मृत चेतना

मृत चेतना
मर गयी है चेतना क्या आज मनुष्य की जाति से?
हार गयी है मनुष्यता क्या आज मनुज की जाति से?
खग से खग भी अब लौट रहे, क्या सिहर गये भूमण्डल से?
रक्त रंजित धरा हो चली क्या राजनीतिक गलियारों से?
विक्षिप्त हो चले युवा यहाँ पर, सत्ता लोलुप सियारों से।
कर्म विहीन, दिशा विहीन भूखे युवा हथियारों से,
बन्धु मित्र सम्बंधी सब, शत्रु हो गये बंटवारे से
क्षीण हो चली शिक्षा भी जब, ज्ञान बंटे गंवारों से।
अधर्मी धर्म का ज्ञान दे रहे, मानस-गीता-कुरान रो रहे,
लज्जित सब गुरु महान हो रहे, राम हो रहे, श्याम हो रहे।
घर घर मे क्लेश बढ़ रहे, भ्राता पिता और पुत्र बंट रहे
माता तनुजा दारा बंट रहे, भगिनी वधू जामाता बंट रहे।
हर धर्म वृक्ष-पत्र सा होता है, आध्यात्म चरम अर्थ होता है
मानवता के पोषण ही से, वह वृक्ष पोषित होता है।
इतनी सरल सी बात यह, सब धर्मों का सार यह,
मानव परस्पर स्नेह करें, परब्रह्म का ध्येय धरें।
वह रूप अलग ले लेता है, कभी राम रहीम या ईसा है,
बाध्य नहीं वो करता है, ना किसी भाव में कट्टरता है,
घृणा से दूर ही रहता है, कतई नहीं जहां कटुता है।
जो शबरी के झूटे बेर चखे, उस नाम पर हिंसा धोखा है,
पीर फकीर साधू महंत, जो कुत्सित भाषिक वह खोखा है
स्वयं से स्वयं को जानो तुम, मानवता को पहचानो तुम
पशु नहीं तुम मानव हो, पशुता को अब त्यागो तुम
बीज मंत्र यह गांठ धरो तुम, कल्याण नहीं जो घृणा धरो तुम।
जो परब्रह्म को पाना हो तो, मानव मात्र का कल्याण करो तुम।
आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”