ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी की राह मे,
ऐसे मोड़ भी आ जाते है
कई चीजों को सुलझाते – सुलझाते
हम ज़िन्दगी मे ही उलझ जाते है।
कई बार ऐसा होता है की
हम भय के साये मे जीने लगते है
दिल में दबाकर दर्द , होठों को सीने लगते है
क्यों होता है ऐसा कि
अपनों को खोने का डर सताने लगता है
दो पल की है ये ज़िन्दगी, यह अहसास कराने लगता है।
लबो पे मुस्कान लिए, जब देखती हूँ ज़िन्दगी को
वह राहों पे मेरी , धीरे – धीरे गुनगुना रही है
ज़िन्दगी भी एक सखी की तरह है
जो आँखमिचौली खेल मुस्कुरा रही है,
काफी अरसे के बाद अब आया है मुझे करार
वो मुझे धीरे-धीरे सहला रही है।
आखिर मैंने हिम्मत कर पूछ ही लिया ज़िन्दगी से –
क्यों इतना दर्द मिला मुझे मेरे हिस्से मे ?
वो मंद – मंद मुस्कुरा कर बोली –
“मैं ज़िन्दगी हूँ पगली , तुझे जीना सिखा रही हूँ”
नम्रता गुप्ता