भगवान्-भवानी का दरबार

भगवान्-भवानी का दरबार
||श्री सद्गुरवे नमः||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव नेत्र से उद्धृत…
हिमालय स्थित स्वामी प्रणवानंद एवं दिव्यानंद के साथ शिवपुरी की अंतर्यात्रा- मनुष्य के पास इच्छा है; शक्ति नहीं है| शिवनेत्र प्राप्त योगी के पास इच्छा भी है, शक्ति भी है| इच्छा के साथ ही कार्य संपन्न हो जाता है| कैलाशपुरी का भ्रमण कर सकते हैं| भगवान् शिव से मिल सकते हैं| सभी कुछ संभव है श्रद्धावानों के लिए; जो तीसरे नेत्र को सक्रिय करना जान लिए हैं|
सभा कक्ष खचाखच भरा था। उच्चासन पर भगवान-भवानी अप्रतिम तेजयुक्त बैठे थे। सामने विभिन्न प्रकार के भगवान के गण, संन्यासी गण, सभी अपने-अपने आसन पर बैठे थे। कोई आवाज नहीं थी। मेरे पहुँचते ही एक व्याघ्र चर्म पृथ्वी से ऊपर स्वयं हवा में तैरते हुए आया। देवी ने उस पर बैठने के लिए इशारा किया, मैं बैठ गया। वह आसन भवानी के समीप चला गया। एक प्रौढ़ व्यक्ति सामने आए तथा सभा को सम्बोधित करते हुए बोले-“मैं भगवान का कृपापात्र कुबेर आप सभी का स्वागत कर रहा हूँ। हमारे मध्य स्वामी जी आए हैं। माँ भवानी ने इन्हें अपना भाई कहा है तो यहाँ ये मेरे प्रिय मामा हो गए। कौन चाहता है मामा को विदा करना।
भगवान का आदेश है यह सृष्टि चलायमान है। सभी अपनी-अपनी लीला करते हैं। सृष्टि चक्र के अनुसार हम कभी मिल जाते हैं फिर बिछुड़ जाते हैं। स्वजन के मिलने पर प्रेम का निर्झर स्वतः बह जाता है। बिछुड़ने पर मेरी माँ को ही दुःख नहीं हो रहा है, हम सभी को हो रहा है। सभी की आँखें नम हैं। लेकिन भगवान कहते हैं जो व्यक्ति अपने कर्मों से च्युत हो जाता है वह उस जन्म से चूक जाता है। प्रकृति का स्वभाव है सदैव कर्म में लगे रहना। कर्म फल की इच्छा की कामना नहीं करना। हम सभी किसी न किसी ज्ञात अज्ञात कर्मों को करते हैं। मामाजी को विशेष कर्म हेतु पृथ्वी पर भेजा गया है। भेजा गया है, यह कहना भी अनुचित है। वे स्वयं समय-समय पर जाते हैं। सद्विप्र समाज की स्थापना करते हैं। लोगों में नई चेतना का संदेश देते हैं जिसे हम सभी यहाँ से तो देखते ही रहते हैं। हमारी भावनाएँ जाने-अनजाने इनसे जुड़ी ही रहती हैं। मेरा निवेदन है कि मामा श्री (स्वामी श्री) हम लोगों को दो शब्द सम्बोधित करेंगे।
मैंने अपने स्थल पर अपने गुरु का ध्यान किया- “अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तद् पदं दर्शितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः||” आज मेरे लिए इस मानव शरीर का अति स्मरणीय दिन रहेगा। मैं सदैव निर्मोही कहलाता हूँ। एक से एक दुर्घटनाएँ मेरे सामने उपस्थित हुई हैं। मैंने हँसकर सामना किया है। आज मैं दीदी के प्रेम में अबोध शिशु की तरह बह गया था। जैसे गंगा के तेज प्रवाह में कोई तिनका बहता चला जाता हो। उस तिनके का अपना क्या अस्तित्व होगा कि कहीं अकड़ कर रुक जाए। वही स्थिति थी मेरी। दीदी की आँखों से गंगा-जमुना सरस्वती नदियाँ निःसरित हो रही थीं। मैं बह रहा था। मैं अपना अस्तित्व खो गया था। तिनके को प्रवाह से उबारने के लिए कोई शक्तिशाली हाथ चाहिए। वैसे ही मुझे बाहर निकालने के लिए भगवान स्वयं उपस्थित हुए। अन्यथा पता नहीं कब तक बहता। लेकिन वह बहाव भी आनन्ददायक था। मुझे ऐसा ज्ञात हुआ कि जैसे गहरी समाधि की गोद से नहीं चाहते हुए भी भगवान की शक्ति ने बाहर निकाला है।
आप सभी अपूर्व पुण्य और भाग्यशाली हैं जो भगवान एवं भवानी के सान्निध्य में रहने का मौका मिला है। निश्चित ही आपके जन्मों-जन्मों के पुण्य का फल है। यहाँ से पृथ्वी पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वही नरक है। जहाँ प्रचण्ड धूप, तो कभी प्रचण्ड गर्मी, कभी प्रचण्ड वर्षा जो आदमी को कीड़े-मकौड़े की तरह बे-मौत मार रहे हैं। आदमी भी अपनी स्वार्थ लोलुपता में इतना गिर गया है कि वह काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार का पुतला हो गया है। एक छोटे कर्मचारी से बड़े तक अपने पद पर बैठते ही गरीब जनता का शोषण शुरू कर देते हैं उनकी समस्या ही उसकी आमदनी का स्रोत बन जाती है। ये नर पिशाच ऐसे दिखाई पड़ते हैं, जो अपने काम के लिए ही मासिक तनख्वाह लेते हैं फिर काम के लिए घूंस भी चाहिए। वैश्या मजबूरी में शरीर बेचती है| ये राक्षस अय्याशी में घूस लेते हैं। यहाँ से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे राक्षस-राक्षसियाँ सशरीर एक-दूसरे का रक्त पी रहे हों। धर्म प्रचारक भी मारीच-कालिनेमि बने हैं। इनकी भी राजसत्ता से साठ-गांठ है। पर्दे के पीछे सभी राक्षस ही हैं। जो एकाध धर्म पर चलने वाले हैं, भक्ति के प्रतीक हैं उन्हीं का अपहरण हो जाता है। ये सारे राक्षस उन्हीं पर अट्टाहास करते हैं। नैतिकता,चाल-चरित्र, चिंतन पृथ्वी पर से चला गया है। जैसे कपड़े के अन्दर सभी नंगे हैं उसी तरह कलियुग में विश्व मानव राक्षसी वृत्ति के प्रतीक बन गए हैं। अपने को एडवांस, उन्नत, विकसित मानते हैं। पतिव्रता औरत, चाल-चरित्र युक्त युवक, ईमानदार-सत्यवर्ती व्यक्ति को ये मूर्ख मानते हैं। हरिश्चन्द्र, सीता, सावित्री, भगीरथ, दधीचि, राम, कृष्ण मात्र मंदिर की वस्तु बन गए हैं। इनके पुजारी कथावाचक, श्रोता, दर्शक भी इनसे यही भोगवादी साधन माँगते हैं। मेरे प्रिय देव बंधु! आप तो यहाँ से सभी कुछ स्पष्ट देखते हैं। ऐसे समय पर मैं धरती पर गया हूँ। मुझे आज तक कोई मेरे अन्दर में छिपा खजाना नहीं माँगा। चूंकि ये हैं नर पिशाच जिनके दाँत रक्त रंजित हैं। तथा कथित भ्रष्ट समाज में भ्रष्टतम व्यक्ति ही सफल व्यक्ति समझा जाता है। धार्मिक, न्यायिक, चारित्रिक व्यक्ति हास्यास्पद बन गए हैं। जहाँ सभी कुछ अर्थ से खरीदा-बेचा जा रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति में मेरे साथ कौन आएगा? जो आता भी है उन पर कलियुगी पुरुष अपने को चतुर समझकर इन्हें मूर्ख समझकर अपने रास्ते पर लाने का दबाव बनाता है। वह कहता है, तुम भटक गए हो। खैर विषम परिस्थिति में कार्य करना मेरी आदत बन गई है। कभी-कभी रोना भी पड़ता है कि क्या कोई मेरे साथ नहीं है? क्या मैं अकेले इस रास्ते पर निकला हूँ?
भगवान कृष्ण गीता के अध्याय 13 में कहे हैं
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।। 8।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्म मृत्यु जराव्याधिदुःखदोषानु दर्शनम्।। 9।।
हे अर्जुन! श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा-उपासना, बाहर-भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता रखनी चाहिए।
मन और इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह तथा इस लोक-परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, यश और रोग आदि में दोषों का बारंबार दर्शन करना; ये सब ज्ञान के लक्षण हैं।
भगवान कृष्ण का यह वाक्य जितना सत्य उस समय था, उतना ही सत्य इस समय है। यहाँ आने पर पृथ्वी-लोक परलोक का रहस्य स्वयं खुल जाता है। दंभाचरण, अभिमान के वशीभूत होकर गंवार व्यक्ति भी कहने लगा है कि कृष्ण ने गीता नहीं कही है। शिव-शंकर अलग-अलग हैं। शंकर जी शिव के भक्त हैं। जबकि भगवान के हजार नाम हैं। निर्गुण से ही सगुण बना है। निःशब्द से ही शब्द निकला है। निराकार से आकार निकला है। स्वर से ही व्यंजन बना है। यहाँ से राक्षस धर्म प्रचारकों के स्पष्ट मिथ्या दर्शन दिखाई दे रहे हैं। वे स्वर्ग लाने का भ्रामक चॉकलेट दे रहे हैं। कोई निरंकार की दुहाई देकर अपने को ब्रह्मर्षि का अहंकार पालने लगा है। दूसरों की निन्दा करके जीना कि हम महान हैं; दूसरे हमसे हीन हैं- दंभ-आचरण होगा। ज्ञानी सहज होता है। बच्चे की तरह सरल। ज्ञानी किसी को किसी भी तरह नहीं सताता है। किसी को ठीक धर्म के रास्ते से भटका देना भी गलत है। किसी को हम सताते हैं, भटकाते हैं तो गहरे में हम अपने आपको सताते हैं। इस सूत्र में सबसे कीमती है-मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा भक्ति सहित गुरु की सेवा-उपासना। भगवान भी स्कंदपुराण में एक सौ आठ श्लोकों में गुरु गीता कहे हैं। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः इत्यादि कहे हैं। उसमें गुरु को सर्वोपरि कहे हैं। रामायण में भी शूद्र ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप कर रहा है। गुरु के आने पर उठा नहीं, आपने उसे हजार जन्म सर्प होने का श्राप दिया। गुरु के प्रार्थना पर पुनः आपने मार्जन किया। वहीं कागदेव जी महान भक्त बने। इस दुनिया में सबसे कठिन कार्य है शिष्य बनना। सीखने को तैयार रहना। अहंकार को छोड़ना। अन्यथा हम प्रतिदिन गुरु करते एवं छोड़ते हैं। शिक्षक बना लेना आसान है। गुरु बनाना कठिन है। शिक्षक अर्थात् काम चलाऊ सम्बन्ध। तुमसे हम कुछ सीखे हैं। उसके बदले में हम तुम्हें कुछ दे रहे हैं। गुरु को शिष्य कुछ भी नहीं दे सकता उसके प्रत्युत्तर में| धन नहीं हो सकता। तभी तो भगवान कृष्ण इतने आग्रहपूर्वक कहते हैं-श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा उपासना।
अगर बहुत श्रद्धा हो, तो ही शिष्य गुरु के विरोध में जाने से बच सकता है। नहीं तो दुश्मन हो जाएगा। आज नहीं कल शिष्य के दुश्मन हो जाने की सम्भावना है। कोई न कोई कारण खोज कर शत्रुता खड़ी कर लेगा, फिर उस आदमी के बोझ से मुक्त हुआ समझता है। श्रद्धा और भक्ति को अनिवार्य शर्त माना है शिष्य की।
जो शिष्य श्रद्धा-भक्ति से गुरु की उपासना करता है-वह मुक्त हो जाता है। मनुष्य ही मुक्ति का द्वार खोलता है। देवता मुक्त नहीं होते। चूंकि देव योनि का अर्थ है जहाँ सुख ही सुख है। वहाँ मूर्च्छा घनी हो जाती है। दुःख मूर्च्छा को तोड़ता है। दुःख ही मुक्तिदायी है। पीड़ा से छूटने का मन होता है। सुख से छूटने का मन ही नहीं होता है। परमात्मा ने मानव संसार में यही कीमती उपहार दिया है-सुख और दुःख का मिश्रण। सब सुखों के साथ दुःख जुड़ा है। जिन योगी ने गुरु की अनुकम्पा प्राप्त कर ली है, वह सब सारूप मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। उनके शरीर से ब्रह्म तेज पूफटकर निकलने लगता है। उसमें ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का भाव उदय होने की चरम दशा में तीसरा नेत्र खुल जाता है। वह त्रिकालदर्शी हो जाता है।
स्वर्ग में सुख ही सुख है जिसे छोड़ने का ख्याल ही नहीं उठता। इसलिए देवता सुख के गुलाम हो जाते हैं। वहाँ मुक्ति कैसे सम्भव है।
नरक से भी मुक्ति नहीं होती। दोनों एक सिक्वे के दो पहलू हैं। नरक में दुःख ही दुःख है। आदमी दुःख का भी आदी हो जाता है। सुख की आकांक्षा मर जाती है। भगवान की कृपा से मनुष्य को सद्गुरु की प्राप्ति होती है। मनुष्य साधना करता है। जो मनुष्य होकर साधना नहीं करता यही आश्चर्य है। स्वर्ग में, नरक में साधना नहीं होती। साधना के लिए ही मानव शरीर है। मनुष्य इस विषम परिस्थिति में साधना नहीं करता है तो वह चमत्कारी है। जगत का सबसे बड़ा चमत्कार है कि कोई मनुष्य हो और साधक न हो। स्वर्ग में देवता होकर कोई साधक हो-यह आश्चर्य है। नरक में कोई हो, साधक हो यह आश्चर्य की बात होगी।
स्वर्ग-नरक हमारी कमाई है। तीसरा रास्ता कमाने का नहीं बल्कि गुरु कृपा से अर्जित करने का है-वह है-आपके भीतर जो परमात्मा छिपा है, वह आपका स्वभाव है। वह सदैव मौजूद ही है। जिस दिन स्वर्ग-नरक की तरफ जाना बंद करके स्वयं की तरफ जाना शुरू कर देते हैं, उस दिन लौटने की जरूरत नहीं है। गुरु की अनुकम्पा बरस जाएगी। भक्ति कहती है भर जाओ पूरे परमात्मा से। परमात्मा ही हमारे हृदय से धड़कने लगे। वही श्वासों में हो, वही विचारों में हो। सभी कुछ उसी में रूपांतरित हो जाएगा। प्रेममय हो जाएगा। परमात्ममय हो जाएगा। मुक्त हो जाएगा।
आप सभी के मध्य इतने दिन रहा। आपका अनुग्रह, भगवान की अनुकम्पा, दीदी के प्रेम से दूर होते मुझे अत्यन्त कष्टकर प्रतीत होता है। फिर भी अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ना ही है। अन्त में भगवान शिव ने आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान ने कहा-हे साधकों! स्वामी जी सिद्ध हैं। जगत हित में स्वेच्छा से गए हैं। आज्ञा चक्र से, सहस्रार से उठने वाली दोनों ओर की नाड़ियों का नाम वरुणा और अस्सी है। इसी स्थान को वाराणसी कहते हैं। स्वामी जी यहीं निवास करते हैं। यही स्थान मेरा काशी भी है, जहाँ मैं भी निवास करता हूँ। यहाँ जो प्राण त्यागते हैं उस योगी को मैं तारक मंत्र देकर अपना लोक प्रदान करता हूँ। जहाँ सूर्य चन्द्र की गति नहीं है।
स्वामी जी के लिए मेरी शुभकामना है। दिन भर मिलने, संवाद करने, विदाई में व्यतीत हो गया। कल सुबह ही पृथ्वी के लिए यात्रा करनी थी। रात्रि में मैंने अपने कक्ष में विश्राम किया। आँख खुलती है। सुबह अपने को गोमुख पाता हूँ। मैं उठकर इधर-उधर देखता हूँ। यहाँ तो लाल बाबा का आश्रम है। कौन सत्य है। यह या वह?
।। हरि ओम ।।
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –