योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म और कर्म है दिव्य
||श्री सद्गुरवे नमः||
श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष….
योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म और कर्म है दिव्य
सब योग है समाहित
कृष्ण में बहुत सम्भावना थी। हर समय नूतन थे। इनमें कुछ भी पुरातन नहीं। कहीं किसी से वायदा नहीं। किसी से पूर्वाग्रह नहीं। पूरी सृष्टि ही इनकी तरफ खिंचती चली आ रही है। ये केन्द्र बिन्दु हैं जिसके चारों तरफ जीव-जगत परिक्रमा कर रहा है। चक्कर काट रहा है। कभी पश्चाताप नहीं। कभी कोई चूक नहीं। कोई अपना नहीं। कोई पराया नहीं। सभी अपने हैं। ऐसा व्यक्तित्व बार-बार नहीं आता। बालक कृष्ण का जन्म कठोरतम जंजीरों से जकडे़ हुए मां-बाप द्वारा जेल की चहारदीवारी में काल-कोठरी में होता है। बालक मां के दूध से भी महरूम रह गया। मां-बाप का कोई प्यार-दुलार भी नहीं नसीब हुआ। दूसरे के घर छोड़ दिया गया। जन्म से ही संघर्षों में पला बालक धीरे-धीरे कदम रखने लगा। अभी ठीक से कदम भी नहीं रख पाया था कि मार डालने की साजिशों का दौर शुरू हो गया। एक के बाद एक योजनाएं बनने लगीं। कोई दूध पिलाने के बहाने जहर पिलाना चाहता है तो कोई बाल क्रीड़ा में मारना। यों तो मार डालने की तैयारी जन्म के काफी पहले से थी। इतनी सोची-समझी कृति तो भेड़-बकरियों या कुत्ते के बच्चों के साथ भी नहीं होती। ये सृष्टि के ऐसे अनोखे बालक थे जिसे जब कभी भी मारने की कोशिश हुई तो यह और सशक्त होकर उससे बाहर आया तथा और निखार आ गया इसमें। वैसे ही जैसे सोने को जितना तपाया जाए उतना ही निखार आता है।
गोपालक श्रीकृष्ण
संघर्षों के दौर में ही जन्म हुआ तथा संघर्षों में ही बालक पृथ्वी पर कदम रखता है। ऐसे में बचपन से ही हाथ में डण्डा पकड़ा दिया गया। गाय चराने के लिए भेज दिये गये। लेखनी नहीं पकड़ाई गयी। स्कूल नहीं भेजा गया। चरवाही करवायी गयी। परन्तु इसमें भी पूर्ण उत्साह तथा लगन से जुट जाते हैं। बालकों का समूह है तथा गायों का झुण्ड। नन्दगांव से बरसाने का इलाका था। जहां वन-वन घूमकर गायें चराते थे। वहां की जमीन न तो उपजाऊ थी और न ही सिंचाई का कोई प्रबन्ध था। वहां जमीन आज भी ऊसर की तरह ही है। जीविका का साधन भी गौपालन ही था। कृष्ण अपने शैशव में ही गौपालन में लग गये। गायों से ही इनकी मित्रता हो जाती है, यारी हो जाती है। गौरुआरी में प्रवीण कृष्ण दिन भर वन-वन घूमते हैं तथा शाम को घर आते हैं। माखन, दूध, दही के साथ भात खाते हैं। अपनी इस दिनचर्या से कोई खिन्नता नहीं। कोई हीन भावना नहीं। बल्कि प्रसन्न हैं। इनकी प्रसन्नता से गायें भी प्रसन्न हैं। अब ये इनके बिना नहीं रह सकतीं। जिधर कृष्ण जाते हैं ये भी उधर ही चली जाती हैं। जहां बैठते हैं वहीं बैठती हैं। प्रेम में विह्नल हो गयी हैं। इनका दूध भी बढ़ गया है। स्वादिष्ट हो गया है, मानो अमृत हो। यह सब परिवर्तन एक आश्चर्यजनक घटना है। मानो नन्दगांव में दूध की नदी बह रही हो। सभी लोग अब आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ हो रहे थे।
आज के वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि जिस गाय को प्रेमपूर्वक खिलाया जायेगा, प्रेमपूर्वक सहलाया जायेगा, स्नान कराया जायेगा, उसका दूध बच्चे या रोगी के लिए अत्यन्त लाभकारी होगा। वहीं जिस गाय को मशीन की तरह बर्ताव करके रखा जायेगा। मशीन से दूध निकाला जायेगा उस दूध की तासीर अलग होगी। उसमें गुणात्मक परिवर्तन हो जायेगा। प्रेम से श्रद्धा से पाली पोसी गई गाय का दूध रोगियों के लिए दवा से भी ज्यादा लाभप्रद होगा। इसी तरह जो गाय कसाई के द्वारा पाली-पोसी जाएगी उसका दूध अनिष्टकारक तथा रोग उत्पन्न करने वाला होगा। फायदे की जगह नुकसान करने लगेगा। क्योंकि वह उसे खिलाए पिलाएगा तो ठीक, परन्तु ध्यान रहेगा उसके मांस पर।
कृष्ण के प्रेम से उन गायों में भी परिवर्तन हो गया। वे समय से बछडे़ देने लगीं। देर होने पर दूध निकलवाने के लिए चिल्लाने लगतीं। कृष्ण के खडे़ हो जाने मात्र से ही स्तन से दूध निकलने लगता। मानो कृष्ण ही उनके बच्चे हों। रोग, दुःख, कष्ट उस नगर से भागने लगे। सब लोग निरोग सबल एवं स्वथ्य होने लगे। यही कारण था कि पहले किसी को असाध्य रोग हो जाता तो उसे ठीक होने के लिए जंगल में गाय के साथ भेजा जाता था। वह व्यक्ति जंगल जाकर गाय की सेवा करता। गाय के ही उपले से खाना बनाता। दूध, दही तो खाता ही, उसके मूत्र का भी सेवन करता था। इससे कठिन, असाध्य से असाध्य रोग भी ठीक हो जाया करते थे।
एक व्यक्ति को गलित कुष्ठ हो गया था। इलाज कराकर थक गया था। उसके घर के लोग अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा बचाने के लिए उसे घर से निकाल दिये। करीब दस वर्ष पूर्व की घटना है। उसकी दशा देखकर भय लगता था। किसी तरह मेरे पास आया। मक्खियां भिनक रही थीं। शरीर से बदबू आ रही थी। कोई बात भी नहीं करना चाहता था। दो-तीन बार आत्महत्या का प्रयास किया था, किन्तु असफल रहा। मैंने उसे सांत्वना दी तथा धैर्य रखने की सलाह दी। मैंने कहा-कि तुम धर्म से चूक गये हो। अतः तुम गांव-नगर छोड़ दो। गांव में तुझे कोई नहीं रखेगा। परन्तु यह जान लो कि जो तुम्हें मरने नहीं देना चाहता, वह जिन्दा अवश्य रखेगा। भोजन भी अवश्य देगा। बछिया दी हुई एक दुधारू गाय ले लो। यदि काली मिल जाय तो और अच्छा है। तन-मन से उसकी सेवा करो। परन्तु एक जगह पर उसे नहीं रखना। जंगल में घुमाते रहो, चराते रहो। उसका दूध ही इस्तेमाल करो। उसके बाछी के मूत्र से घाव को दिन में कम से कम पांच बार धोओ। सबेरे खाली पेट वही मूत्र पी लो। पूरे दिन उसकी सेवा करो। ऐसी सेवा कि गाय तुम्हारे बिना कहीं जाये ही नहीं। तुम्हारे पीछे-पीछे चले। रात्रि में उसी के साथ सो भी जाओ।
वह बोला-स्वामी जी! मैं अब तो यह भी कर सकता हूं, परन्तु गाय कौन देगा? पत्नी व बच्चे तो अब मुझे देखने में भी पाप समझते हैं। मैंने कहा घबराओ मत। मैं प्रबन्ध कर देता हूं। एक गाय का इन्तजाम कर दिया। पचास रुपये दिये और कहा कि तुम इसे प्रणाम करो। इसकी पूजा करो। इसे ही अपना भगवान मानो, अपनी मां मानो, मित्र मानो, दवा मानो। जो भी मानना है अब यही है।
वह बेचारा गाय को लेकर निकल गया। बस्ती के बाहर ही रहता। कहीं कुछ अन्न मिल गया तो ठीक अन्यथा उपवास ही रह जाता। गाय के दूध तथा मूत्र पर ही जीवन-यापन करने लगा। सिर्फ छःमास में ही उसको लाभ महसूस होने लगा तथा साल लगते-लगते वह स्वस्थ्य हो गया। अब वह गाय वाला बाबा बन गया। जहां-जहां जाता गायें उसके पीछे-पीछे चल देतीं। जहां बैठता था वहीं गायें भी बैठ जातीं। धीरे-धीरे इनकी संख्या में वृद्धि भी हो गयी। इनके दूध देने की क्षमता भी बढ़ गयी, सभी शान्त हैं। गाय तथा बाबा में मित्रता स्थापित हो गयी। अब वह प्रसिद्ध हो गया है।
कृष्ण ने गाय से मित्रता स्थापित की तो ग्वाल-बाल भी मित्र बन गये। नन्दगांव की आर्थिक स्थिति में एकाएक परिवर्तन आ गया। मानो लक्ष्मी का निवास हो गया हो। गोबर होने लगा, अतः कृषि कार्य पर भी असर पड़ा। खेती भी होने लगी जिसके चलते देवताओं का आगमन भी शुरू हो गया। नन्द की बढ़ती सम्पन्नता से कंस चिन्तित हो गया। देवराज इन्द्र भी चिन्तित हो गये। कंस ने ईर्ष्या में आकर विभिन्न प्रकार के कर लगाना शुरू कर दिया। कर के रूप में दूध, दही, माखन की मांग की गयी। परन्तु कृष्ण ने मना करवा दिया। जो व्यक्ति लालच या भयवश कंस के यहां जाकर देना भी चाहता उसे कृष्ण अपने ग्वाल-बालों के साथ छीनकर खा जाते थे। गांव के लड़कों में बांट देते थे। नहीं मानने वालों की मटकी फोड़ दी जाती। इस तरह इनका संगठन मजबूत हो गया। सब शक्ति सम्पन्न होने लगे। यह देखकर कंस का क्रोध भड़क उठा। वह क्रोधाग्नि में जल उठा।
कृष्ण की गायों का दूध, दही तथा माखन खाने की इच्छा देवताओं को भी हो गई। वे इसे नन्दबाबा से यज्ञ के माध्यम से पाना चाहते थे। स्वयं देवेन्द्र नन्दबाबा के घर आए। नन्द देने को भी राजी हो गये। दिन तिथि तथा समय निश्चित हो गया। परन्तु कृष्ण ने इसका भी विरोध किया। यज्ञ के लिये एकत्र किया गया सामान ग्वाल-बालों में बांट दिए। जो बचा वह गायों को खिला दिये। अब इन्द्र का आक्रमण हो गया। उसका भी सामना हंसते-हंसते अपने बाल-सखाओं के साथ किए। अतिवृष्टि का पानी नालियों के द्वारा तालाबों में संचित किया गया। इससे कृषि कार्य में मदद मिली जंगल हरे-भरे हो गए। गायों को चरने के लिए हरी-हरी घास उपलब्ध हो गयी। इस कार्य से कृष्ण और चमक कर उभरे। गायों की संख्या बढ़ने के कारण उनके चरने के क्षेत्र का विस्तार भी कृष्ण द्वारा किया गया। अब नन्द गांव छोटा पड़ने लगा अतः वृन्दावन की तरफ चल दिये। बहुत समतल इलाका मिला। गायों को पीने के लिए यमुना का निर्मल जल मिला। वे अब वहीं रहने लगीं। कृष्ण भी ग्वाल-बालों के साथ जंगल में ही रहने लगे।
कृष्ण का महारास- मधुबन का रहस्य
गाने-बजाने के लिए भी कृष्ण ने स्थानीय तकनीक का ही प्रयोग किया। जो घुंघरू गायों के गले में बांधा जाता वही घुंघरू अपने पांवों में भी बांध लिए। बांस काटकर बांसुरी बना लिए। अब कृष्ण नाच उठे। ग्वाल-बाल भी नाच उठे। गाय-बछडे़ भी नाच उठे। सभी आनन्द मग्न हो उठे। अपनी सुध-बुध खो दिये। यह आनन्द धीरे-धीरे बाहर से भीतर भी जाने लगा। तन का त्रास समाप्त हो गया। जब तक तन का त्रास रहता है तभी तक ही काम, क्रोध, लोभ सताता है। अब साहब ही संग आ गया। परमपिता परमात्मा ही साथ चल रहा है तो त्रास कैसे आयेगी। सतलोक तो यहीं आ गया था। सभी हंस हो गये थे। हंस होते ही सभी के शरीर के सब अंग निर्मल हो गये थे। इसी सन्दर्भ में ही सद्गुरु कहते हैं-
जपो निज नाम त्रास नहीं मन में, साहब है तेरो संग।
सो हंसा सतलोक सिधारे, निर्मल जिनके अंग।।
यहां कृष्ण का रास शुरु होता है। उस रास में सभी निमग्न हो जाते हैं। इस रास की, इस आनन्द की, इस अनुभूति की चर्चा चलने लगती है। एक बार जो इस रास का स्वाद चख लेता है बार-बार चखना चाहता। उसे छोड़कर जाने की इच्छा नहीं होती। देवतागण जो द्वेष रखते थे वे भी अब रूप बदलकर आने लगे, इसमें सम्मिलित होने के लिए। साधु-सन्तों को भी इसमें आनन्द आने लगा। अपनी दाढ़ी-मूंछें कटवा लिये। ग्वाल-बाल बन गये। अब ग्वालों के साथ मिलकर ये भी गायें चराने लगे। नृत्य करने लगे। बांसुरी की धुन पर थिरकने लगे। योग-जाप भूल गये। धूनी रमाना भूल गये। कृष्ण के रंग में रंग गये। सभी लड़कियां गोपियां बन गयीं तथा सभी लड़के गोप। सबेरे ही गायों के साथ वन को निकल जाते। किसी को भी गाय चराने या गाय की सेवा करने में झिझक नहीं। अपितु उत्साह है, प्रेम है, आनन्द है इस काम में। सब मगन हैं।
प्रेम की धारा बह चली। वही धारा सुन्दर हो उठती है, सजीव हो उठती है-राधा के रूप में। कृष्ण के सान्निध्य में सभी सजीव हो उठते हैं। चैतन्य हो उठते हैं। पहले मरे-मरे-से मृतप्राय लग रहे थे। हीन भावना ग्रस्त थे। परन्तु अब आनन्द में हिलोरें ले रहे थे-क्या बच्चे, क्या बूढे़।
बाहर से कोई कितना भी नाचे-वह नाच अच्छा हो सकता है, रोचक हो सकता है, शास्त्राीय हो सकता है, परन्तु दिव्य नहीं हो सकता। दिव्यता तो आती है मन से। जब मन परमानन्द में हिलोरें लेने लगता है, तब वह नट की तरह थिरक उठता है।
कृष्ण से बड़ा नट कौन हो सकता है? ये प्रथम जाग्रत पुरुष थे जो हंसते रहे, नाचते रहे, मुस्कराते रहे। उसी हंसी और मुस्कराहट से विपत्ति भी सम्पत्ति में बदल गयी। मानो यहां कोई कष्ट नहीं। न कोई अट्टालिका है, न किला और न ही सुख-सुविधा का साधन। फिर भी जंगल में ही हंस रहे हैं। आनन्द हिलोरें ले रहा है। ऐसा आनन्द कि उसे पाने के लिये कोई अपना पति छोड़कर भाग रहा है तो कोई भाई छोड़कर। कोई अपना नवजात शिशु छोड़कर भाग रहा है तो कोई अपनी समाधि तोड़कर। कुछ लोग तो देव-लोक को भी छोड़कर यहां चरवाहा बनना ही श्रेयस्कर समझते हैं। यह वन रस से भर उठा है और वह रस कोई और रस नहीं बल्कि है मधुररस। अब यह हो गया ‘मधुबन।’
मन नाच रहा है नट की तरह। शरीर तो बाहर का दृश्य है। मन नाचेगा तो शरीर अपने आप नाचने लगेगा। थिरकने लगेगा। बाहर के ढोल की जरूरत नहीं है। ज्ञान का कपाट खुल गया। अज्ञान समाप्त हो गया। ज्ञान का ढोल बज गया। समय सीमा समाप्त हो गयी। अब यह ढोल निरन्तर बज रहा है-रात-दिन। इसी दिन-रात में महीना, वर्ष तथा कल्प भी समाहित है। मुरली स्पष्ट सुनाई पड़ रही है। यह शब्द सभी सुन रहे हैं, पशु-पक्षी, वृक्ष तक। फिर गोप-गोपियों का क्या पूछना। जिस नवग्रह से दुनिया कांपती है, क्योंकि राहु, केतु कष्ट देते हैं। वे यहां आकर तथा यहां के दृश्य को देखकर स्वयं कांपने लगते हैं। भयभीत हो जाते हैं। भाग खडे़ होते हैं। यम का भी पांव थम गया। मानो बांध दिया गया हो। इस महारास रूपी प्रेम की बाढ़ से सब बन्धन टूट गये हैं। बाढ़ आ गयी है। किसी को भी अपने तन-मन की सुधि नहीं। परमानन्द में बह चले हैं। ऐसी ही अवस्था में सदगुरु कबीर कहते हैं-
‘नाचु रे मेरा मन नट होई।
ज्ञान के ढोल बजाओ रैन दिन, शब्द सुनै सब कोई।
राहु, केतु नवग्रह कम्पै, यम घर बन्धन होई।।’
कृष्ण के हाथ में बांसुरी है। अधर पर बज रही है। गायें चर रही हैं। गोप-गोपियां नृत्य कर रही हैं। पूरा मधुबन ही थिरक रहा है। कर्म भी चल रहा है, साधना भी अपनी मंजिल पर पहुंच रही है। ठीक यही स्थिति कबीर के साथ है। हाथ से चरखा चल रहा है, मन भजन में मस्त है। सुरति साहब में लवलीन है। चादर परमात्म-प्रेम से सनी हुई है। प्रेम के धागे से बुनी हुई है। झोंपड़ी ही कर्म स्थल है तप स्थल है। प्रार्थना स्थल है। ग्राहक ही परमात्मा है। बाहर हाथ कार्य में हैं, भीतर अनहद वाद्य चल रहा है। यह ऐसा वाद्य है कि कभी बन्द नहीं होगा। मन्दिर का वाद्य तो समय पर बजता है तथा समय पर ही बन्द हो जाता है, परन्तु यह वाद्य तो अनवरत चलता ही रहता है। सूरत साहब पर लगी है। अतएव शब्द का नाद भी हो रहा है। प्रणव भी अपने आप हो रहा है। बिना किसी प्रकार के प्रयास से ही।
सद्गुरु कबीर ऐसी स्थिति में कहते हैं-
‘भगति भजन हरिनाम है, पूजा दु़ख अपार।’
सद्गुरु अब जगा दिया। जन्मों-जन्म की निद्रा टूट गयी। आलस्य विलीन हो गया। अन्धकार विलीन हो गया। सब चीजों का स्मरण भी विलीन हो गया। मात्र वही रह गया। श्वास-श्वास में उसी का स्मरण चल रहा है। जैसे चारों तरफ से वही घेरे हुए हो। अब दूसरे का भान ही नहीं होता। दूसरे का स्मरण ही दुःख का कारण है।
कबीर साहब का भगति शब्द बहुत प्यारा है। भोजपुरी और शुद्ध गंवई शब्द है। भक्ति प्रेम का ही शुद्ध शुद्धतम रूप है। प्रेम की तीन स्थितियां हैं। प्रथम है-काम वासना। दूसरा है-प्रेम तथा तीसरा रूप है-भक्ति का।
प्रथम स्थिति काम वासना से तो सभी परिचित हैं। काम यानि दूसरे से लेना। केवल लेने की कामना। वासना देती कुछ भी नहीं। केवल लेती है। मांगती है। प्रत्युत्तर नहीं देती। वासना शोषण है। कभी-कभी देने का बहाना भी करती है, परन्तु यह मात्र दिखावा है। अक्सर पति-पत्नी की शिकायत करता है तो पत्नी-पति की। एक-दूसरे की शिकवा-शिकायत ही करेंगे। यह प्रेम वासना पर आधारित है। वासना देना नहीं चाहती। वह तो कृपण है। शोषण करती है। इनकी स्थिति बिल्कुल उन दो भिखारियों की तरह है जो आपस में एक-दूसरे से मांग रहे हों। देने की हिम्मत किसी में नहीं है। दोनों कामातुर हैं। एक-दूसरे को देने का धोखा दे रहे हैं। यही कारण है कि काम वासना में लिप्त लोग अनिवार्यतः दुःखी हो जाते हैं। उन्हें सुख मिल ही नहीं सकता है।
आज के तथाकथित आधुनिक युग में पति-पत्नी का सम्बन्ध भी काम पर ही आधारित है। यदि थोड़ा-बहुत कभी कुछ देते भी हैं तो वह भी देने का ढोंग ही होता है। वैसे ही जैसे मछली पकड़ने के लिए कांटे में आटा लगा दिया जाता है। ऊपर से परमार्थ दिखाई पड़ रहा है, परन्तु वह किसी मछली का पेट भरने के लिए नहीं। अन्दर लोभ छिपा बैठा है कि मछली चारा खाने आएगी ही, कांटा उसे चुभेगा ही, अब हम मछली को ही खा जाएंगे। अतः यह दिखावा स्वार्थ से भरा है। नियति है एक-दूसरे को फंसाने की।
इसी प्रकार दूसरा भी होशियारी में है। उसने भी शिकार की तलाश में कांटें पर आटा लगा रखा है। वह भी अपनी बंशी नदी में डालकर ध्यान में है बगुले की तरह कि कब फंसेगी। दोनों मछली मार शिकारियों के कांटे एक-दूसरे के मुंह में ही फंस जाते हैं। अब मजबूरी में दोनों साथ-साथ रहने लगते हैं। यही है आधुनिक विवाह। दोनों एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं। ईर्ष्या में हैं, छल में हैं। आक्रामक मुद्रा में हैं। यहां आनन्द कैसे आ सकता है। गर्मी इतनी बढ़ गयी है कि पानी सूखकर भाप बन जाता है। नीचे बह कर आबादी को हरा-भरा करने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। पेड़ तो लगाया बबूल का तथा अपेक्षा करते हैं अंगूर की। नहीं मिला तो खट्टा कह दिया।
दूसरी स्थिति है-प्रेम। प्रेम यानि लेना-देना दोनों बराबर। न कम न ज्यादा। यह सौदा नगद का है। साफ-सुथरा है। यहां किसी का शोषण नहीं होता। यही कारण है कि प्रेम के ग्राहक आनन्द को नहीं उपलब्ध होते, परन्तु उसके दरवाजे तक अवश्य पहुंच जाते हैं। वह दरवाजा है शान्ति का। प्रेमी कभी शान्ति को प्राप्त करते हैं तो कभी अशान्ति, दुःख, चिन्ता तथा सन्ताप को। प्रेमी के जीवन में सन्तुलन बना रहता है।
प्रेम की घटना मित्रों के बीच घटती है। यदि पति-पत्नी भी मित्रवत हैं तो घटना घटती है। शान्ति आती है। वहां विवाद नहीं रह जाता। एक मैत्री रह जाती है। जब एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से मिलता है तो मौन हो जाता है। मिलने के पहले बहुत झगड़ने की सोचकर आता है। एक-दूसरे को उलाहना देने की सोचता है, परन्तु मिलते ही शान्त हो जाता है।
प्रेम की तीसरी स्थिति है-भक्ति। यह प्रेम की शुद्धतम स्थिति है। इसी भक्ति के सम्बन्ध में सद्गुरु कहते हैं कि यह देने में ही विश्वास रखता है। कभी अपने लिये नहीं मांगता। मुंह भी नहीं खोलता काम के ठीक विपरीत है भक्ति। अब कृष्ण के रास का अन्दाजा लगाया जा सकता है। कबीर के चरखा कातने का रहस्य समझा जा सकता है। लोई, कमाल तथा कमाली का रहस्य मिल सकता है। काम एवं भक्ति के मध्य का है प्रेम। कामी दुःखी है। भक्त प्रसन्न है। आनन्दित है। वहीं प्रेम शान्त है। प्रेम जब अनन्त की तरफ बह चलता है तो रोम-रोम शान्त हो जाता है। अब वह प्रेमी सन्त हो गया।
प्रेम जैसे ही आगे कदम रखता है-भक्ति उपलब्ध हो जाती है। अब वह अपने लिए कुछ भी नहीं बचाता। स्वयं को भी दे डालता है। देने वाले को भी नहीं छोड़ता। उसे भी दे डालता है। वह तो मात्र देना ही जानता है। यही है-समर्पण।
भक्ति कभी कुछ नहीं मांगती। न उसे स्वर्ग चाहिए न नरक। मांगना एवं भक्ति दोनों एक साथ नहीं टिक सकते। मांग के उठते ही भक्ति पतिता हो जाती है। वह काम हो जाती है। जितना परमात्मा ने दिया उतना भी दे दिया उसे तो यह भक्ति भक्ति नहीं है। यह प्रेम हो गया। जब अपने आपको पूरा का पूरा उंडे़ल दें तभी भक्ति है।
परन्तु भक्त को कुछ नहीं मिलता इस बात का धोखा मत खाना। यह धारणा बिल्कुल गलत होगी कि भक्ति एक घाटे का सौदा है। भक्त को जितना मिलता है उतना किसी को भी नहीं मिलता। बल्कि उसी को ही मिलता है। बिना मांगे मिलता है। वह अपने को बिना बचाये पूरा का पूरा दे देता है। इसीलिए पूर्ण परमात्मा ही मिल जाता है। यद्यपि उसकी भी इच्छा भक्त के मन में नहीं होती। उसकी चाह तो समाप्त हो गयी थी, परन्तु परमात्मा ही हाजिर हो जाता है।
भक्त कभी अहं में नहीं रहता। मांग में विश्वास नहीं करता। वह तो यही सोचता है कि यह पात्रता तो मुझमें थी ही नहीं। मैं तो इस योग्य था ही नहीं। उसने स्वीकार किया यही काफी है। जो मिल गया उसकी अनुकम्पा समझता है। कृपा मानता है। जो भी दे दिया पा लिया। अब परमात्मा बरस जाता है। बस जाता है उसके आंगन में। चारों तरफ से उसे आच्छादित कर लेता है।
‘भगति भजन हरि नाम है, पूजा दुःख अपार।’
यह भक्ति उद्यम के साथ चलती है। कबीर कभी किसी मन्दिर में नहीं गये। किसी तीर्थ में नहीं गये। कृष्ण गाय चराते-चराते ही आनन्द में डूब गये। वन ही मन्दिर बन गया। वे आजीवन किसी मन्दिर में नहीं गये। कहीं तथाकथित पूजा नहीं किये। जहां हैं वहीं मन्दिर बन गया। वही जगह पूज्य हो गयी। यदि पूजा ही करनी है तो पर्वत की कर लो उसी ने तो अतिवृष्टि की बाढ़ से बचाया था। सभी गायों तथा ग्वाल-बालों की रक्षा किया था। यदि पूजा आवश्यक है तो गाय की कर लो।
यह समृद्धि की प्रतीक है। जिसका मूत्र तथा गोबर से लेकर दूध, दही सब कुछ मानवोपयोगी है। कृषि की कल्पना भी गाय के बिना असम्भव लगती है। जमीन की उर्वरा शक्ति भी गाय के गोबर तथा मूत्र से ही आती है। खेत जोतने के लिए हल खींचने वाला चाहिए, जो गाय के बछडे़ से ही सम्भव है। भारतीय किसानों की बुनियाद ही गाय पर टिकी है। अतः इसकी पूजा सर्वथा उचित है। कृष्ण प्रथम महामानव है जो गाय की पूजा को ज्यादा उचित समझे बनिस्बत देवताओं की पूजा के। गाय का रोम-रोम पूज्य है। मानव सभ्यता और संस्कृति गाय की ऋणी है।
श्रीकृष्ण की प्रतिभा व पुरुषार्थ
पाण्डवों को हस्तिनापुर से अलग जो राज्य मिला वह था इन्द्रप्रस्थ, यानि वर्तमान दिल्ली। केवल पर्वत व पथरीली जमीन। यहां पर किसी पेड़-पौधे का भी विकास सम्भव नहीं था। कृष्ण के नेतृत्व में यह जमीन चुनौती के रूप में स्वीकार की गयी थी। कृष्ण के सान्निध्य में ही पाण्डव इस जमीन पर मेहनत किए। दिल्ली नगरी बस गई। हस्तिनापुर से भी सुन्दर, आकर्षक, भव्य, विशाल। पत्थरों पर ही पेड़-पौधे लहराने लगे। पत्थरों पर ही खुशी आ गई। सभी प्रसन्न हो गए। यमुना के किनारे धर्मराज एक किला बनवाए। जो आज खण्डहर के रूप में है तथा पुराने किले के नाम से जाना जाता है। उद्यम से यह नगरी पूरे विश्व में अनूठी हो गई।
व्यक्ति लगन से परिश्रम करता है तब उसका परिश्रम पवित्र होकर मधुर फल देता है-प्रेम का। व्यक्ति प्रेम से श्रद्धा से समर्पित होकर कार्य करता है तब फल लगता है-भक्ति का। भक्ति आते ही भगवान पीछे-पीछे चलने लगते हैं। भक्त का सुख ही भगवान का सुख है। भक्त का दुःख ही भगवान का दुःख है। भगवान ही सगुण रूप में भक्त हैं।
कृष्ण का जन्म होता है कारागार में। पालन-पोषण हुआ ऊसर में। कर्मस्थल था ऊसर, अनउपजाऊ क्षेत्र। उसके मित्र पाण्डवों को भी मिली ऊसर तथा पथरीली जमीन ही। मथुरा रमणीय था। नियोजित ढंग से बसाया गया था वहीं आरामपूर्वक रह सकते थे। लेकिन नहीं। उद्यमी व्यक्ति के लिए आराम तो आत्महत्या के समान है। कृष्ण जैसी प्रतिभा आराम कैसे कर सकती है। अब वे एक अन्य मरुस्थल में पहुंच गये थे। वह थी-द्वारिका। एक रेत का ढेर। जहां कुछ भी करने की सम्भावना नहीं, वहीं पहुंच गये। परन्तु इनका पुरुषार्थ यहां भी रंग लाया। पीने योग्य पानी तक उपलब्ध नहीं था। घास उगने लायक भी जमीन नहीं थी। कोई अपना भी नहीं था। परन्तु वहीं डेरा डाल लिए। तप्त बालुका में कृष्ण बलराम द्वारा परिश्रम शुरू हो गया। कोई हताश नहीं हुआ। किसी ने अपने भाग्य को नहीं कोसा। परमात्मा को गाली नहीं दिया। जीवन तो एक संघर्ष है। संघर्ष से क्या घबराना। विपत्ति को भी गले लगाये। बुरे को भी आत्मसात किये।
देखते ही देखते उस बालू के ढेर पर महल बनकर खड़ा हो गया। पूरी नगरी ऐसी बनी कि मानो विश्वकर्मा स्वयं अपने हाथ से बनाये हों। पूरे विश्व का एक अद्वितीय नगर बन गया यह। सभी सुख-सुविधायें उपलब्ध हो गयीं। मानव क्या देव-दनुज तक आश्चर्यचकित हो गये। विश्वास नहीं हो रहा था कि इस उपेक्षित जगह पर भी ऐसा हो सकता है। अब यही जमीन हीरे-मोती उगलने लगी। कृष्ण जीवनपर्यन्त पुरुषार्थ में लगे रहे। निकृष्टतम भूमि को ही अपना कर्म क्षेत्र बनाकर उसे ही सर्वश्रेष्ठ सिद्ध कर दिये। उन्होंने सिद्ध कर दिया-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते।’
कर्म करने का अधिकार है, परन्तु हम उससे सदा वंचित ही रहना चाहते हैं। कभी इसका उपयोग नहीं करते हैं। सदैव भगवान को ही बुलाते हैं। भाग्य, भगवान तथा देव को कोसना आलसी लोगों का कार्य है। पुरुषार्थी लोग तो अपने कर्म में लगे रहते हैं। उनके लिए क्या सफल और क्या असफल।
सुना हूं कृष्ण पढ़ने के लिए संदीपन ऋषि के आश्रम में गये। यह आश्रम अवंतिकापुरी में था जो आज का उज्जैन है। वहां कृष्ण की एक बुआ की शादी हुई थी। उसी खानदान से थे-संदीपन मुनि। उनका विद्यालय तब का सर्वश्रेष्ठ विद्यालय था। ऋषि आश्रम में सभी अपनी वय के अनुसार कर्म करते थे। क्षिप्रा नदी के तट पर आश्रम था। आज भी उनकी स्मृति में एक आश्रम बना है। मैं भी हो आया हूं।
अब वहां न कोई ऋषि है न श्रम। पुजारी है जो केवल यही बताने में व्यस्त रहता है कि यहां कृष्ण पढ़ने आये थे। ऋषि आश्रम में गायें थीं। विद्यार्थी उन्हें चराते थे, खिलाते थे। गुरु माता के साथ मिलकर सभी बालक भोजन बनाते थे। झाडू देते थे। उसी क्रम में उनको शिक्षा भी दी जाती थी। श्रम में किसी के साथ भेदभाव नहीं था। अमीर-गरीब जिस किसी को भी विद्यालय में दाखिला मिल गया वह समान रूप से श्रम करता था। खेती भी होती थी। अतः उससे अन्न मिल जाता था। फल-फूल, सब्जी का काम जंगल से चलता था भोजन पकाने के लिए लकड़ी भी जंगल से ही लाते थे बच्चे।
यहां सबको पता था कि कृष्ण राजकुमार हैं। फिर भी किसी प्रकार की विशिष्टता नहीं दी गयी। निर्धन-धनवान सभी के साथ-साथ रहने की व्यवस्था थी। इन्हीं निर्धनों में से एक थे-सुदामा। कृष्ण के सहपाठी थे। उम्र में बडे़ थे। पढ़ने में मन्दबुद्धि के थे। एक दिन गुरु आज्ञा से कृष्ण सुदामा के साथ लकड़ी काटने गये। जंगल जाते समय गुरुमाता ने सुदामा को दो मुट्ठी चने का भूजा दे दिया। सुदामा उम्र में बडे़ थे अतः उन्हें समझाते हुए बोलीं-बेटा सुदामा! कृष्ण तुमसे छोटा है। इसका ख्याल रखना भूख लगने पर चना उसे भी देना तथा तुम भी खा लेना।
दोनों गुरु भाई थे। सगे भाई से भी बढ़कर स्थान होता है गुरु भाइयों का। गुरु साथ-साथ ज्ञान देता है। ज्ञान दीपक हाथ में पकड़ाता है। अन्धेरा मिटाता है। दोनों प्रकाश के आलोक के भाई हैं। कृष्ण व सुदामा जंगल में बहुत दूर निकल गये सूखी लकड़ी की खोज में। काफी दूरी पर एक पेड़ पर कुछ सूखी लकड़ी मिली। सुदामा का फर्ज तो था पेड़ पर चढ़कर लकड़ी काटना बडे़ होने के नाते तथा कृष्ण को लकड़ी चुनने के लिए नीचे छोड़ देना। परन्तु आलसी आदमी सदैव ही मेहनत से बचने की तरकीब खोजता रहता है। उसे भोजन व विश्राम दोनों चाहिए प्रचुर मात्रा में। बहुधा आलसी व्यक्ति अधिक भोजन करते हैं, क्योंकि वे हमेशा खाने तथा आराम करने के बारे में सोचते रहते है। सुदामा भी ढूंढ़ लिये तरकीब। बोले-कृष्ण पेड़ ऊँचा है तथा तुम्हारा शरीर हल्का है, तुम आसानी से चढ़ सकते हो। अतः तुम्हीं चढ़ जाओ। लकड़ियां तोड़कर नीचे फेंकते जाना तथा मैं चुन-चुन कर इकट्ठा कर लूंगा। बण्डल बना लूंगा। दोनों काम एक साथ हो जायेंगे, हम लोग झटपट आश्रम लौट चलेंगे। लकड़ियां चुनने में ज्यादा समय लगता है। तोड़ना तो आसान है।
कृष्ण हंसते हुए बोले-‘हां भइया ठीक है। आप नीचे रहें। मैं पेड़ पर चढ़ता हूं।’ पेड़ पर चढ़कर लकड़ियां तोड़ना शुरू ही किये थे कि बादल घिर आए। चारों तरफ अन्धेरा छा गया। कृष्ण किसी तरह नीचे उतरे। अब वर्षा शुरू हो गयी। ठण्डक भी लगने लगी। भूख भी सताने लगी। सुदामा चुपचाप चना खाने लगे। कृष्ण बोले-‘भइया सुदामा भूख लगी है। आप चने लाये थे न?’ सुदामा बोले-‘नहीं कृष्ण चने कहां हैं।’
‘अरे भइया तुम खा रहे हो। तुम्हारे दांतों के दरेरने की आवाज आ रही है। एक मुट्ठी मुझे भी दे दो न। मैं भी तुम्हारा छोटा भाई हूं।’
सुदामा आलसी ही नहीं बेइमान भी था। अक्सर आलसी व्यक्ति बेईमान चोर तथा धूर्त हो जाते हैं। सुदामा बोले-‘नहीं कृष्ण! मैं चने थोडे़ खा रहा हूं। मुझे तो ठण्ड लग रही है तथा इसी कारण मेरे दांत बज रहे हैं। अपना पीताम्बर मुझे दे दो, ताकि उसे ओढ़कर अपनी ठण्ड मिटा सकूं।’
कृष्ण ने अपना पीताम्बर भी उसे दे दिया। अब सुदामा उसे ओढ़ कर अपने मुंह पर लगा लिये तथा छिपाकर बिना आवाज किये सारे के सारे चने खा गये।
बालक कृष्ण ठण्डक तथा भूख से जूझता रहा। यह सब प्रकृति को भी असह्य हो गया। तुरन्त बादल छंट गये। वर्षा रुक गयी। कृष्ण बोले-‘चलो भइया अब आश्रम चलें। गुरु परिवार इन्तजार कर रहे होंगे।’ सुदामा बोले-‘कृष्ण मुझे बहुत ठण्ड लग गयी है। शरीर में ताकत नहीं लग रही। किसी प्रकार लकड़ी का गट्ठर लेकर चल सको तो ठीक है।’ कृष्ण बोले-‘कोई बात नहीं भइया। तुम मत घबराओ। लकड़ी का गट्ठर मैं लेकर चलूंगा।’ गट्ठर उठवाकर कृष्ण के सिर पर रखवा दिये। लकड़ी लिये कृष्ण आश्रम पहुंच गये। भीगा हुआ शरीर, सिर पर गट्ठर, चेहरे पर कोमलता देखकर गुरुमाता द्रवित हो गयीं। दौड़कर गट्ठर उतारते हुए गोद में उठा लेती हैं। पुचकारते हुए बोलीं-‘बेटा ठण्ड लग गई है क्या?’
‘नहीं मां नहीं। ठण्डक तो सुदामा को लगी है।’
पीछे मुड़कर गुरु माता देखती हैं तो-सुदामा कृष्ण का पीताम्बर ओढ़कर धीरे-धीरे चला आ रहा है। उलाहने के स्वर में बोलीं-‘क्यों सुदामा! तुझे तो बड़ा भाई समझकर इसके साथ भेजी थी और तूने इसी के सिर पर गट्ठर लाद दिया। इसकी चादर भी ओढ़ लिया। क्या चने खाये बेटा कृष्ण!’
‘नहीं मां नहीं! चने कैसे पाऊँ। मां मुझे भूख लगी है। कुछ भी खिला दो।’
गुरुमाता अपनी गोद में बिठाकर कृष्ण को खाना खिलाती हैं। उन्होंने कृष्ण को गोद में लेकर खिलाया तो उनकी गोद भी भर गयी। वर्षों पहले भूला हुआ पुत्र मिल गया। कृष्ण को खिलाई अतः ऋद्धि-सिद्धि से घर भर गया। वहीं सुदामा लोभ-लालच में पड़कर कृष्ण का हिस्सा खा गया तो उसका हिस्सा प्रकृति छीन ली। दाने-दाने को मेाहताज हो गया। भोजन के लाले पड़ गये। कृष्ण का पीताम्बर ओढ़कर उन्हें भीगने तथा ठण्ड से लड़ने के लिए छोड़ दिया तो प्रकृति ने उनके शरीर से वस्त्र ही छीन लिया।
‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै, आप खाय औरों को दीजै।’
आप श्रम करते हैं, कुछ उद्यम करते हैं, धन उपार्जन करते हैं तो यह जरूरी है कि आप स्वयं के साथ-साथ दीन-दुखियों को भी भोजन प्रदान करते रहें, तो ही प्रकृति आपको कुछ लौटाती है। जब कभी आप दूसरे का हिस्सा छीनकर खा लेंगे तो प्रकृति आपको आपके हिस्से से भी विमुख कर देगी।
सुदामा उसी एक मुट्ठी चने का सूद जोड़कर तीन मुट्ठी चावल कृष्ण को अर्पित करते हैं। सुदामा सोच रहे हैं कि इसे आखिर देना ही पड़ा। प्रकृति तुरन्त सुदामा को उसी अनुपात में लौटाती है। सुदामा भी कृष्ण की तरह राजा बन गये। टूटी-पफूटी झोंपड़ी की जगह राजमहल ले लेता है। पत्नी फटी-पुरानी साड़ी की जगह राजरानी की साड़ी में सुशोभित हो जाती है। सुदामा की फटी धोती भी बदल जाती है।
श्रम में ही शक्ति है। उद्यम में ही लक्ष्मी है। त्याग से धन है। परिश्रम ही मीठा फल देने वाला होता है।
||हरि ॐ||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै से उद्धृत…
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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