पुनर्नवा

पुनर्नवा
कहते है उसे अमरलता
वो हर बार खुद को
नया कर लेती है।
झार कर पछाड
कर हरा हो लेती है,
उसे मिल जाता है
बहाना कोई भी,
नया सा खुद को
बना लेती है ,
पनप लेती है
वही जहां हर विरोध
उसका दंश लगता है।
वो सींच लेती है
आरोपों की उर्वरता
उसकी रूह को हरबार
नई नवेली कर जाती है।
वो देखती रहती है
पर नही देखती
उन्हें जिन्हे नहीं चाहती
आईने में कुछ हरपल
अपना अक्स यूं
संवारती है मानो
अमरलता हो ऐसे,
लिपट जाती है हर
बार जिंदगी से।
अपने समग्र की
जैसे तलाश हो
अपने अधूरेपन में
अपनी जड़ों से खुद
को सींच लेती है।
बेमौसम की बारिशों से
बेमतलब की नेमतों
और ख्वाहिशों से।
उसे नही भाता
क्या खोया क्या पाया
उसका हिसाब करे
ख्वाहिश है उसकी
वो अपने लिए
सबको माफ करे
चेहरे पर सुकून
और आंखों में इल्तेजा
बस इतना कोई
उसका हिसाब करे।।
@रेणु