पता नहीं

पता नहीं
आरंभ से अंत में,
कभी मिलता कुछ भी नहीं,
और मिल भी जाए जो कभी,
ठहरता तो कुछ भी नहीं।
उसी रास्ते जाते थे ना स्कूल हम,
कब बदल गया वो रास्ता ये पता नहीं,
यार भी कई हैं मेरे,
बस कहां हैं सारे ये पता नहीं।
घर से निकलती हूं मां कहती हैं,
खाते-पीते रहना, आज खाया नहीं मैंने,
मां को मेरी ये पता नहीं,
आशीर्वाद तो है साथ बड़ों का,
वो रहेंगे साथ कब तक ये पता नहीं,
सफर तो चल ही रहा है,
कब से बस ये पता नही,
और निकले तो थे आज घर से,
वापस आयेंगे कब ये पता नहीं।
वैष्णवी सिंह
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