बाजार भीड़ से भरा था,
दो दिन में त्योहार आ पड़ा था।
चीजों के दाम आसमान छू रहे थे,
पर लोगों में जोश, उमड़ पड़ा था।
फागुन उफान पर था,
मौसम बदलने को, तैयार था।
रंगों का कारोबार,
बिकने को तैयार था।
बूढ़े बाबा के ठेले पर भी भीड़ उमड़ी थीं,
पर, रंगों के मोल भाव में, बाबा की
एक ना चली थी।
जो आता, वो ले जाता,
जितना उचित समझता, वह दाम दे जाता,
कुछ तो हाथ भी मार जाते,
एक पैकेट की कीमत में, दो उठा ले जाते,
मैंने सोचा बाबा को यह बात बताऊँ,
नुकसान होने से, उन्हें बचाऊं।
मैंने उन्हें यह बात बताई,
बाबा के चेहरे पर, मुस्कान उभर आई।
बेटा, तुम जैसे अब कम आते है
आदमियत को जो समझ पाते हैं।
मेरे जीवन के रंग, अब उजड़ चुके हैं।
इस बूढ़े पेड़ के, सब पत्ते झड़ चुके है।
शायद यह मेरी आखिरी होली हो,
इसलिए कम दाम में यह रंग बांटता हूँ।
जितना मिले, उतने में,
बचे दिन काटता हूँ।
लगा था कि उन्हें मोतियाबिंद था,
पर उनके हृदय में
एक महा समुद्र था।
हाथ जोड़, अपने रंगों की
पुड़िया उठाए, मैं निकल गया।
उस भीड़ में बाबा खो गए,
मैं भी खो गया।
दिनेश कुमार सिंह