सदविप्र समाज और आध्यात्मिक क्रांति
||श्री सद्गुरवे नमः||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी के प्रगटोदिवस (दिनांक 8 दिसम्बर 2021) के पुण्य अवसर पर विशेष….
सदविप्र समाज और आध्यात्मिक क्रांति
ऐतरेय ब्राह्मण 8/15 में कहा है कि ‘सब जनता का कल्याण हो। साम्राज्य, मौज्य, स्वराज्य, वैराज्य पारमेष्ठय राज्य, महाराज्य, आधिपत्यमय, समन्तपर्यायी ये पृथक्-पृथक् राज्य शासन के विविध् प्रकार हैं। सार्वभौम सम्राट पूर्ण आयु तक जीवित रहे। समुद्रपर्यंत पृथ्वी का एक राजा हो।’
ऋषि विभिन्नता में एकता की कामना करते हैं, संपूर्ण पृथ्वी के एक राजा की कामना करते हैं। यहाँ एक चक्रवर्ती सम्राट होते थे। चक्र अर्थात् गोला जो चलता रहता है। पृथ्वी भी लगभग अंडाकार गोला ही है, जो अपनी धुरी पर सदैव चलती रहती है। जो राजा संपूर्ण पृथ्वी की जनता को अपने पुत्र की तरह मानता है, सब पर समान भाव से शासन करता है, वही चक्रवर्ती सम्राट कहलाता है।
भरत चक्रवर्ती सम्राट थे। जिनके अधिकार क्षेत्र में पूरी पृथ्वी थी। उन्हीं के नाम पर आर्यावर्त का नाम भारत पड़ा। इन्हें आठ पुत्र तथा एक पुत्री थी। अतएव इस पृथ्वी को उन्होंने नव भागों में विभक्त किया। भाषा, रंग, रूप, रस्म-रिवाजों में विभिन्नता के बावजूद उन्होंने एक शासन में आबद्ध कर, एक नियम से पृथ्वी का पालन कर क्षेत्रीयता जैसे संकीर्ण विचारों को ध्वस्त किया। इनकी एक पुत्री थी जिसका नाम कुमारी था। वह शासन में पुत्रों के समान ही थी। पुत्री को भी अधिकार दिए। दक्षिणी भाग में कुमारी नाम की पुत्री ने राज्य की बागडोर संभाली। इस नगर के दक्षिण भाग में हिन्द महासागर, पश्चिम में अरब सागर और पूरब में बंगाल सागर है। कुमारी के नाम पर इसका नाम कुमारिनाडफ पड़ा। उसने कन्या रहकर प्रजा की सेवा रूपी तप किया, इसी से इस स्थान को कन्याकुमारी कहते हैं।
पूरी पृथ्वी सात महादेशों में विभक्त है। एक-एक महादेश में छोटे-बड़े बहुत देश हैं। उसी तरह समुद्र को भी सात महासमुद्रों में विभक्त किया गया है। यह विभाजन हमारे शरीर रूपी राष्ट्र के गठन के आधार पर ही किया गया है। शरीर में सात चक्र हैं। प्रत्येक चक्र के मध्य में उसके अधिष्ठाता देवता हैं। उस चक्र के जितने कमल दल हैं, वे एक-एक राष्ट्र हैं, उसके अलग-अलग देवता तथा साम्राज्य हैं। विशेष जानकारी हेतु हमारी पुस्तक ‘क्रांति महाजीवन’ को देखें। सहस्त्रार तो परमात्मा का स्थान है। उसके प्रतिनिधि आज्ञा चक्र पर आत्मा का निवास है। जहाँ से संपूर्ण शरीर रूपी महाराष्ट्र व्यवस्थित होता है।
मूलाधार के अधिपति गणेश हैं। जिस पर चार उपराष्ट्र के देव बैठे हैं। जो अपने-अपने उपराष्ट्र का कार्य संपादन करते हैं। जिसकी सूचना गणेश को भेजते हैं। इसी तरह स्वाधिष्ठान चक्र के मध्य में ब्रह्मा बैठे हैं। यह छह दल कमल हैं, जो छह उपराष्ट्र की तरह हैं। सभी अपना कार्य सुचारू रूप से करते हैं। जिसका दिशा निर्देशन ब्रह्माजी समय-समय पर करते रहते हैं। मणिपुर चक्र दस दल का है, इसके मध्य में विष्णु हैं। अनाहद चक्र बारह कमल दल है, इसके मध्य में शंकरजी हैं। विशुद्धि चक्र जो सोलह दल है, जिसके मध्य में आद्या शक्ति बैठी है। विशुद्धि चक्र में सोलह कमल दल रूपी उपराष्ट्र हैं। जो स्वर के सोलह अक्षरों को उत्पन्न करते हैं तथा नीचे के चक्र दलों में व्यंजन बत्तीस अक्षर स्थित हैं। उन कमल दलों के स्पंदन की ध्वनि से उस अक्षर की उत्पत्ति होती है। आद्य शक्ति विशुद्धि चक्र से अपने समस्त चक्रों को नियंत्रित करती है। इसको संदेश, आज्ञा चक्र पर स्थित आत्मा से आता है। आत्मा का नियंत्रण परमपुरुष सहस्त्रार से होता है। इन दोनों के मध्य गुरु पर्वत है। जो साधक को नियंत्रित कर परमपुरुष तक पहुँचाता है।
हम देखते हैं कि शरीर रूपी विराट राष्ट्र में सात महादेश हो गए तथा इन महादेशों में लगभग पचास राष्ट्र हो गए। पुनः इन राष्ट्रों में बहुत से उपराष्ट्र हैं। परंतु सबका नियंत्रण एक बिन्दु से होता है। तब शरीर सबल स्वस्थ चलता है। सात महासमुद्र भी इसी शरीर में हैं। जिसे साधक खेचरी मुद्रा से जानते हैं तथा विभिन्न समुद्रों का जल भी पीते हैं। जिससे शरीर का पोषण होता है।
पृथ्वी का तीन हिस्सा समुद्र से घिरा है। एक ही हिस्सा पृथ्वी का है। जो स्थिति पृथ्वी तथा समुद्र की है, वही स्थिति हमारे शरीर की है। शरीर में भी तीन हिस्सा जल ही है। समुद्र का जैसा जल है, वैसा ही जल, उसी अनुपात में नमक शरीर में भी है। अध्ययन कर लें, देख लें जिसकी कला, आँख गुरु प्रदान करता है, तब हम पृथ्वी के शासन तंत्र को भी समझ लेंगे।
शरीर का कोई भाग जब आवश्यकता से अधिक ऊर्जा को ग्रहण कर लेता है तथा उस ऊर्जा का आवश्यकता के अनुसार वितरण नहीं होता है तब ग्रहण करने वाला भाग तभी रोगी हो जाता है। जिस स्थान को ऊर्जा की आपूर्ति नहीं होती है, वह भाग भी कमजोर हो जाता है। जिससे शरीर रुग्ण हो जाता है।
आज यही स्थिति पूरे विश्व की है। शैतान पशु बन गए हैं। तो कोई अर्थविहीन होकर पशु बन गया है। कोई अपनी दादागिरी अर्थात शैतानी की धौंस दिखा रहा है तो कोई पशुता का नग्न नृत्य कर रहा है। यह स्थिति बौद्धिक क्षमता की कमी तथा धन का असमान वितरण अर्थात आवश्यकता के अनुसार क्षमता के अनुसार काम नहीं लिया गया। इससे असमानता उत्पन्न हो गई है।
सम्पन्न-विपन्न तथा सम्पन्नोन्मुख राष्ट्र अपने-अपने को सत्य साबित करने की होड़ में लगे हैं। विपन्न राष्ट्र आतंकवादी होकर सभी को आतंकित करता है। तो सम्पन्न राष्ट्र राक्षस की तरह अपने अस्त्र सम्पन्न शस्त्र से उसे कुचलता रहा है। दोनों अपनी शक्ति का समान प्रदर्शन कर रहे हैं। दोनों का अर्थ विनाश में जा रहा है। सम्पन्नोन्मुख राष्ट्र पर दोनों की आँखें लगी हैं। अतएव इसे दोहरा दण्ड भोगना पड़ रहा है।
सच कहा जाए कि संपूर्ण विश्व की शक्ति विध्वंस में लगी है। जिससे आर्थिक विपन्नता चरम पर पहुँच गई है। एक तरफ लोगों को खाने को रोटी नहीं तो दूसरी तरफ कुत्ते काजू का हलवा तथा अंडा खा रहे हैं। एक शोषण कर अपनी रक्षा अस्त्र-शस्त्र से करना चाहता है। इसलिए आणविक शक्ति का उत्पादन इतना कर लिया है कि इस मानवता को दस बार बर्बाद कर सकता है। दूसरी तरफ विपन्न राष्ट्र अपनी जनता को भूखों मारकर भी शक्ति की होड़ में मारक आणविक शस्त्र बना रहा है। क्रय कर रहा है। दोनों एक-दूसरे को दोषी तथा स्वयं को सत्य, उचित, ठीक कह रहे हैं। दोनों की उक्ति मानसिक दिवालियापन की है।
कुछ राष्ट्र व्यक्ति को गौण मानते हैं। राष्ट्र के विकास में पूरी शक्ति को झोंक देते हैं। कुछ राष्ट्र व्यक्ति के विकास को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। ये दोनों गलत हैं। अभी व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति से उसका दुःख दूर करके सार्वजनिक अभ्युदय से अविनाशी स्वातंत्र्य को प्राप्त किया जा सकता है। वर्णाश्रम र्ध्म की व्यवस्था इसी दृष्टि से हमारे ऋषियों ने दी थी। व्यक्ति की समुन्नति के लिए ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रम है। गृहस्थ में जनता के विचारों का आरम्भ होता है। वानप्रस्थ में जन सेवा प्रारम्भ हो जाती है। संन्यास में पूर्णरूपेण जनता के लिए समर्पित हो जाता है। स्वार्थ छोड़कर जन सेवा में लग जाना ही संन्यास है।
संन्यास समाज से पलायन नहीं है। समाज को दिशा निर्देशित करना तथा अपने ओज, पराक्रम से समाज कल्याण करते हुए पक्षी की तरह किसी पर बोझ नहीं बनना है। बुद्धोत्तर काल का संन्यास समाज पर बोझ बन गया है। ‘आत्मा’ शब्द का अर्थ ही है- ‘सतत् पुरुषार्थ करने वाला।’ ‘अत् सातत्यगमने’ इस धातु से आत्मा बना है। जिसका अर्थ हुआ सतत् पुरुषार्थ में लगे रहना ही इसका नैसर्गिक स्वभाव है। यही आज का स्वधर्म है। आलस्य आत्मा के स्वभाव के विपरीत है। आलसी व्यक्ति स्वधर्म से च्युत हो जाता है, जिससे वह अधोगति को प्राप्त होता है।
व्यक्ति के गुणों का विकास, समाज के गुणों का उत्कर्ष, राष्ट्रीय सद्गुणों का अभ्युदय करना प्रत्येक का कर्तव्य है। इन कर्तव्यों को न करने से ही सब पातक और सब दोषों को प्राप्त होते हैं।
‘ये पुरुषा ब्रह्म विदुः ते विदुः परमेष्ठिनम्।’ (अथर्ववेद)
अर्थात् शरीर में जो ब्रह्म जानता है, वह ब्रह्माण्ड में परमेष्ठी प्रजापति को जानता है। इस शरीर में दो तरह के स्वयंसेवी हैं। इस शरीर में इन्द्रियाँ वैतनिक सेवक हैं। इनके भोग ही उनका वेतन हैं। विश्राम ही उनकी छुट्टी है। यदि ये अपने दायरे का अतिक्रमण नहीं करती, उचित भोग में संतुष्ट होकर कार्य संपादन करती हैं तब ये विप्र हैं। किन्तु जैसे राजकर्मचारी भ्रष्ट हो जाते हैं, बिना उत्कोच (घूस) के काम करना उनके लिए दुष्कर हो जाता है, वे भ्रष्ट एवं पातकी होते हैं। उनसे बड़ा पातकी वैश्या या तस्कर भी नहीं है। ये तो समाज से मासिक भी लेते हैं फिर उन्हें धोखा देकर उन्हीं से विश्वासघात करते हैं। उत्कोच लेना वर्तमान सदी का सबसे बड़ा अपराध है। उन्हें ही इस सदी का राक्षस कह सकते हैं।
जो सेवक शरीर रूपी राष्ट्र की निष्काम भाव से अविश्रान्त सेवा करते ही रहते हैं, वही सद्विप्र हैं। वही सद्विप्र ध्येय हैं। वंदनीय हैं। पूज्य हैं। आदरणीय हैं। ये वैतनिक विप्रों से अवैतनिक सद्विप्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। इनके ही निष्काम भाव से, राष्ट्र सेवा से यह शरीर रूपी राष्ट्र जीवित रहता है। शरीर रूपी पिण्ड में जो व्यापार है, उसे जानकर विश्व रूपी राष्ट्र में भी वैसा ही व्यवहार करना होगा।
वेतन पर दृष्टि रखकर सेवा करने वाले नौकर वेतन लेते हैं, छुट्टी भोगते हैं, कभी-कभी हड़ताल करके काम भी बंद कर वेतन बढ़ाने की माँग करते हैं। इनका ध्यान सदा स्व-विकास पर होता है। धीरे-धीरे इनकी भूख बढ़ने लगती है। कुछ ही दिन में वेतन नगण्य हो जाता है। उत्कोच ही इनका उद्देश्य हो जाता है। उसके लिए ये राष्ट्र को भी दाँव पर रखने से नहीं चूकते हैं। अतएव इन पर विशेष ध्यान सद्विप्रों को ही रखना होगा।
अवैतनिक सद्विप्र ही महत्त्वपूर्ण कार्य का सम्पादन करते हैं। इनकी निष्काम भाव राष्ट्र सेवा से ही यह शरीर रूपी राष्ट्र जीवित रहता है। शरीर रूपी पिंड में जो व्यवहार है, उसे जानकर राष्ट्र में भी वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। ये सद्विप्र राष्ट्र के संरक्षण का कार्य जो जिस समय उपस्थित होगा, वह तत्परता से करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। इन सद्विप्रों का कार्य राष्ट्रोत्कर्ष में शरीर के अंदर के प्राण के कार्य के महत्त्व के समान विशेष रूप से रहता है। राष्ट्र में निष्काम सद्विप्र जितने अध्कि होते हैं, उतना ही उस राष्ट्र का तेज, गौरव बढ़ता जाएगा।
शरीर का कोई भाग घायल या रुग्ण होता है तब सबसे पहले अवैतनिक प्राण शक्ति ही दौड़कर उसकी रक्षा में तत्पर होती है। इसके बाद वैतनिक सेवकों का आगमन होता है। फिर इनकी माँग होने लगती है। बाह्य सहायता औषधि की; किंतु अवैतनिक शक्ति स्वयं ठीक करने का संकल्प लेती है। उसी संकल्प से ऋषि-मुनि अपना इलाज करते थे। आज भी जंगल के आदिवासी या पशु अपनी संकल्प शक्ति के सहारे ही ठीक हो जाते हैं।
विश्व सरकार का महत्त्वपूर्ण कार्य भी सद्विप्रों को सौंपा जा सकता है। हनुमान, जामवंत, अंगद ये ऐसे ही सद्विप्र हैं। जिन्होंने राम, लक्ष्मण, सीता जैसे निष्काम सद्विप्र के साथ प्राणों को उत्सर्ग करके भी महत्त्वपूर्ण कार्य का संपादन किया है।
गृह से ही सद्विप्र का निर्माण प्रारम्भ होगा। घर में श्रेष्ठ सद्विप्र ही गृहपति, ग्रामपति बनेगा। ग्रामों को मिलाकर उपखण्ड-पति बनेगा। फिर इनको मिलाकर सहखण्ड-पति तथा जिला स्तर का खण्ड-पति होगा। पुनः जिला अर्थात् खण्ड-पतियों को मिलाकर प्रमण्डल-पति बनेगा। प्रमण्डलों को मिलाकर राज्य स्तर का प्रमण्डलाधिपति या कुलाधिपति होगा। राज्यों को मिलाकर (वर्तमान के राष्ट्र की दृष्टि में) राष्ट्राध्यक्ष होगा। सभी राष्ट्रों को मिलाकर एक प्रजापति होगा। पूरी पृथ्वी का शासन प्रजापति के द्वारा होगा।
वर्तमान सदी में विश्व की अधिकांश राशि प्रतिरक्षा के नाम पर खर्च होती है। जो किसी की रक्षा न करके केवल विध्वंस कर रहा है। एक-दूसरे से अपने को शक्तिशाली सिद्ध करने में अरबों-खरबों रुपये के मारक न्युक्लियर बम बन रहे हैं, जो पृथ्वी के लिए अभिशाप हैं। मानव का खोजी मन केवल विनाश का साधन विस्तार कर रहा है।
||हरि ॐ||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘मेरे राम’ से उद्धृत….
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
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