वक्त
वक्त
आज बड़े अरसे बाद,
वक्त को थामा था मैंने,
मिलने उन बंद पन्नों से,
जिनमे छोड़ दिया था मैंने,
कुछ प्रश्नों को सुलझने।
समय को शिकायत थी,
वक्त जो हो गया था,
मुझे खुद से किये संवाद,
वक्त ने बड़े संयम से पूछा,
क्या सब अभी भी है साथ,
क्यों तुम में अब नहीं है वो बात,
खुद से किये वादे क्यों नही है तुम्हे याद।
क्योंकि असहाय और
अज्ञात हु मै,
स्वयं के व्यवहार से,
प्रश्न मुझे भी है,
अपने अंतर्मन के आचार से।
पर पहिया जो ये वक्त तुम्हारा है,
करे अज्ञात से अपेक्षा,
तुमने स्वयं न स्वीकारा है।
तो प्रश्न का तुम्हारे,
वक्त उत्तर नही मेरे पास है।
निरुतर रहने दो प्रश्न,
मेरी तुमसे बस अब यही एक आस है।
वैष्णवी सिंह