सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ (Part 7)
सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ
कुछ कहानियों में अनेकों कहानियां छिपी होती। शायद मेरी कहानी भी इन्हीं में से एक है।
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पिछले अध्याय में आपने पढ़ा कि कैसे चैन-पुल्लिंग की घटना ने अंशुमन के अंदर बचपन से दबी इच्छा को मूर्त रूप तो दे दिया था, पर उसका हर्जाना उसे जुर्माना देकर चुकाना पड़ा। वंशिका भी अंशुमन द्वारा उसकी बात नहीं मानने के कारण खफ़ा थी। क्या अंशुमन वंशिका को मनाने में सफ़ल हो पाया या फिर कोई नई घटना उस ट्रैन में घटी? पढ़ते है आगे…
अध्याय 7- हेराफेरी
अंशुमन वंशिका की ओर बार-बार देख रहा था। पर वंशिका इतने गुस्से में थी कि वो खिड़की की तरफ एकटक देखे जा रही थी। अब तक तो वो आई-फ़ोन(iPhone) वाली आंटीजी भी अपने स्टेशन उतर चुकी थी। जाते-जाते उन्होंने अंशुमन को बड़ी मुस्कान के साथ हाथ हिलाया, पर अंशुमन के कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देने पर बुदबुदाते हुए गई कि सब मेरे से इतना जलते क्यों है? मेरी हैसियत का मुकाबला कोई नहीं कर सकता है।
वैसे तो अंशुमन ने ये बात सुन ली थी और वो आगबबुला हो चूका था। पर उसने कुछ न कहना ही मुनासिब समझा क्यूंकि वो अब उस आंटीजी की असलियत से पूरी तरह वाकिफ़ था।
अंशुमन को अब भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वो वंशिका से कुछ कहें। वो जानता था कि अपने पक्ष में उसकी दी गई सफाई वंशिका के सामने काम नहीं आएगी।
जब उसे कुछ समझ नहीं आया तो उसने अपना ध्यान वंशिका से हटा कर बोगी के अंदर चल रही गतिविधियों की ओर कर लिया। पूरे बोगी में कौतूहल का माहौल था। लोग हँस-बोल रहे थे। कुछ बूढ़े लोग अपने जवानी के किस्से नए युवाओं को सुना रहे थे। वो युवा वर्ग भी उन्हें काफी ध्यान से सुन रहे थे और ठहाके लगा रहे थे। कुछ पति अपनी बीवियों की बातें अनमने ढंग से सुन रहे थे और ऊँघते हुए हाँ, हम्म… कर रहे थे।
तभी अंशुमन की नज़र कुछ दूरी पर लगभग पचास-पचपन के आसपास के उम्र वाले लोगों पर पड़ी। उसमें से एक आदमी अपने एक हाथ की हथेली पर दूसरे हाथ के अंगूठे को आगे-पीछे कर रहा था। जब अंशुमन ने अपनी आँखों को बड़ा करते हुए गौर से देखा तो समझ गया कि वो आदमी कर क्या रहा था?
उसके हाथ में जो भूरी-सी चीज थी, उसे अपने हाथ की हथेली में अच्छी तरह मसलने के बाद उसने अपनी हथेली वहाँ बैठे अन्य लोगों के सामने फैला दी और वहाँ बैठे लोग उस भूरी चीज की थोड़ी-थोड़ी मात्रा लेकर उसे अपने मुंह में ओंठ के पिछली भाग में दबा कर चबाने लगे। अंशुमन समझ गया था कि वो लोग बाबाजी की बूटी अथार्त खैनी खा रहे थे। खैनी का ख्याल आते ही अंशुमन खैनी के ख्याल में मानो खो सा गया और उसे खैनी की महत्ता याद आने लगी।
एक खैनी ही है, जिसको लोग मिल-बाँट कर खाते है। सबके खैनी खाने का तरीका भी अलग-अलग होता है। इतना आसान नहीं है साहेब, खैनी खाने का सलीका सीखना।
जिस तरह एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे से मिल कर पूर्ण होते है, ठीक उसी तरह खैनी और चूना का रिश्ता होता है, वो भी एक-दूसरे के बिना अधूरे से है।
बड़े से बड़े लोग और छोटे से छोटे लोग सभी इसका सेवन करते है। कुछ सरकारी दफ्तरों में बड़े-बड़े पदाधिकारी भी अपने निचले कर्मचारी से खैनी बनवा कर बड़े अदब से खाते है।
ये खैनी और चूना ही है साहेब, जिसे लेने में लोग जात-पात, धर्म नहीं देखते है।
खैनी तो फिल्मों में बड़ा से बड़ा गुंडा भी खाया करता था। फिल्म सोले के गब्बर सिंह को ही देख लीजिये न…
खैनी का राजनीति से भी काफी पुराना रिश्ता है। जब वरिष्ठ नेता श्री लालू यादव जी को जेल हुई तो उस समय खास तौर से पटना से उनके लिए खैनी भेजी गई थी।
खैनी कोई छोटी-मोटी चीज नहीं है। लोग हजारों रुपये देकर संचार-कौशल (Communication skills) की क्लास करते है कि कैसे किसी से बात प्रारंभ किया जाए, कैसे किसी से दोस्ती बढाई जाए। पर उन्हें खैनी की “प्रबंधनीय क्षमता” का कोई अंदाजा नहीं होता है। जो लोग खैनी प्रेमी है, उनसे बात बढ़ाने के लिए खैनी ही काफी है। बस उन्हें अच्छी खैनी बना कर खिला दीजिये, फिर देखिये वो आपके लिए कुछ कर गुजरने को भी राजी हो जाते है।
ट्रैन, बस या फिर किसी चाय के दुकान में खैनी माँगने पर खैनी खाने वाला उन्हें कभी न नहीं करता है। बल्कि वो हँसी-ख़ुशी खैनी बना कर खिलाता है। कभी-कभी तो बिना मांगे भी अनजान शख्स खैनी खाने का ऑफर दे देते है। खैनी की महिमा अपरंपार है, जिसे एक खैनी खाने वाला ही जानता है।
अंशुमन इन्हीं बातों में खोया हुआ था, तभी उसे किसी की जोर की आवाज सुनाई दी और वो अपने ख्याल से बाहर आ गया।
‘मेरा बैग किसी ने चोरी कर लिया। किसने किया, बता दो। नहीं तो अच्छा नहीं होगा…’ ट्रैन में एक सज्जन जोर-जोर से चिल्लाने लगा।
उस आदमी के समीप ट्रैन में बैठे लोगों की भीड़ उमरने लगी।
जब JCB मशीन से मिट्टी खुदाई करने पर उसे देखने सैकड़ों लोगों की भीड़ लग जाती है तो फिर ये चोरी की घटना सुनने पर भीड़ का एकत्रित होना तो लाजमी ही था। अंशुमन भी भीड़ का हिस्सा बनने के लिए अपनी सीट से उठा। वंशिका भी अपनी सीट से भीड़ वाले जगह में उचक-उचक कर देख रही थी, पर उसने अंशुमन को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया।
लोग उस आदमी से बहुत सारे सवाल पूछे जा रहे थे।
‘कैसा बैग था भाई?’
‘तुम कहाँ थे, जब बैग चोरी हुआ?’
‘तुम्हें किसी पर सक?’
‘अब जो हो गया, सो हो गया। भगवान की मर्जी समझ लो।’
जिसका बैग चोरी हुआ था, वो गुस्से से लाल था।
‘जिसने भी बैग लिया है, दे दो। मैं कैसा आदमी हो, तुमलोगों को पता भी नहीं है?’
तभी एक आदमी ने उसके मजे लेते हुए कहा, ‘कैसे आदमी हो भाई? बता दो। हमें भी तो पता चले।’
तभी वहाँ खड़े दूसरे सज्जन ने कहा, “गज़ब का बात करते हो मियां। पर्स थोड़ी है कि कोई छुपा लेगा तो पता नहीं चलेगा। बैग है। पूरे बोगी में खोज आओ। कोई छुपाया भी होगा तो कहाँ छुपायेगा। ज्यादा से ज्यादा अपनी सीट के नीचे और कहाँ?”
“पूरा बोगी का चक्कर लगा कर आ चूका हूँ। पर मेरा बैग कहीं नहीं मिला।” वो व्यक्ति अब भावुक हो चूका था।
किसी सज्जन ने फिर बात दुहराया, ”जब बैग चोरी हुआ तो तुम कहाँ थे?”
“भाई, क्या बताऊँ? मुझे वाशरूम जाना था, बोगी के एक छोर में तो वाशरूम ‘out of order’ था और दूसरी छोर में वाशरूम जाने के लिए लाइन लगी हुई थी। मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था और जब मेरी बारी आई और मैं वाशरूम से अपने सीट पहुँचा तो देखा कि मेरा बैग वहाँ था ही नहीं।”
“अच्छे से याद करो। कुछ तो हुआ होगा तुम्हारे वाशरूम जाने और आने के बीच। सोचों..” एक दूसरे सज्जन ने CID के प्रदुमन की तरह हाथ हिलाते हुए कहा।
दिमाग में बहुत जोर देने के बाद उस आदमी ने कहा “हाँ, याद आया। जब मैं वाशरूम में था, तब किसी स्टेशन में ट्रैन रुकी थी।”
“हाँ, तो अब मामला एक दम स्पष्ट है। तुम ट्रैन के वाशरूम में गए। किसी स्टेशन में गाड़ी रुकी और किसी ने उस स्टेशन में तुम्हारा सामान उतार लिया और भाग गया।” CID के ACP प्रदुमन की तरह दुबारा से हाथ हिलाते हुए उसी सज्जन ने कहा।
सबको उसकी बात सही लगी और सब उसकी बात पर हामी-भरने लगे।
सबके हामी भरने से वो सज्जन तारीफ़ से फूलते जा रहे थे।
वो सज्जन इतने उत्साहित हो चुके थे कि उन्होंने फिर कहा, “और याद करने की कोशिश करो, दया। याद करो दया.. याद करो।” ACP प्रदुमन की आत्मा उनमें मानो पूरी तरह समाहित हो चुकी थी।
‘दया’ वाली बात सुनकर सारे यात्री उन्हें घूरने लगे तो उस सज्जन को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपनी गलती सुधारते हुए कहा, “माफ़ कीजियेगा। मुझे सुनने में लगा कि इनका नाम दया है। वो सब छोडिये। आप याद कीजिये और क्या हुआ था उस समय?”
जिस व्यक्ति का सामान चोरी हुआ था, उसने बगल में पानी का बोतल लेकर खड़े सज्जन से बिना पूछे पानी का बोतल ले लिया और उससे एक घूंट पानी पी कर सूखे पड़े गले को थोडा नम किया और फिर अपने ललाट पर उंगलियां फेर कर सोचने लगा।
“हाँ, याद आया। मेरे अगल-बगल ही एक परिवार के 3 लोग बैठे हुए थे। एक पति, उसकी बीवी और उसका एक बच्चा। अब वो लोग दिख भी नहीं रहे। जब मैं वाशरूम से आया, उसी समय से वोलोग गायब है। अपने सामान के चक्कर में मैंने ये बात ध्यान ही नहीं दी थी।”
“देखा! केस ख़त्म। उनलोगों ने ही आपका सामान चुराया है। आपको अपने सीट पर न पाकर वो लोग आपका सामान लेकर रफूचक्कर हो गए।” प्रदुमन की आत्मा उस सज्जन में दुबारा आ चुकी थी।
“भाई साहब, आप सही कह रहे। हो न हो, उनलोगों ने ही मेरा सामान चुराया है। उन्हें देख कर मुझे पहले से ही संदेह था कि वो लोग कोई चोर-हुचक्के तो नहीं है न।” उस आदमी ने बिना सोचे समझे अपने सामान चोरी की घटना से त्राहित होकर उस परिवार को चोर-हुचक्के की श्रेणी में श्रेणीगत कर दिया था।
वहाँ उपस्थित सारे लोग भी उस सज्जन की बात से सहमत प्रतीत हो रहे थे।
उसी दौरान गाड़ी अगले स्टेशन में घूस रही थी। ट्रैन रुकने पर उस स्टेशन में RPF के एक अधिकारी, एक टिकट कलेक्टर के साथ बोगी में चढ़े। उनको देखकर वो आदमी उनकी ओर दौड़ कर गया और कहा, “सरकार, मेरी मदद करो। मेरा सामान चोरी हो गया है। एक परिवार ने मेरा सामान चोरी करके पिछले स्टेशन में उतार लिया। आप कुछ करो माई-बाप। उन्हें पकड़ो, जेल में डालो और मेरा सामान उनसे ले आओ।”
वो आदमी रोने-गिरगिराने लगा।
“देखिये! उसी सिलसिले में हमलोग यहाँ आये हुए है..” टिकट कलेक्टर ने कहना शुरू ही किया था कि उस आदमी ने उनकी बात बीच में ही काट दिया।
“वो चोर परिवार आपको मिल गया। आपने उनलोगों को पकड़ लिया? कैसे-कैसे लोग है दुनिया में.. चोरी करने में उन्हें शर्म तक नहीं आई?”
“देखिये! उन्होंने ही हमें ये सूचना दी है कि…” टिकट कलेक्टर साहब दुबारा बोल ही रहे थे कि उस आदमी ने उनकी बात दुबारा बीच में काट दिया।
“बताइए जनाब! चोरी और ऊपर से सीना जोरी।” उस आदमी ने इतना कहा ही था कि इस बार RPF अधिकारी ने उसको जोर से झिड़का।
“अरे! ओए उजड़े चमन! बात तो पूरा सुनो। पहले से ही चबर-चबर किये जा रहे हो। अब एक लब्ज भी निकाले तो दूंगा कान के नीचे।”
वो आदमी अब बिल्कुल शांत हो चूका था।
“देखिये! जिस परिवार को आप चोर कह रहे हो, उन्होंने ही हमें सूचना दी है कि गलती से आपका सामान, उनके सामान से बदला गया है।”
“झूठ कह रहे है साहेब वो लोग। मैंने अपना नीले रंग का बैग यहीं ऊपर रैक में रखा था। यहाँ उनलोगों का कोई सामान है कहाँ?”
आर. पी. एफ.(RPF) के अधिकारी बोगी की छानबीन करने लगे और उसी क्रम में उसी आदमी के सीट के नीचे एक दम किनारे उन्हें एक बैग दिखाई दिया।
“अगर वोलोग झूठ कह रहे है, तो फिर ई क्या है बे?” आर. पी. एफ.(RPF) अधिकारी ने उस बैग को सीट के नीचे से निकालते हुए कहा।
वो बैग बिल्कुल उसके बैग की ही तरह था। वही रंग, वही ब्रांड।
वो आदमी उस बैग को अपने हाथ में लेते हुए बैग को उलट-पलट कर देखने लगा और फिर उसने कहा,
“साहब, बैग तो मेरे बैग से बिल्कुल मिलता-जुलता है। बस फर्क इतना ही है कि मेरे बैग के स्ट्रेप में मेरी बीवी ने कढ़ाई करके एक फूल बना दिया था। इसमें वो फूल नहीं है।”
“तो बेटा, इतने देर से बिना सोचे-समझे काहे कोहराम मचा रखे हो बे।” आर. पी. एफ.(RPF) अधिकारी ने उसे दुबारा झिड़कते हुए कहा।
“देखिए! उस परिवार वालों पर आप झूठ का दोषारोपण कर रहे थे। वो तो बेचारे इतने सभ्य और सीधे है कि उन्होंने पिछले स्टेशन में स्टेशन मास्टर से संपर्क करके आपका बैग वहीं रखवा दिया है, बिना ये सोचे-समझे कि उनका बैग सलामत बचा भी है या नहीं। उन्होंने बस इतना कहा कि जिस सज्जन का ये बैग है, उन्हें दे दीजियेगा और मेरी ओर से माफ़ी भी मांग लीजियेगा कि आनन-फानन में गलती से उनका बैग अपना समझकर हम उठा लिए। वहाँ के स्टेशन मास्टर ने हमसे सम्पर्क साधा और इसलिए हमलोग यहाँ आए है कि आपको आपके पते वाले स्टेशन पर आपका सामान कल तक उपलब्ध करवा सके और उस परिवार का बैग उनके पते वाले स्टेशन पर भेज सके।” टिकट कलेक्टर साहेब ने बड़े अदब से सारी बात बता दी।
उस आदमी को अपने गलती का एहसास हो चूका था। वो अपने बर्ताव के लिए शर्मिंदगी महसूस कर रहा था।
“आपलोग अब भीड़ क्यों लगाए हो? जाइए अपने-अपने सीट पर।” आर. पी. एफ.(RPF) अधिकारी ने वहाँ बोगी में जमे यात्रियों की भीड़ को अपने सीट में बैठने का संकेत दे दिया था।
सभी यात्री तुरंत घटी घटना का हँसी-मजाक करते हुए अपने-अपने सीट पर बैठने चले गए।
अंशुमन भी अपने सीट पर बैठ गया।
“आ गए तमाशा देखकर? मिल गई संतुष्टि?” वंशिका ने अंशुमन को आँख छोटी करते हुए कहा।
“तो क्या करता? तुम गुस्सा थी। तो सोचा तमाशा ही देख लूं।” अंशुमन खुश था कि वंशिका फिर चाँद की चांदनी की तरह शीतल हो चुकी थी।
“गुस्सा थी तो मनाना चाहिए था न तुम्हें।” वंशिका ने भौं सिकोरते हुए कहा।
“मनाने से तुम मान जाती क्या?” अंशुमन ने अपने हाथ को अपने ठुड्डी पर रखते हुए कहा।
“अगर तुम मनाने की कोशिश करते, तब न ये बात पता चलती कि मैं मानती हूँ या नहीं।” वंशिका की बातों में शरारतीपन था।
ट्रैन उस स्टेशन से खुल चुकी थी। टिकट कलेक्टर और RPF अधिकारी भी बैग लेकर जा चुके थे। रेल इन खट्टे-मिट्ठे अनुभव को अपने में समाये फिर से निकल चुकी थी अपने सफ़र को पूरा करने की ओर……..
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कितना आसान होता है न किसी पर कोई आरोप-प्रत्यारोप लगाना, बिना ये सोचे-समझे कि सच में उसकी गलती है भी या नहीं। अक्सर लोग दूसरों पर दोषारोपण करते रहते। कोई अपने गिरेबान में झाँक कर नहीं देखता कि आख़िर गलत कौन है? लोग पूर्वधारणा से ग्रषित रहते है और उसी पूर्वधारणा रूपी लेंस से ही किसी भी व्यक्ति विशेष या स्थित्ति को सही-गलत का अमलीजामा पहनाते है। हमसब को चाहिए कि हम किसी व्यक्ति विशेष या स्थिति को वैसे ही देखने और समझने की कोशिश करे, जैसे वो मूर्त रूप में हो, न कि हमारे पूर्वाग्रहों से प्रभावित…
तो मिलते है अब अगले अध्याय में…….
सागर गुप्ता
Wahh……
Agle adhyaay ka intezaar rahega