स्त्री का प्रेम
स्त्री का प्रेम
औरतें समझी नहीं जाती,
ना ही समझ पाती हैं,
कहां जिंदगी की राहें
कहां वो चलती जाती हैं।
बड़ी भोली होती हैं वो
जो प्यार में पाली जाती हैं
बड़ी छली जाती है वो
जो प्यार निभाती हैं
उन्हें देखना पसंद है
पर दिखाई जाती हैं
वो सोच नही पाती जितना
उतना समझाई जाती हैं।
एक नाम सी जीती है वो
चंद रिश्तों में ढल जाती हैं
सुबह शाम दहलीज पर
जैसे डाकिए की पाती है।
वो दिन नहीं जानती
न हफ्ते गिन पाती हैं
महीनो तरसती रहती है
और सालों में गुजर जाती है।
उसे पाना नही सीखा
उसने खोना नही समझा,
बस परिभाषाएं अकिंचन
जिसमे उसका मन है उलझा ।
रसोई ,बेलन,चिमटा चौकी
रोज धोती और सुखाती है,
जैसे इस्तेमाल के बाद
इनके जैसे खुद को पाती है।
उसकी रोटियां अब गोल होती हैं
पर मन अब बांध नहीं पाती
सिंकती रहती है कच्ची पक्की
समय की आंच पर जज्बाती।
उसे भूलने की बीमारी है
तभी खुद को बचा लेती है,
कौड़ियों के भाव अपने मानस
के हीरे मोती लुटा देती है।।
रचयिता रेणु पांडे
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