परम ऊर्जा

परम ऊर्जा
जो शक्ति संसार के तरफ बहती है, नीचे की तरफ बहती है, वह काम ऊर्जा है। संसार में सारे धर्म इसके विरोध में खड़े हैं। ईसाई को तो काम की तरफ देखने तक की हिम्मत नहीं है। बौद्ध, जैन काम पर बातें करने से डरते हैं। भगवान कृष्ण अपने को संसार का सृजन करने वाला ‘कामदेव’ कहे हैं। उनके इस कथन ने सम्पूर्ण विश्व के धर्म गुरुओं को हिलाकर रख दिया है। भगवान कृष्ण ने काम को सहज रूप में स्वीकार किया है। जैन, बौद्ध या ईसाई इस बात की स्वीकृति दें ईश्वर को कहने की कि मैं कामदेव हूँ। यह असम्भव है। सोचना भी असम्भव है।
भगवान शिव ने काम को भस्म किया था। भगवान शिव का तीसरा नेत्र प्रखर था। कामदेव उनके तप में विघ्न डाल रहे थे। उनके विघ्न से वे क्रोधित होकर तीसरा नेत्र खोले, काम भस्म हो गया। काम को भस्म वही कर सकता है, जिसमें काम इतना प्रगाढ़ हो कि वह ऊर्जा अग्नि बन जाए। साधारण संसारी व्यक्ति जो काम का गुलाम बना हुआ है वह कैसे भस्म कर सकता है। उसे तो काम ने मरकट बना रखा है। नारद भी काम में आसक्त होकर मरकट का रूप ग्रहण कर लिए थे। लेकिन जैसे ही भगवान विष्णु की अनुकम्पा एवं गुरु की दया हुई वही काम ऊपर चढ़ गया। अग्नि बन गया। वही अग्नि ऊपर चढ़कर ऊर्जा बन गई जिससे नारद की तीसरी आँख खुल गई। वे परम चैतन्य को प्राप्त कर लिए। आनन्द मग्न हो गए।
काम जब निम्नतम इन्द्रिय के माध्यम से यात्रा करता है तब संसार का सृजन करता है। मानव का सृजन करता है। संसार की उत्पत्ति ही काम से है। सृजन का सूत्र ही काम है। वही ऊर्जा जब ऊपर की तरफ प्रवाहित होने लगती है तब उसे कुण्डलिनी जागरण; आध्यात्मिक उन्नति कहते हैं। मात्र दिशा का परिवर्तन है।
जब साधक से वह ऊर्जा नीचे की तरफ गिरती है, तो वासना हो जाती है। ऊपर की ओर उठती है तो वही शक्ति आत्मा हो जाती है। नीचे की ओर गिरती है तो जगत का सृजन (बच्चा) करती है। ऊपर की ओर उठने लगे, तो स्वयं को जन्म देती है। यही तकनीक गुरु देता है। नीचे की तरफ बहने के लिए दूसरे को आधार बनाना पड़ता है। यह काम ऊर्जा ज्ञानेन्द्रिय मार्ग से प्रकृति में लीन होती है। यही पहला चक्र है। जब हमें दूसरे की जरूरत पड़े प्रवाहित होने के लिए, तो सूक्ष्म रूप से यहीं से परतंत्रता प्रारम्भ हो जाती है। इसलिए काम वासना गहरे में हमारे लिए गुलामी है। यही कारण है कि नारद कामग्रस्त होते हैं तब उनका रूप मरकट का दिखाया गया है। उस स्त्री को पाने के लिए उतावले हैं। भगवान शिव का रूप दिव्य, विरक्त, प्रकाशमय दिखाया जाता है। पार्वती तप कर रही है। सप्तऋषि भगवान शिव से प्रार्थना कर रहे हैं। वे अपने में लीन हैं। परम स्वतंत्र हैं। परम ऊर्जा, परम तत्त्व में लीन है। शास्त्र इसे ही प्रतीक रूप से कह रहा है। कामी व्यक्ति सदैव दूसरे पर निर्भर रहता है। दूसरा अपने से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है। दूसरे के इर्द-गिर्द चक्कर काटना पड़ता है। परिक्रमा करनी पड़ती है।
जो व्यक्ति इससे ऊब गए हैं वे ब्रह्मचर्य धारण करते हैं। उसी काम वासना को रूपांतरित करते हैं। इसका रूपांतरण एवं ऊपर की तरफ ऊर्ध्वगमन ही ब्रह्मचर्य की यात्रा है। इसमें दूसरे की आवश्यकता नहीं है। गुरु के निर्देशन में स्वयं को आधार बनाकर ऊपर की ओर बहना है। जैसे नारद बहने लगे। जब साधक ऊपर की ओर बहने लगे तब समझ लेना चाहिए जन्मों जन्म के भटकाव को नया आयाम मिला। नई दिशा मिली। आज न कल ऊर्जा यात्रा करते हुए सहस्रार में मिल ही जाएगी। यही मिलन ब्रह्म मिलन कहलाता है। इसी ऊर्जा को परम ऊर्जा कहते हैं।
यही ऊर्जा जब निम्नतम अर्थात् मूलाधार, स्वाधिष्ठान से जुड़ती है तब आप प्रकृति से जुड़ते हैं। संसार से जुड़ते हैं। सुख-दुःख के भोक्ता बनते हैं। कर्मों के जाल में फँसते हैं। मकड़ जाल का स्वयं निर्माण कर स्वयं उसमें उलझ जाते हैं। फिर दैव-दैव पुकारते हैं। जैसे हम इस ऊर्जा का रूपांतरण करते हैं। ऊर्ध्वगमन करते हैं। आज्ञा-चक्र पर आकर तीसरा नेत्र खुलता है। सहस्रार इसी ऊर्जा को अपनी तरफ आकर्षित कर परमात्मा से मिलाता है। आज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार के मध्य में गुरु बैठा है। अवसर पाते ही गुरु द्वार बन जाता है। फिर साधक गुरु द्वार (परम ऊर्जा) से गोविन्द में प्रवेश कर जाता है।
इस पृथ्वी पर गुरु शिष्य का संवाद नितांत अकेले का है। पति-पत्नी से भी नजदीकी सम्बन्ध गुरु शिष्य का होता है। तब कहीं वह परम ऊर्जा गुरु से शिष्य में उतरती है। उपनिषद गहन वनों के एकांत में, मौन-शान्ति में, गहरे ध्यान में गुरु शिष्य के बीच संवाद है। बाइबिल भी एकान्त में चुने हुए शिष्यों से कही गई है।
गीता इस पृथ्वी की अनहोनी घटना है। पृथ्वी के समस्त अहंकार युद्ध के लिए एकाग्र हैं। क्षत्रिय होना ही अहंकार का प्रतीक है। क्षत्रिय है, अहंकारी नहीं है-यह अनहोनी घटना होगी। जैसे ही क्षत्रिय अहंकार छोड़ता है फिर तत्क्षण उसका तीसरा नेत्र खुल जाता है। वह भगवान बन जाता है। राम, कृष्ण, 24 तीर्थंकर बुद्ध के, 24 तीर्थंकर महावीर के, सिख गुरु इत्यादि। भगवान कृष्ण गहन भीड़ में दिव्य दृष्टि प्रदान करने का प्रयोग कर रहे हैं। आज तक भीड़ में, वह भी युद्ध के मैदान में तीसरे नेत्र को खोलने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका। भगवान कृष्ण अद्वितीय हैं। युद्ध से ज्यादा घना संसार का कोई स्थान नहीं हो सकता है। गीता का अवतरण वहीं हो रहा है। भगवान दिव्य दृष्टि वहीं प्रदान करने जा रहे हैं।
पात्र जहाँ कहीं समर्पित हो सकता है, सद्गुरु तत्क्षण उसी स्थल एवं समय के उपयोग से नहीं चूकता है। अगर शिष्य समर्पित हो गया, तब वह जो गोपनीय है, अति गोपनीय है, जो भीड़ में या सबके सामने नहीं कहा जा सकता, वह भी कहा जा सकता है।
चूंकि आध्यात्मिक एकान्त का अर्थ होता है, शिष्य मौजूद नहीं है। गुरु तो पहले ही शून्य है। शिष्य का जैसे ही अहंकार विलीन होता है वह गहरे में भूल जाता है कि ‘मैं हूँ’। यहीं आध्यात्मिक एकान्त घटित होता है। अर्जुन की यह स्थिति ग्यारहवें अध्याय में घटित होती है। उसका पांडित्य गिर गया है। वह अब अनुभव करना चाहता है। यह अनुभव तभी सम्भव है जब स्वयं मरने को तैयार हो जाए।
ये आँखें बाहर देख रही हैं। सारी ऊर्जा बाहर निकल रही है। व्यक्ति से एक हजार गुना ज्यादा कुत्ता सुन सकता है, देख सकता है। परन्तु परमात्मा को नहीं देख सकता। जो ऊर्जा इन आँखों से बाहर निकल रही है, उसी ऊर्जा को अन्दर की तरफ प्रवाहित करना पड़ता है। अर्जुन शान्त हो गया, मौन हो गया। पूर्णरूपेण समर्पित हो गया। गुरु मौजूद है। तत्क्षण वह ऊर्जा परम ऊर्जा बन गई। अन्दर प्रवाहित होने लगी। दिव्य चक्षु प्राप्त हो गया। शिव नेत्र खुल गया।
सद्गुरु कबीर कहते हैं-
जब लौ न देखो अपने नैना।
तब लौ न मानो गुरु की बैना।।
अर्थात् जब तक उस परम पुरुष को अपने परम चक्षु से देख न लो, तब तक विश्वास न करो। चूंकि कह तो पंडित भी सकता है। उसे शास्त्र से ज्ञात है। अनुभव बिल्कुल नहीं है। आपको अनुभवी गुरु का चुनाव करना पड़ेगा। यही कारण है कि जो उसे देख लेता है उसे द्रष्टा कहते हैं। श्रोता नहीं। जो प्रवचन सुनता है, उसे श्रोता कहते हैं। जो उसे जान लेता है फिर शिष्य से कहता है उसे ही दर्शन कहते हैं। श्रवण नहीं। यही कारण है कि समय का सद्गुरु तीसरी आँख खोलना चाहता है। गुरु या कथावाचक तीसरा कान खोलना चाहते हैं। जबकि तीसरा कान होता ही नहीं।
तीसरी आँख को सक्रिय करना
तीसरी आँख को सक्रिय करने की विधि जानकार गुरु से अवश्य सीख लें। इस पुस्तक के माध्यम से मैं केवल इशारा ही कर सकता हूँ। कोई-कोई इशारा पकड़ लेता है। निकल जाता है स्वयं उस अनन्त की यात्रा पर। उसमें अदम्य साहस होता है। धैर्य होता है। अटूट आशा है। श्रद्धा है। उसे प्राप्त कर लेगा। चाहे जन्म कितना भी लगे। चूंकि श्रद्धापूर्वक धैर्य रखकर इंतजार करना ही शिष्य की तपस्या है। शर्त पूर्वक, अधर्म से कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता।
प्रथम साधक गुरु द्वारा बताए विधि से समय के सद्गुरु के निश्चित स्थान पर निश्चित विधि से निश्चित मंत्र से निश्चित समय पर निश्चित समय तक त्राटक करें। फिर निश्चित समय पर आँख बंद कर उस प्रवाह को अपने अन्दर प्रवाहित होने दे। जो चेतना बाहर बह रही है, उसे भीतर आँख बंद कर खींच लेना है। जैसे ही वह भीतर बहने लगे, तीसरी आँख खुलने लगेगी।
जो धारा जन्मों जन्म से बाहर बह रही है, हम बिना प्रयास के बाहर देखने के आदी हो गए हैं। अन्दर की सारी सम्भावना को काट दिए हैं। उसे ही प्रयास से अन्दर प्रवाहित करना है। जैसे धारा अन्दर की तरफ, परम पुरुष की तरफ, कृष्ण की तरफ प्रवाहित होने लगेगी, वही धारा ‘राधा’ बन जाएगी। राधा शब्द यौगिक प्रक्रिया का नाम है। जैसे ही जीवन की धारा बाहर से अन्दर की तरफ उलटती है, वैसे ही वही धारा-राधा बन जाती है। परम चैतन्य (कृष्ण) से धारा (राधा) मिल जाती है। यही है महारास। भीतर छिपे कृष्ण से, साक्षी से यही धारा-राधा बनकर मिलती है, तत्क्षण नृत्य प्रारम्भ हो जाता है। रास शुरू हो जाता है। यही है परम रास। इसके लिए साधक को अनन्त धैर्य से गुजरना होता है। गहन मौन, शान्ति, अविचल, श्रद्धा रखनी पड़ती है।
दूसरी विधि है भक्त सद्गुरु की खोज कर ले। उसकी खोज अत्यन्त कठिन है। चूँकि सदैव से अपदेवता या राक्षसी शक्तियों का, चमत्कार का बोलबाला, प्रचार रहता है। वे सदैव से दूरदर्शन, आकाशवाणी का सहारा लेते आ रहे हैं। जिसमें साधारण जनता स्वतः फँस जाती है। समय के सद्गुरु को सदैव से पत्थर मारते हैं। फाँसी देते हैं। गाली देते हैं। विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करते हैं, परीक्षा लेते हैं। उसी में उनका समय निकल जाता है। कहीं एक-दो शिष्य मिल जाएँ, यही बहुत है।
साधक अपना सभी कुछ भूलकर सद्गुरु की सेवा में लग जाता है। उसका अपना कुछ भी नहीं होता है। अहं गिर जाता है। फिर साधक में स्वतः परिवर्तन होने लगता है। जैसे एक बड़ी चुंबक के चारों तरफ स्वतः चुंबकीय धारा बहती रहती है। जिससे उसके चारों तरफ चुंबकीय क्षेत्र (मैग्नेटिक फील्ड) बन जाता है। जिससे उसके नजदीक आने वाले छोटे लोहे में भी तत्काल वह धारा प्रवाहित होने लगती है। वह लोहे का टुकड़ा भी चुंबक बन जाता है। यदि उस लोहे के टुकड़े पर प्लास्टिक या कपड़े का या किसी कुचालक का कवर लगा दें, तो वह धारा उसमें प्रवेश नहीं कर सकती है। कुचालक ही साधक का अहंकार है। उसका कुतर्क है। समर्पण ही सुचालक है। श्रद्धा ही गुरु के सान्निध्य में लाती है। वही स्थिति शिष्य की है।
राम, कृष्ण, कबीर, नानक ने कहीं तपस्या नहीं की। बल्कि गुरु के सान्निध्य में सच्चा सौदा किया, उपलब्ध हो गए, उस निरंकार को। इस घटना का वर्णन नहीं किया जा सकता है।
साधक के लिए सबसे बड़ी साधना है-समर्पण। समर्पित होते ही उसे दिव्य चक्षु प्रदान हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ।’ यह भाषा है। जबकि समर्पण की घड़ी में ही दिव्य चक्षु का जन्म हो जाता है। यह हम जानते हैं कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर पानी बनता है परन्तु आप इन दोनों को मिला दें तो पानी नहीं बनेगा। लेकिन अगर आप जल को तोड़ें तो हाइड्रोजन और ऑक्सीजन बन जाता है। पानी बनाना कठिन है। पानी बनाने के लिए विद्युत की उपस्थिति अनिवार्य है। हालांकि विद्युत उस जोड़ में प्रवेश नहीं करती। सिर्फ मौजूद होती है। बस हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर पानी (H2O) बन जाता है। विद्युत की अनुपस्थिति में पानी बनना असम्भव है।
आपने वर्षा काल में बिजली की चमक देखी होगी। उसके बिना वर्षा नहीं हो सकती है। बिजली की उपस्थिति मात्र से वर्षा होती है। यह उत्प्रेरक (कैटेलिटिक ऐजेंट) है। गुरु भी यही करता है। यदि आप समर्पित हो जाते हैं, तब उसकी उपस्थिति मात्र से आपको दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाता है। गुरु की मौजूदगी ही जादू बन जाती है। गुरु का उपयोग यही है कि वह मौका बन जाए। आपको आसानी हो जाए कि आप तत्काल गुरु के सामने साष्टांग प्रणाम कर सकें। खड़े-खड़े लेट जाएं। आप खो जाएं।
शिष्य में यह बात गौण हो जाती है कि किस स्थान पर, किस अवस्था में गुरु को प्रणाम कर रहे हैं। गुरु उपस्थित नहीं है। मात्र उसका फोटो है। शिष्य अहोभाव से भर गया। फोटो के सामने साष्टांग प्रणाम कर दिया। गुरु का फोटो भी नहीं है, उसका स्मरण आते ही अहोभाव से भर गया। तत्काल साष्टांग कर दिया। अब यही महत्त्वपूर्ण है| प्रणाम करते ही वह परम आनन्द से भर जाता है क्योंकि यह साष्टांग अहंकार विरोधी है। अहंकारी का सिर झुकाना असंभव है। झुकना ही अहंकारी की मौत है। आप यह ठीक से समझ लें, आप कितना ही पवित्र हो जाएँ, शुद्ध हो जाएँ, चरित्रवान बन जाएँ, ब्रह्मचर्य फलित हो जाए, अहिंसक हो जाएं, सत्यवादी हो जाएं; लेकिन जब तक झुकने की कला आपने नहीं अर्जित की, तब तक तीसरी आँख नहीं खुल सकती है। तपस्या व्यक्ति को अहंकारी भी बनाती है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अहंकार से बड़ा पाप कोई नहीं है। निरअहंकारिता से बड़ी कोई साधुता भी नहीं है।
||हरि ॐ||
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समय के सदगुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत….
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
Jai Guru Dev 🙏