सेवा-समर्पण ही भक्ति है ।

सेवा-समर्पण ही भक्ति है ।
प्रिय आत्मन्!
समर्पण ही भक्ति है। अकड़ (अहंकार) ही संसार है। समर्पित व्यक्ति ही सेवक हो सकता है। सेवा ही भक्ति है। सेवा का न मजहब है न सम्प्रदाय है। भक्ति (सेवा) ही सनातन है। सनातन धर्म ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों का वास्तविक, स्वाभाविक धर्म है। भक्त सभी में भगवान देखने लगता है। भक्त का सहज स्वभाव हो जाता है- भगवान की सेवा करना।
सृष्टि का प्रत्येक जीव दूसरे की निरंतर सेवा में लगा रहता है। एक जीव दूसरे जीव की सेवा करके जीवन का भोग करता है। निम्न पशु मनुष्यों की सेवा करते हैं। सेवक अपने स्वामी की सेवा करता है। स्वामी अपने स्वामी की सेवा करता है। एक मित्र दूसरे मित्र की सेवा करता है। माता पुत्र की, पत्नी पति की, पति पत्नी की सेवा करता है। राजनेता जनता के सामने अपनी सेवा करने की क्षमता का घोषणा-पत्र प्रस्तुत करता है। जनता महत्त्वपूर्ण सेवा समझकर अपना मत देती है। दुकानदार ग्राहक की, शिल्पी पूंजीपतियों की, पूंजीपति अपने परिवार की सेवा करता है। परिवार अपनी शाश्वत सेवा, क्षमता से राज्य की सेवा करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कोई भी जीव अन्य जीव की सेवा करने से भक्त नहीं बन जाता है।
सेवा करना तो मनुष्य का स्वभाव है। जो व्यक्ति गुरु-गोविन्द की सेवा करता है, सेवा का फलाफल उसी को अर्पित कर देता है, वही संन्यासी है, यही सेवा भक्ति कहलाती है। जो अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु, श्वान की भांति स्वयं के उदर-भरण के लिए सेवा करता है- वही संसारी है। संसारी आदमी ही अपनी इच्छा पूर्ति हेतु विभिन्न देवों की सेवा करता है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं-
कामैस्तैस्तैर्हमज्ञानाः प्रपद्यन्तेन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।
अर्थात् जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभावों के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं। वे गुरु-गोविन्द की सेवा (पूजा) न करके विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।
महाभारत की एक कथा है। भगवान कृष्ण सोये हैं। कौरव-पाण्डवों में युद्ध की तैयारी प्रारम्भ हो गई है। दुर्योधन, गोविन्द से मदद लेने हेतु पहले जाता है। गोविन्द के सिर की तरफ खड़ा हो जाता है। अर्जुन पीछे जाते हैं। गोविन्द के पैर की तरफ खड़े हो जाते हैं। कृष्ण की निद्रा टूटती है। उठ बैठते हैं। सामने अर्जुन दिखाई पड़ते हैं। वे पूछते हैं-अर्जुन! आपका आगमन कैसे हुआ? आपकी क्या सेवा करूं?
तभी दुर्योधन सोचता है कि कहीं अर्जुन कृष्ण की मदद न ले ले। मैं वंचित रह जाऊँ। अतएव वह शीघ्र ही बोलता है- हे कृष्ण! आप तो पहले पहुँचने वाले की मदद करते हैं। मैं पहले आया हूँ। कृष्ण पीछे मुड़ कर देखते हैं। वे सिर की तरफ खड़े हैं।
कृष्ण ने कहा- तो आप ही पहले आए हैं। अच्छा अब आप सामने आकर बैठ जाएं। दोनों भाई अगल-बगल बैठ जाएं, जिससे मुझे वार्ता करने में सहुलियत हो।
कृष्ण ने पूछा दुर्योधन जी! आप दोनों मेरे रिश्ते में हैं। अतएव मैं स्वयं युद्ध नहीं करूंगा। एक तरफ मेरी अठारह अक्षौहिणी सेना है जो युद्ध करेगी। दूसरी तरफ मैं अकेला रहूँगा। मैं युद्ध भी नहीं करूंगा। आप बताएं किसे स्वीकार करेंगे?
दुर्योधन का चंचल, स्वार्थी, संसारी मन सोचने लगा। कृष्ण का क्या करूंगा? वह तो बोझ बन जाएगा। इसे खिलाने-पिलाने हेतु भी नौकर-चाकर का प्रबन्ध करना पड़ेगा। यह खर्च अलग से पड़ जाएगा। यह बोझ तो सिर दर्द हो जाएगा। हमें तो युद्ध में विजय हेतु योद्धा चाहिए। बहुत सोचा। उसकी सोच सांसारिक थी। अतएव उसने सेव्य (गुरु) को छोड़कर सेना मांग ली। दुर्योधन यहीं चूक गया चूंकि उसमें समर्पण का भाव नहीं था। गुरु दर्शन, गुरु सेवा, गुरुत्व ग्रहण का अभाव था।
अर्जुन से कृष्ण ने पूछा- भाई अर्जुन! अब तुम बताओ। तुम्हें क्या चाहिए?
अर्जुन विनम्र भाव से बोले- हे माधव! हे मुरारी! मुझे सेना नहीं चाहिए। मुझे तो केवल आपकी ही आवश्यकता है। आप हर समय हमारे साथ रहें। जिससे आपकी सेवा, मन, कर्म, वचन से सदैव कर सकूं। मुझे आपके सिवाए अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। दुर्योधन अर्जुन की उस उक्ति पर हँसा कि अर्जुन बेचारा कोरा मूर्ख है। अर्जुन यहीं जीत गया। दुर्योधन यहीं हार गया।
संसारी पुरुष के पांच दोष होते हैं-
- वह गलतियाँ अवश्य करता है।
- वह भ्रमित अवश्य होता है।
- उसमें दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति सहज होती है।
- अपूर्ण इन्द्रियों के कारण, सीमित होता है।
- वह अपने को दूसरे से श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान समझता है।
इन्हीं दोषों के कारण वह परमपुरुष का ज्ञान पूर्ण नहीं ले पाता है। जो शिष्य गुरु आज्ञा के अनुसार कार्य करने लगता है वह विजयी हो जाता है। जैसे अर्जुन अपने गुरु कृष्ण से कहते हैं- ‘करिष्ये वचनं-तव|’ मैं आपके वचन के अनुसार ही कार्य करूंगा। जैसे ही शिष्य अपने को गुरु पर छोड़ देता है वह उपरोक्त पांचों गलतियों से मुक्त हो जाता है।
कृष्ण श्रद्धापूर्ण भक्ति को विशेष महत्त्व देते हुए अर्जुन को समझाते हैं (6:16 गीता)
योगिनामपि सर्वेषां मदगतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स में युक्ततमो मतः।।
अर्थात् सम्पूर्ण योगियों में जो श्रद्धावान योगी भक्तियोग के द्वारा मेरी आज्ञा का पालन करता है, अपने अन्तर में मेरे बारे में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेम भक्तिमय सेवा करता है। वह योग में मुझसे परम घनिष्ठता पूर्वक युक्त होता है और सब में श्रेष्ठ है। यही मेरा मत है। यही मत गुरु मत है। जो गुरु के रूप में कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन से अभिव्यक्त किया था।
परम पुरुष निर्गुण है। निराकार है। सहज ध्यानातीत है। अतएव गुरु के साकार रूप के ध्यान के माध्यम से ही उसे जाना जा सकता है। आज के संदर्भ में इससे सुगम मार्ग दूसरा नहीं है। भगवान कृष्ण इसी गुरुत्व भाव से अर्जुन से कहते हैं-
अभ्यास योग युक्तेनचेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।(गीता 8:8)
अर्थात् ‘हे अर्जुन! जो व्यक्ति अपने पथ पर विचलित हुए बिना अपने मन को निरन्तर मेरा ध्यान करने में व्यस्त रखता है और परम पुरुष के रूप में मेरा ध्यान करता है। वह परम पुरुष को अवश्य प्राप्त होता है|’
आप सभी सद्गुरु भगवान कृष्ण की इस मंत्रणा का लाभ उठाएं संसार में रहते हुए विरक्त भावना से सभी कार्य करते रहें। ध्यान सदैव गुरु भक्ति में लगाए रहें। आप अवश्य ही मुक्ति को उपलब्ध हो जाएंगे। यही मेरी कामना है। मेरा सहयोग सदैव आपके साथ रहेगा। आप सभी के अन्दर विराजमान परम पुरुष को मेरा नमन है।
।। हरि ॐ।।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति गुरु ही मुक्तिदाता से उद्धृत…
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –