बुद्ध का विषाद और धम्म दीक्षा

ध्यान से मिलता है सुख, ज्ञान है मिलती है शांति, बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं.
बुद्ध का विषाद और धम्म दीक्षा
बुद्ध 35 (पैंतीस) वर्ष की आयु में बुद्धत्व को उपलब्द्ध हुए थे| कुछ लोग यह अवस्था 41 कहते हैं| अवस्था महत्वपूर्ण नहीं है| महत्वपूर्ण विधि एवं बुद्धत्व है| वे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ सोचते रहे, निश्चय ही मैंने एक नया धम्म पा लिया है| इसे सामान्यजन को समझाना कठिन है| सभी लोग तथाकथित आत्मा और परमात्मा में फँसे हैं| तभी तो अपने रस्मों, रीति-रिवाजों, तथाकथित धार्मिक संस्कारों के बंधन से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं| ये सभी लोग ब्राह्मणवाद के जाल में फँस गए हैं| सभी स्वर्ग-नर्क के स्वार्थ-रत चक्र में फँसे हैं| मानवता, करुणा नाम की चीज़ है ही नहीं| यदि मैं अपने सिद्धांत का उपदेश दूँ और इसे समझ न सके या स्वीकार न कर सके या आचरण न कर सके तो व्यर्थ ही उन्हें थकावट होगी एवं हमें परेशानी| इस तरह सोचकर बुद्ध निष्क्रिय हो संन्यासी का जीवन बिताना ही श्रेयस्कर समझे|
जब ब्रह्मा ने देखा कि बुद्ध निष्क्रिय होना चाहते हैं, तब तुरंत उनके सामने आये| हाथ जोड़कर विनीत स्वर में बोले, “आप सिद्धार्थ गौतम नहीं हैं| आप बुद्ध हैं, आप सम्यक् संबुद्ध हैं| आप तथागत हैं| आप संसार को सत्य पथ पर ले चलने से कैसे विमुख हो सकते हैं| बहुत प्राणी हैं, जो बहुत मलिन नहीं हैं| उन्हें आप नहीं सुनायेंगे तो वे विनाश को प्राप्त हो जायेंगे| अभी के धर्म में पुराना होने की वजह से बहुत रूढ़ियाँ, त्रुटियाँ, कमियाँ आ गई हैं| आप इसका उद्धार नहीं करेंगे तो कौन करेगा? हे वीर! हे सार्थवाह! हे जाति-क्षय! आप उठें| संसार के कल्याण के लिए विचार करें| आप करुणा की मूर्ति हैं| देखें, संसार के जन दुखी हैं| आपकी तरफ आतुर दृष्टि से देख रहे हैं|” बुद्ध ने कहा, “हे ब्रह्मा! हे नर श्रेष्ठ! मैंने ऐसा सोचा था केवल व्यर्थ की परेशानी से बचने के लिए| हे मनुष्यों में ज्येष्ठ, श्रेष्ठ ब्रह्मा! जब संसार दुखों से ही भरा है तब तथाकथित संन्यासियों की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना और जो कुछ हो रहा है वैसे ही होते रहने देना, ठीक नहीं है| अभी संसार में विभिन्न प्रकार से अपने शरीर को कष्ट देना तथा अपने को समाज का श्रेष्ठ कहना, पुरोधा-प्रमुख कहना ही संन्यास बन गया है| अतः इस संसार को बदलना श्रेष्ठतर होगा| मानवता की सेवा ही धर्म होगा| मैं आपकी प्रार्थना को स्वीकार करता हूँ|”
ब्रह्मा, बुद्ध की परिक्रमा करते हुए, नमस्कार कर विदा लिए| बुद्ध सोचने लगे कि मैं कैसे धर्मोपदेश करूँ! सबसे पहले अलार कलाम एवं रामपुत्र के सम्बन्ध में सोचे परन्तु पता चला कि ये मृत्यु को प्राप्त कर गए| तब अपने पाँच साथियों के विषय में सोचे जो निरंजना के तट से भाग गए थे| पता चला कि वे सारनाथ (वाराणसी) में रहते हैं| अतएव वहाँ के लिए प्रस्थान कर गए| जब पाँचों ने दूर से देखा, गौतम आ रहा है, धर्मभ्रष्ट हो गया है तो कहे, इसका कोई स्वागत नहीं करेगा| न ही कोई बात करेगा| परन्तु बुद्ध जैसे ही उनके समीप आये एकाएक सब उठ खड़े हो गए, कोई जलपात्र ले लिया, कोई चीवर, कोई आसन बिछाया, कोई जल लाया, पैर धोया, इस तरह नहीं चाहते हुए भी एक अप्रिय व्यक्ति का असाधारण स्वागत हुआ| अब दोनों तरफ से कुशलक्षेम हुआ| ये पाँचों पूछे, आप शरीर-क्लेश साधना (शरीर को कष्ट देकर) करते हैं या छोड़ दिए? चूँकि यही तो स्वर्ग का साधन है|
बुद्ध ने कहा, “मित्रों ! मन दो अति पर रहता है| एक अति है काम भोग– दूसरा अति है काया-क्लेश| एक कहता है खाओ, पीओ, मौज करो| कल तो मरना ही है| अब क्या है इस दुनिया में! दूसरा कहता है – यह नश्वर है, यातना है, पुनर्जन्म का कारण है| स्वर्ग का बाधक है| अतएव शरीर को कष्ट देते हैं| ये दोनों ही मर गए हैं| मैं दोनों के मध्य को मानता हूँ| जो न काम भोग का मार्ग हो– न ही काया-क्लेश का| जब तक किसी के भी मन में पार्थिव या स्वर्गीय भोगों की कामना बनी रहेगी, तब तक उसका समस्त तप (काया-क्लेश) व्यर्थ होगा| आप देखो कोई भी ऋषि तथाकथित तप, काया-क्लेश से काम-तृष्णा को शांत नहीं कर सका| बल्कि भोग, क्रोध और बढ़-चढ़कर आ गया| तब दरिद्र की तरह काया और क्लेश से जीवन बिताने से क्या फायदा है? हे मित्र! सभी तरह की काम-वासना उत्तेजक होती है| कामुक अपनी काम-वासना का गुलाम होता है| लेकिन शरीर की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति में बुराई नहीं है| जिससे समाज सुदृढ़ रहे| शरीर स्वस्थ रहे| मनोबल दृढ़ रहे| जिससे प्रज्ञा रूपी प्रदीप प्रज्वलित हो सके|
सभी परिव्राजक यह सुनकर प्रसन्न हो उठे| सभी एक साथ बोले, “हे बुद्ध! अब हमें अपना सधम्म बताएँ|”
बुद्ध बोले, “हे मित्र! धर्म को तथाकथित आत्मा-परमात्मा की परिचर्चा से कुछ भी लेना-देना नहीं है| कर्मकाण्ड, क्रिया-कलाप निरर्थक है| धर्म का केंद्र-बिंदु आदमी ही है| अतएव मानव का मानव से होना ही श्रेष्ठता है| मानव मानव से घृणा क्यों करें? तीसरा है, दुःख के अस्तित्व की स्वीकृति और इसके नाश का उपाय ही इस धर्म का आधार है| जो भी संन्यासी, ब्राह्मण यह नहीं समझते कि दुःख क्या है और दुःख से निवृत्त होने का उपाय भी है, वे संन्यासी, ब्राह्मण हैं ही नहीं| दुनिया में हर जगह पतित लोग होते ही हैं| वे उठना भी चाहते हैं| उठाना ही हमारा धर्म है| अतः हे परिव्राजकों! आप लोग आज से ही पवित्र पथ पर चलें| धम्म के पथ पर चलें| शील मार्ग पर चलें| जिससे दुःख का भी निरोध हो जाये|
बुद्ध परिव्राजकों को दीक्षित कर दिए| उन्हें आठ अंग अपनाने को कहे –
- सम्म दिही – सम्यक् दृष्टि| प्रमादी मन विचार से स्वतन्त्र हो|
- सम्यक् संकल्प – व्यक्ति की आशाएं, आकांक्षाएं उच्च स्तर की हों|
- सम्यक् वाणी – व्यक्ति सत्य बोले, असत्य का आश्रय न ले|
- सम्यक् कर्मांत – योग्य व्यवहार की शिक्षा दें|
- सम्यक् आजीविका – आजीविका करने में दूसरे को किसी प्रकार का कष्ट न हो|
- सम्यक् व्यायाम – शारीरिक, मानसिक रूप से स्वस्थ रहने, आलस्य से दूर रहने के लिए व्यायाम ज़रूरी है|
- शील – नैतिकता का अनुसरण करना|
- नैष्क्रम्य – सांसारिक काम-भोगों की तरफ से मानसिक रूप से विरक्त होना|
इसके बाद उन्होंने दान, वीर्य (दृढ़ संकल्प), शांति, सत्य अधिष्ठान (अपने विषय तक पहुँचने का दृढ़ संकल्प) करुणा और मैत्री पर जोर दिया | इससे पहले सारे धर्म ईश्वर के नाम पर थोपे गए हैं | यह वेद ईश्वर का उपदेश है या आदेश है | इसमें जो अनुशासन दिया है वह आदमी की सामाजिक आवश्यकताओं का अध्ययन का परिणाम है | इससे पहले किसी ने कभी मोक्ष का अर्थ नहीं निकाला कि वह एक ऐसा ‘सुख’ है जिसे आदमी धम्यानुसार जीवन व्यतीत करने से, अपने ही प्रयत्न द्वारा यहीं इसी पृथ्वी पर प्राप्त कर सकता है|
बुद्ध मानवमात्र के दुःख से दुखी थे| अतएव इनमें जाति-पांति, छुआछूत, साधु-असाधु सबके लिए समान प्रेम था| ये करुणा के प्रतीक महामानव थे| बुद्ध ने 45 वर्षों तक मानवता की सेवा की एवं दुःख से मुक्त होने का उपाय बताते हुए 80 (अस्सी) वर्ष की आयु में लुम्बिनी के शाल वन में अपने जन्म के ही दिन, निर्वाण को उपलब्द्ध हुए| बुद्ध किसी न किसी रूप में आते रहते हैं| परन्तु हम सदैव वही रूप लेकर बैठ गए हैं| हमें आवश्यकता है अपनी आँख खोलने की| समय के बुद्ध, समय के सद्गुरु के सामने अपने को समर्पित करने की| फिर हम आनंद से भर जायेंगे|
।। हरि ओम ।।
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘बुद्धों के पथ’ से उद्धृत…
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –