पूरी पृथ्वी एक ही राज्य
पूरी पृथ्वी एक ही राज्य
वैदिक ऋषि सारी धरती को ही एक राष्ट्र होने की कामना करते थे, क्योंकि ‘अहं’ की लड़ाई का परिणाम उन्हें मालूम था। देवासुर संग्राम, आर्य दानव संग्राम, नाग संग्राम एवम् यक्ष संग्राम देख चुके थे। अन्न, धन तथा जन तीनों का विनाश भी सामने ही हुआ था। सामान्य आदमी की त्रासदी उनसे छिपी नहीं थी। इस सबसे खिन्न होकर ही वे एक राष्ट्र होने की कामना किया करते थे। ‘समुद्रपर्यन्तयाः पृथिव्याः एकरात|’ ऐ. वा. 8/15 अर्थात् ‘समुद्रपर्यन्त जितनी पृथ्वी है उस पर एक ही राज्य शासन हो|’
आज की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भी इसकी आवश्यकता समझी गयी एवम् ‘यूनाइटेड नेशन्स आर्गनाइजेशन’ का गठन किया गया, परन्तु खेद की बात है कि यू.एन.ओ. भी कुछ लोगों के हाथ की कठपुतली बनकर ही रह गया। आज भी पृथ्वी के अलग-अलग कोनों में अलग-अलग विचारधारा के लोग हैं। जैसे पश्चिम में अमेरिका पूंजीवादी है, तो उत्तर में रूस तथा चीन साम्यवादी। हमारा भारत तो सभी वादों का मिश्रण होकर रह गया है। पाकिस्तानी तथा अरबी इस्लामी कानून वाले कट्टर देश हो गये हैं तो नेपाल हिन्दू। इसी के कारण कोई किसी से नहीं मिल पाता। अपने बडे़ होने की अधिकता है। किसी में भी क्षणिक त्याग या तप नहीं है।
सत्ता का केन्द्रीयकरण तपहीन दूषित व्यक्तियों के हाथ में हो गया है। आयुध सामान इतने बन गये हैं कि पृथ्वी को सैकड़ों बार नाश किया जा सकता है। यदि विश्व स्तर पर आयुध एवं प्रतिरक्षा खर्च समाप्त कर दिया जाए तो पूरी पृथ्वी खुशहाल हो जाएगी। यह तभी सम्भव है जब मानव योग-युक्त हो। नव- सद्विप्र हो।
पूर्व में भी असुरों का राज्य पश्चिम की तरफ था। असुर लोग असीरिया में रहते थे। दानव लोग दान्यूव नदी के किनारे रहते थे। ‘बक’ लोग बैक्ट्रिया में रहते थे। देवता लोग उत्तर त्रिविष्टप में रहते थे। देवों के गुरु बृहस्पति तथा दानवों के गुरु भृगु पुत्र शुक्राचार्य थे। आर्य लोग आर्यावर्त में रहते थे। इस प्रकार सदैव ही युद्ध की स्थिति बनी रहती थी। देवता लोग मांस-मदिरा का सेवन किया करते थे। उनके सम्पर्क में वशिष्ठ भी रहे अतः उन्होंने भी इसका सेवन करना प्रारम्भ कर दिया। विनोबा जी ने भी अपनी पुस्तक गीता भाष्य में इस बात की पुष्टि की है। भवभूति के उत्तर रामचरित में भी इसका उल्लेख मिलता है कि महर्षि बाल्मीकि ने महर्षि वशिष्ठ के स्वागत में मधु पर्व के अवसर पर ‘गोमांस’ अर्पित किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न सभ्यता, संस्कृति के मिलने पर संस्कृति का आदान-प्रदान भी होता था।
‘विश्वं विष्णुः’ यह पूरा विश्व ही विष्णु है। यह मानकर शासन करना होगा। शरीर का निर्माण करोड़ों कोशिकाओं के संयोग से हुआ है। सभी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं। हर सात वर्ष में इनकी मृत्यु हो जाती है तथा उनके स्थान पर नयी कोशिकाओं का जन्म होता रहता है। शरीर को इसका भान नहीं होता। शरीर रूपी राष्ट्र का कार्य सुचारु रूप से चलता रहता है। कार्यक्षेत्र छोटा हो या बड़ा उसके एकात्म भाव को ही जनता के शासन करने वाले शासकों को देखना चाहिए। ग्राम अधिकारी जनता की एकात्मता का अनुभव करके अपना कार्य करें। इसी प्रकार राष्ट्र के शासक देश में रहने वाले सभी प्राणियों की एकता को देखकर ही शासन चलाएं। शासक को छोटे-बडे़ सभी क्षेत्र, सब स्थान एवम् सभी मानवों को मिलाकर तथा एक शरीर समझकर शासन करना चाहिए।
विभिन्न अंग सिर, हाथ, पांव और उदर आदि मिलकर एक शरीर ही है। ऐसे में प्राणियों को अलग-अलग दृष्टि से देखकर, पृथक मानकर शासन करना जनता को ठगने जैसा है। दूसरों पर शासन नहीं हो सकता, हाँ ठगा जा सकता है। धूर्त्तता का जाल फैलाया जा सकता है। अथर्ववेद में कहा गया है-
‘ये पुरुषे ब्रह्म विदुः ते विदुः परमेष्टिनम्|’
‘जो शरीर में ब्रह्म को देखते हैं वे परम-नेही प्रजापति को जान सकते हैं|’ शरीर एवम् विश्व का ज्ञान एक ही पद्धति से सम्भव है। वह व्यक्ति नव सद्विप्र कहलायेगा जो ग्राम स्तर तक का शासन करेगा।
राज्याभिषेक
आ त्वार्हार्षमन्तरेधि ध्रुवस्तिष्ठा विचाचलिः।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रभधिभ्रशत्।।
ऋ. 10/173/1
ध्रुवोच्युतः प्रमीणीहि शत्रून शत्रूयतोऽधरान् पादायस्व।
सर्वा दिशाः संमनसः सध्रीचीः ध्रुवास ते समिति कल्पतामिह।।
अथर्ववेद 6/88/3
अर्थात हे राष्ट्र के अध्यक्ष! मैं (त्वा आहार्ष) तुम्हें इस राजगद्दी के स्थान पर लाया हूं। अब (अन्तः येधि) अन्दर जाओ (ध्रुवः तिष्ट) स्थिर रहो, (अविचाचलिः)चंचल न रहो। (सर्वाः विशः त्वा वांछन्तु) सर्व दिशाओं में रहने वाले प्रजाजन इस राष्ट्राध्यक्ष के स्थान पर तुम्हारे ही रहने के लिए इच्छा करें। (राष्ट्रं त्वत् मा अधि भशत्) यह राष्ट्र तुमसे अधः पतित न हो। यह राष्ट्र तुमसे दूर या पृथक न बने।
तुझे राज्य पदच्युत होने का अवसर प्राप्त न हो (ध्रुवः अच्युतः शत्रान् प्रभृणीहि)। ‘शत्रूयतः अधरान् पादयस्व’ राजगद्दी पर स्थिर रहकर स्थान भ्रष्ट न होते हुए तू शत्रुओं का पूर्ण नाश कर। शत्रुओं के समान आचरण करने वाले जो भी हों, उन सबको तू नीचे गिरा दे। ‘सर्वाः दिशः संमनसः सध्रीची’ सब दिशाओं में रहने वाले प्रजाजन एक मत होकर तुझे ही राज्यारूढ़ रहने की अनुमति दें। ‘इह ते ध्रुवाय’ यहाँ तेरे स्थिरता के लिए ‘समिति कल्पताः’ राष्ट्रीय समिति समर्थ होवे। अर्थात् यह राष्ट्र समिति तुझे ही राजगद्दी पर रखने की अनुमति दे। ऐसा उत्तम तथा प्रजाहित कारी, तू राज्य शासन कर। इसमें प्रमाद न होवे। अगर यह राष्ट्र समिति तेरे अनुकूल रहेगी और तुझे ही राष्ट्र के शासन पर रखने की इच्छा करेगी तो तेरी स्थिति इस राज्य पद पर बनी रहेगी। नहीं तो तेरा स्थान भ्रष्ट होने में कोई देर नहीं लगेगी।
इस प्रकार के मंत्रों से आबद्ध कर राज्याभिषेक किया जाता था। न कि उन्हें मनमानी करने की छूट थी। इतना ही नहीं, इन्हें किसी प्रकार का भी पाप कर्म करने की मनाही थी। यथा-
यदि दिवा यदि नत्कः, यदि जाग्रत यदि स्वप्ने।
यत् ग्रामे यदरण्ये, यत् सभायां यदिन्द्रिये।।
यत् शूद्रे यदर्थे यदेनश्चकृपा वयं,
यदे कस्माधि धर्माणी तस्यावय जनमसि।।
(वा. यजुर्वेद-20)
अर्थात् दिन में अथवा रात्रि में, जाग्रत में अथवा स्वप्न में हमसे जो पाप हुआ होगा, जो पाप व्यक्ति से हुआ होगा और संधसः हुआ होगा, धर्म के ठीक प्रकार से पालन करने में हुआ होगा, उसका प्रायश्चित करना चाहिए। यह फिर से न हो इसका भी प्रबंध करना चाहिए।
इस प्रकार का वर्णन हमारे शास्त्रों में है। इतना ही नहीं, यदि प्रजापति दुराचारी हो गया हो तो सिर्फ उसके हटाने का नहीं बल्कि वध करने का भी प्रावधान है। इसी से राजा पाप कर्मों में लिप्त नहीं होता था, ऋषियों ने सब तरह की व्यवस्था दे रखी है। हर क्षेत्र में इनका समान अधिकार होता था। ब्रह्म द्रष्टा होने के कारण पूरी पृथ्वी को ही अपना घर समझते थे। सब इनके परिवार के ही सदस्य थे, अतः किससे मित्रता तथा किससे घृणा करें। सम्पूर्ण मानवता का कल्याण ही इनका अभीष्ट था।
सद्गुरु कबीर भी सबको शुभ कर्म करने का संदेश देते हैं। जो ऋग्वेद ने कहा उसी को अपने जीवन में उतार लिये। कहते हैं-
‘नरक स्वर्ग का लेख जोख करनी से होवै।
कबिरा आंखें खोल, काहे जीवन को खोवै||’
हर क्षण जीवन बीत रहा है। कोई इसका लेखा-जोखा भी कर रहा है। अतः हमें समग्रता से शुभ करनी के लिए जुट जाना चाहिए।
||हरि ॐ||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत…
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –