ना जाने कितने परिचय

ना जाने कितने परिचय
एक मैं ही नहीं
चलते है मेरे भीतर
ना जाने कितने परिचय
कितने भाव
कितने आंदोलन,
मैं सबको देख पाती हूं
पर उनकी जड़ें
समझ नहीं पाती।
कितने परिचित
अपरिचित ये
अक्स हैं मेरे,
मेरे संघर्ष और टकराव
की दास्तान है।
मेरी नसों को झंझोरते हैं
इन्हें मैं अपना नही पाती
ना झटक पाती हूँ ।
जीवन की मर्यादाएं
परंपराएं सकल
बन जाती है बेड़ियां
कभी मेंहदी कभी बिंदिया
कभी कंगन कभी आंगन ,
दायरे ये खुद के बनाए हुए
कभी साथ नहीं देते
ना ही खुली सांस लेने देते ।
ना जाने कितने सवाल
खुद से किए मैने
और तलाशे जवाब खुद में
पर जीवन परिधि में
कोई टिक नहीं पाता
सिवा चलने के
हमको कुछ नही आता ।।
रचयिता रेणु पांडे
Photo by Ritam Das: https://www.pexels.com/photo/portrait-of-a-woman-with-nose-piercing-9901800/