फ़ितरत

फ़ितरत
पता होता चाँद को,
इतने क़द्रदान हैं, हमारे जमीन पर,
वो खुद पे इतरा रहा होता ।
उतर कर जमीन पर आता गर
तो ठोकरें खा रहा होता।
पहुँच के बाहर है तो पाने का जुनून ,
है पहुँच में तो, अपनाने का जुनून
इंसान की अजीब फ़ितरत है !
जो वैसा पसंद था,
अब उसी को बदलना है क्यूँ?
रंग बदलते देखा, उसने
अपनी ही गढ़ी तसवीर को
वो कलाकार खुदसे शर्मिंदा हुआ,
ये भला क्या नया रंग जिदां हुआ !
जब इल्म बढ़ता है,
तो आदमी झुकता है
जब शान बढ़ती है
तो तनता है,
मिट गया इंसान जो
खुद पे नुमाइंदा हुआ।
मीनू यतिन