घर सजाया उसने

घर सजाया उसने
घर सजाया उसने
घर बसाया उसने
तिनका तिनका सहेजकर
घर चमकाया उसने
अधिकारों की बलिवेदी पर
खुद को आहूत किया
तब जाकर कहीं
सर पे छत पाया उसने,
श्रृंगार यही आधार यही
माथे की बिंदी
हाथों की चूड़ियां
बिच्छुए पायल का
कर्ज चुकाया उसने
धूप में सुखाती उलिचती
हर दाना बचाया उसने ।
उम्र गुजारी उसने
रिश्ते निभाने में,
जोड़ती रही सब कुछ
अपने टूटते जाने में।
समझी नहीं की
कितनी गुमनाम थी,
सजाती रही उसको
ही पल पल जहां
तख्ती भी नही उसके नाम की।
रचयिता रेणु पांडे