुक्त करें। आपके राज्य का कोष, धन, गज, घोड़े, सैनिक सब में आपके प्रभाव से दस गुना वृद्धि हुई है। आप उसे देख लें। पुराना संविधान रद्द कर दिया गया है। राम-राज्य का संविधन लागू कर दिया गया है। इस राम राज्य में कोई दुःखी नहीं है। न ही पूर्व की तरह कोई सत्ता मद में बेहोश है, न ही प्रजा अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के प्रति लापरवाह है। दोनों एक-दूसरे के प्रति सजग हैं।
राम पुष्पक विमान को कुबेर के पास वापस भेज देते हैं। यदि वे चाहते तो उसे रख सकते थे। किंतु यह न्यायोचित नहीं था। भरत जी हनुमान, सुग्रीव, विभीषण, अंगद, जामवंत से परिचय के साथ उनका सम्मानपूर्वक स्वागत करते हैं। सभी वानर, भालू नरेश-भरत के प्रेम को देखकर भक्ति प्रेम में विह्वल हो जाते हैं। राम का अपने भाइयों से प्रेम इस पृथ्वी के लिए धरोहर है।
अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होने लगा कि हमारा शरीर ही अयोध्या है। जिसके राजा ज्ञान- राम, भाई वैरागी- लक्ष्मण साथ रहता है। दूसरे भाई भरत-भक्ति के साथ विवेकी शत्रुघ्न साथ रहता है। राम-लक्ष्मण के मध्य सीता रूपी भक्ति रहती है। वहाँ कोई कलह नहीं हो सकती। सभी स्वधर्म में रहेंगे। पशु भी अपने बैर भाव का परित्याग कर निर्माण मूलक कार्य में लग जाएंगे।
अथर्ववेद में इस शरीर का वर्णन अयोध्या के रूप में आता है-
1)
यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनावृतां पुरम्।
तस्मै ब्रह्म च ब्रह्माश्च चक्षुः प्राणं प्रजांददुः।। (29)
जो साधक (अमृतेन आवृतां) अमृत से आवृत्त (तां ब्रह्मणः पुरं वेद) उस ब्रह्म की नगरी को जानता है, उसको स्वयं ब्रह्म और (ब्रह्मा) ब्रह्म से उत्पन्न हुए सब अन्य देवता चक्षु, प्राण और संतान देते हैं। अर्थात् उसका ब्रह्म और अन्य सब देवताओं की कृपा से पूर्ण आयु तक सब इन्द्रियों के समेत शरीर उत्तम स्थिति में रहता है, प्राण का बल प्राप्त होकर वह दीर्घायु प्राप्त करता है और उसको सुप्रजा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा होने से दीर्घायु, बलवान शरीर और सुप्रजा होती है। यह शरीर ब्रह्मपुरी है।
2)
न वै तं चक्षुर्जहाति न प्राणो जरसः पुरा।
पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते।। (30)
(यस्याः पुरुष उच्यते) जिस पुरी में रहने के कारण इस आत्मा को पुरुष कहा जाता है, उस (ब्राह्मणः पुरं वेद) ब्रह्मपुरी को जो जानता है, उसको (चक्षुः) नेत्र आदि सब इंद्रियाँ और प्राण (जरसःपुरा) वृद्धि अवस्था के पूर्व (न जहाति) छोड़ते नहीं अर्थात् उसको दीर्घ आयुष्य प्राप्त होती है। सबल इंद्रियाँ मिलती हैं और वह सदा आनन्द प्रसन्न रहता है।
3)
अष्टा चक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गे ज्योतिषावृतः।। (31)
यह (देवानां अयोध्या पूः) देवों की अयोध्या नगरी है। इस नगरी के किले की दीवार पर (अष्टा चक्र) आठ चक्र उल्हाट यंत्र लगाए हैं, ये चक्र शत्रु का नाश करते हैं और किले की दीवार में नौ द्वार हैं। उसमें (हिरण्मयः कोशः) सुवर्णमय कोश है। यह (ज्योतिषावृतः स्वर्गः) तेज से घिरा हुआ स्वर्ग ही है। पृष्ठवंश में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, सोहं, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्त्रार ये आठ चक्र हैं। इनमें शरीर के रोगादि शत्रुओं को दूर करने की शक्ति है। इसी तरह इसमें दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र द्वार और एक गुदा द्वार ये नौ द्वार हैं। इनमें से अन्दर तथा बाहर जाने आने का प्रबंध होता है। इससे इसका सामर्थ्य बढ़ता है। इसमें हृदय में तेजस्वी स्वर्ग है अर्थात् यह देवों की नगरी है और यही स्वर्ग है। यहाँ आँखों में सूर्य, कानों में दिशाएं, नासिका में प्राण तथा अश्विनौ देव, जिह्वा में जल, मुख में अग्नि, उदर में पाचक अग्नि, नाभि में मृत्यु, पाँवों के स्थान में पृथ्वी, बाहुओं में इन्द्र, हृदयस्थ रूधिराशय में समुद्र, धमनियों में नदियाँ, पृष्ठ वंश में पर्वत, बालों में औषधि, वनस्पतियाँ, इस तरह सब देवता इस शरीर के नाना अवयवों में रहते हैं। यह शरीर ही देव नगरी है।
4)
तस्मिन् हिरण्मये कोशेत्रयरे त्रिप्रतिष्ठते।
तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद्वै ब्रह्म विदो विदुः।। (32)
(त्रि-अरे) तीन आरे जिसमें लगे हैं और (त्रि-प्रतिष्ठित) तीन आधरों पर जो आश्रित है। ऐसे इस सुवर्ण के कोश में (आत्मन्वत् यक्षं) जो आत्मरूप यक्ष रहता है, उसको ब्रह्म वेत्ता ही जानते हैं।
5)
प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्।।
पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशाऽपराजिताम्।। (33)
(अथर्ववेद 90/2)
इस (प्रभ्राजमानां) प्रकाशमान (हरिणीं) मनोहरिणी (यशया संपरीवृतां) यश से घिरी हुई ऐसी जो (अपराजिता) अपराजित सुवर्ण नगरी है, उसमें (ब्रह्मा विशेष) ब्रह्मा प्रविष्ट होता है।
इस तरह हम देखते हैं कि वेदों में शरीर का वर्णन कितना सुन्दर है। किन्तु बुद्धोत्तर काल में पीव, विष्ठा, मूत्र का गोला कहा गया है। यह संसार दुःख का कारण है। इससे शरीर को त्यागने की प्रवृत्ति बढ़ती है। बुद्धोत्तर काल में ही इस संसार को लोग असार, दुःख पूर्ण, त्याज्य, हेय, निंद्य, कष्टदायी मानने लगे हैं। जिससे इस जग को त्याग करने का प्रवृति बढ़ने लगी है। उपनिषद् और गीता के टीकाकारों ने भी जग दुःखवाद का भाव लादा है। सब साधु-संतों ने प्रचार किया है। इसी से इस जगत को स्वर्ग बनाने का भाव ही मर गया। बस इसे त्यागने में लग गए। शंकराचार्य ने भी इस मत को प्रचारित किया। जिससे एक साधारण राजा ने भी विश्व के किसी कोने से आकर हम पर शासन किया। लूटा-खसोटा, जिसका परिणाम है दरिद्र भारत।
भारत सैकड़ों वर्ष गुलाम रहा। म्लेच्छ लोगों का शासन रहा। उन्होंने भारत को समृद्ध देखा। उन्होंने भोग भोगा और भारतीय लोग संसार को मिथ्या, असार कहकर जंगलों में भटके| दुःख भोगते रहे। जैसा विचार मन में आता है, वैसा आचार मनुष्य करता है। वैसा ही मनुष्य बन जाता है। यही कारण है कि जहाँ विश्वमित्र ने राम के द्वारा अभ्युदय की सिद्धि कराई, वहीं बौद्धोत्तर काल में अभ्युदय धर्म के पराड्मुख हुए हैं।
चतुर धूर्त शत्रु अपने दुश्मन के राज्य में ऐसे दर्शन का प्रचार कराते हैं। जिससे सर्व समर्थ समुन्नत राष्ट्राध्यक्ष अपने आप हथियार डाल दे। संसार तथा शरीर की असारता देखते हुए वह पलायित हो जाए। जिससे शत्रु राष्ट्र उस राष्ट्र का शोषण करता है। धृतराष्ट्र ने इसी दुःखवाद, जगत मिथ्यावाद का सहारा लेकर अपने दूत संजय को पांडवों के पास युद्ध के पूर्व भेजा था। यह विचार अर्जुन के मन में बैठ गया था। इसी कारण वह ठीक युद्ध के समय युद्ध से पराड्मुख हुआ। इस तरह संजय का उपदेश अर्जुन में फलीभूत हुआ। श्रीकृष्ण को युद्धभूमि में सत्यधर्म का उपदेश देना पड़ा। किंतु वे बार-बार पलायन का ही तर्क देते रहे। कृष्ण उनके तर्कों को लगातार काटते रहे। अर्जुन को हिस्टीरिया हो गया, अस्त्र-शस्त्र उनके हाथ से गिर गए। कृष्ण ऐसा सद्गुरु जिसमें संदीपनी जी पूर्ण रूप से उतर गए हैं, से अर्जुन कैसे बच सकता है। प्रश्नोत्तर से गीता के अठारह अध्याय बन गए। अंत में कृष्ण को विराट रूप दिखाना पड़ा। तब अर्जुन युद्ध में उतरे। अन्यथा युद्ध के पहले ही पांडवों का पराभव हो जाता। महाभारत के रचनाकर्ता महर्षि व्यास ने कहा है कि जगद् दुःखवाद का उपदेश शत्रु राष्ट्र में करके उनको अभ्युदय के मार्ग से निवृत्त करना योग्य है। इसका उपदेश अपने राष्ट्र में नहीं करना चाहिए लेकिन दुखद घटना है कि वैदिक काल की मान्यताएं बुद्धोत्तर काल में ध्वस्त कर दी गईं। शंकराचार्य ने इसी दर्शन के प्रचार-प्रसार में अपना पूरा समय व्यतीत किया। जब तक यह निराशावादी विचारों का प्रचार यहाँ होता रहेगा, तब तक भारत देश के उठने की आशा नहीं की जा सकती।
ऋषि काल में या वैदिक काल में इस देह को ऋषि आश्रम बताया था। इस शरीर को ब्रह्म नगरी बताया था। वे इसी अभ्युदय के धर्म को आचरण में लाते थे। यहाँ स्वर्ग-धाम स्थापना करना उनका उद्देश्य था। इसी से उनका वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय उत्कर्ष होता था। विष्णु सहस्त्रानाम में प्रारम्भ में ही- ‘‘विश्वं विष्णुः’’ कहा है। अर्थात् यह विश्व ही विष्णु है। संपूर्ण विश्व ही परमेश्वर का दृश्य रूप है।
वेद मंत्र है- (ऋचा 10/90/2)
‘‘पुरुष एव इदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम्।’
अर्थात् जो भूत, वर्तमान और भविष्य में विश्व है वह सब पुरुष अर्थात् ईश्वर ही है।
इसी तरह गीता के 6/19 में ‘‘वासुदेवं सर्वम्’’ कहा है। जिसका अर्थ हुआ- वासुदेव ही यह सब हैं। भारतीय मनीषियों ने विश्व त्याग पर जोर नहीं दिया है। बल्कि विश्व सेवा पर बल दिया है। स्वधर्म में स्थित रहकर इस विश्व प्रभु की सेवा करना ही धर्म है।
मानव कहाँ आश्रम बनाएगा? कहाँ देव मंदिर बनाएगा? प्रभु निर्मित यह शरीर ही सुन्दर और पवित्र मंदिर है, जो गुरु द्वारा जाना जा सकता है- वा.यजु. 34/55 में निम्न श्लोक है-
‘‘सप्त ट्टषयः प्रतिहिताः शरीरे, सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्।
सप्तायः स्वपतो लोकमीयुः, तव जाग्रतै।
अस्वप्नजौ सत्रा सदौ च देवी।।’’
प्रत्येक शरीर में सात ऋषि तप करने के लिए बैठे हैं। ये सात ऋषि प्रमाद न करते हुए इस शरीर का संरक्षण करते हैं। इस आश्रम में बहने वाली सात नदियाँ जागने की अवस्था में बाहर की ओर बहती हैं, पर निद्रा आने पर वे ही सात नदियाँ सोने वाले के स्थान में अन्तःकरण में वापस उल्टी बहने लगती हैं। वहाँ कभी नींद न लेने वाले दो देव (प्राण और अपान) जागते रहते हैं और इस यज्ञ स्थान का दिन-रात संरक्षण करते रहते हैं।
यह विचारणीय विषय है कि इतना सुन्दर, पवित्र और रमणीय स्थान यही शरीर है जिसे बुद्धोत्तर काल में विष्ठा, पीव की खान कहकर दुत्कारकर युवकों को हतोत्साहित कर दिया। जन्म लेना अभिशाप प्रतीत होने लगा। ये सात ऋषि कौन हैं? दो आँखें, दो कान, दो नासिका और एक जिह्वा ये ही सप्त इन्द्रियाँ- सप्त ऋषि हैं। ये बाहर से गुरु का ज्ञान अन्दर ले जाते हैं, अतएव ये ज्ञान देने वाले ऋषि हैं। ये ही सात नदियाँ भी हैं। जगते समय इनका प्रवाह बाहर तथा नींद में अन्दर आत्मा में लीन होता रहता है। अर्थात साधक इन सब इन्द्रियों की वृत्तियाँ पूर्णतया अंतर्मुख करके आत्मा में विलीन करता है, इस स्थिति को ही ‘स्वप्रीति’ कहते हैं। अर्थात आत्म स्वरूप को ये इन्द्रियाँ प्रवाह प्राप्त करा चुकी हैं।
अतएव यह शरीर विष्ठा, मूत्र का कूप है। देह पिंजरा है। कैद खाना है। यह विचार त्याग करना ही होगा।
||हरि ॐ||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘मेरे राम’ से उद्धृत….
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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