विषम विचार
विषम विचार
सदैव से विषम विचारधराएं समरस प्रवाहित होती रहती हैं। जब सत्तासीन व्यक्ति भोगी, विलासी, सुख-सुविधभोगी तथा सत्तालोलुप हो जाता है तब अनाचार, व्यभिचार भ्रष्टाचार सिर पर चढ़ कर बोलने लगता है। रक्षक भक्षक बन जाते हैं। सत्तासीन व्यक्ति एवं उसके अधिकारीगण निरन्तर अपनी सुख-सुविधा एवं सुरक्षा की चिन्ता करते हैं। उसके रक्तिम दंत बाहर निकलने लगते हैं। हिंसक आँखें आक्रामक हो जाती हैं। जन साधारण दया का पात्र बनकर उपेक्षित जीवन जीने को विवश हो जाता है। सत्तासीन व्यक्ति केवल बातों के ही धनी हो जाते हैं। कर्म उनके वश का होता ही नहीं। जैसे ही कोई विचारक अपनी जायज माँगें रखता है, अपनी कठिनाइयों की तरफ शासक वर्ग का ध्यान आकर्षित करना चाहता है, तब वे निर्लज्जों की तरह झगड़ा कर बैठते हैं। इतना ही नहीं, अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर, उसका दमन कर देते हैं। चूँकि उनके पास शारीरिक शक्ति है। शस्त्र बल है। धन बल है। शासन के मद से मतवाले हैं। अतएव सामान्य विचारकों को, सामान्य जनता को अपना सभी कुछ उनके चरणों में समर्पित करना ही पड़ता है।
जन सामान्य का भीरू हो जाना, अत्यंत शोचनीय विषय है। मनीषी की वाणी का मौन हो जाना जनतंत्र का आत्मघात है। शासक वर्ग एवं उसके पक्षधर अशिष्टता का नग्न नृत्य करने लगते हैं। दिन दहाड़े हजारों लोगों की उपस्थिति में, भरे बाजार में, मुख्य चैराहे पर, किसी भी व्यक्ति का अपहरण कर लेते हैं। किसी को पीट देते हैं। किसी की भी हत्या कर देते हैं। महिलाओं को सामूहिक रूप से बेइज्जत करते हैं। उनका हरण कर लेते हैं। जन समुदाय खड़े-खड़े काठ के उल्लू की तरह देखने को मजबूर है। ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्य जन नैतिक सामाजिक भावनाओं से शून्य हतवीर्य, जड़, कायर हो गया है। वह संवेदना विहीन पाषाण मूर्ति हो गया है। जिसके सिर पर पड़ती है, वह स्वयं भुगत लेता है। बाकी अन्य व्यक्ति उन घटनाओं से उदासीन होकर स्वयं को बचाता है। वह अपने को किसी तरह बचा लेना ही बुद्धिमानी समझता है।
सत्ता-सुखवादी मनीषी, ऋषि प्रबुद्ध वर्ग के लोगों का, सत्ता का रक्त पीने के आदी हो जाते हैं। उनकी सारी प्रतिभा शासन एवं शासक वर्ग के पक्ष में सोचती है। नीति बनाती है। न्याय पक्ष अत्यंत दुर्बल, भीरू हो जाता है। अन्याय पक्ष अत्यंत शक्तिशाली, दुस्साहसी, दुश्चरित्र हो जाता है। जिससे सामान्य जन का विश्वास शासन, ऋषि, न्याय, भगवान से उठ जाता है। एक-एक दिन अपने बचने पर अपने को व भाग्य को सराहता है। अंतर्मन हाहाकार करता रहता है। जन सामान्य आशा एवं निराशा के बीच कभी अपने आस-पास, तो कभी आसमान की तरफ देखता है। क्या इससे छुटकारा मिल सकता है।
चोर, उचक्के, स्मगलर, अपहरणकर्ता ही सम्मानित समझे जाते हैं। ये कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। जो मन चाहे करते रहें एवं शासन, शासक को उसके प्रतिकार के लिए उपहार भेज दें। उनके अपराध का परिमार्जन ही नहीं होता बल्कि वे ही समाज-सेवक, त्यागी के रूप में शासन में सम्मिलित कर लिए जाते हैं। अब उन्हें मनमानी करने का लाइसेंस प्राप्त हो जाता है। वे देवत्व से, इन्द्र की गरिमा से सुशोभित हो जाते हैं। अब इनके मित्र शासन, प्रतिनिधि को पूर्व में ही सूचित कर देते हैं कि वे लोग, अमुक समय पर, अमुक स्थान पर, अमुक व्यक्ति का अपहरण करेंगे। हत्या करेंगे। ट्रेन, बैंक डकैती करेंगे। जिससे शासन प्रतिनिधि उस समय अपने सैनिकों को विपरीत दिशा में भेज देते हैं। इसके लिए उस प्रतिनिधि को भरपूर पुरस्कार मिलता है। वही राजा के द्वारा भी पुरस्कृत होता है। उसकी ही प्रोन्नति होती है। वही अधिकारी कर्मठ एवं सुयोग्य माना जाता है। सर्वत्र जन साधारण का शोषण ही व्यवसाय का रूप ले लेता है।
इस तरह के समाज का सभ्यता-संस्कृति से कोई वास्ता नहीं, बल्कि इसे किसी गहन जंगल में भरे हुए हिंसक पशुओं का साम्राज्य ही कहा जाएगा। एक तरफ फाइव स्टार होटल, स्वीमिंग पूल, रात्रि क्लब, जुआ घर, शराब घर, नृत्य गृह, आमोद-प्रमोद गृह, कैबरे डांस जैसी जगहों का निर्माण होता है। जिसमें समाज के तथाकथित रईस, शहजादे, अधिकारियों की भीड़ होती है। जैसे-जैसे रात्रि का अंधकार बढ़ता है, नग्न बहु-बेटियों के साथ ये लोग थिरकने का आनन्द लेते हैं। काला धंधा तथा इस धंधे में लगे लोगों का ही वर्चस्व रहता है।
ये लोग पुण्यात्मा भी कहलाते हैं। चूँकि ये ही भू-माफिया होते हैं। जन साधारण की जमीन दखल कर रातों-रात देव मंदिर बना लिए जाते हैं। इनके ही सहोदर पंडित बनकर बैठ जाते हैं। मंत्र-जाप शुरू हो जाता है। भवन में बंद भगवान की चमत्कार कथा सुबह के अखबारों में भरी रहती है। सभी वी.आई.पी.की गाड़ियाँ उस भगवान के यहाँ रुकती हैं। जिसके पीछे संन्यासी का अड्डा भी निर्मित हो जाता है। ये मनु भगवान मिलकर दानवता का अट्टाहास करते हैं। जिसमें जन-साधारण का करुण क्रंदन छिप जाता है। मिट जाता है। यह विचित्र विडम्बना है कि वे ही एक हाथ से हत्या करते हैं। वे ही संसद में बैठकर न्यायिक जाँच का आदेश देते हैं। वे ही न्याय की कुर्सी पर बैठकर न्याय की फरियाद सुनते एवं फैसला भी करते हैं। उनकी पहुँच एवं हाथ कलियुग के भगवान से कहीं ज्यादा हैं। जन मानस मूकदर्शक बनकर रह जाता है या अपनी प्रतिष्ठा, अपनी मांस रहित हड्डी बचाने के लिए उन्हीं का अनुगामी बन जाता है। पापाचार, भ्रष्टाचार ही उनका सुदर्शन चक्र बन जाता है।
दूसरी तरफ एकाध व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिनके मन में कसक है, पीड़ा है। इस अत्याचार के विरोध में खड़े होने के लिए जनता में प्राण फूँकने की कोशिश करते हैं। अपनी छोटी-सी झोपड़ी में ही लोगों के चाल-चरित्र, चिंतन व विचार को प्रबाध गति प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु इनकी संख्या नगण्य है। अतएव इन्हें सनकी, पागल, विक्षिप्त, अधर्मी, समाज-विरोधी कहकर समाज से अलग-थलग कर दिया जाता है। इनके सान्निध्य में रहने वाले लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है। जिससे उनका कोई सहचर नहीं बनता। यदि क्रांतिवश, विशेष सोचवश बन भी जाता है तो उसे दुःख व मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। जो असहनीय हो जाता है। वह बेचारा अपनी अल्पायु में ही मृत्यु को उपलब्ध हो जाता है या उनका साथ छोड़कर सदा के लिए भाग खड़ा होता है। जो एकाध किसी कारण से साथ रहता भी है तो उन्हें निरंतर उलाहना देता रहता है। आपके साथ कौन रहेगा? आप ऋषि नहीं हैं। आप महात्मा हो ही नहीं सकते। आप तो महात्मा, संत बनने का ढोंग करते हैं। यदि आप सचमुच महात्मा होते तो आपके पास भी भीड़ होती। आपके पास भी राजा आते, मंत्री आते, अधिकारी आते, जैसे अन्यों के यहाँ भीड़ होती है। आपको समाज से क्या मतलब? समाज अन्य को क्या देगा? ये दीन-हीन, दरिद्र, जिन्हें अपने खाने को नहीं, उन्हीं की आप चिन्ता करते हो। परमात्मा न्यायकर्ता है। उनके साथ न्याय किया है। जो उनके साथ रहेगा, साथ देगा, वह परमात्मा का दुश्मन होगा, उसे अवश्य दण्ड मिलेगा। अतएव गरीबों, दलितों की चिन्ता छोड़ दें गुरुवर! हमें आगे के समाज के साथ मिलकर चलना ही होगा। इसी में हम लोगों की भलाई है। अन्यथा अपना प्रवचन इन्हीं वृक्षों को सुनाते रहिए।
जो भी चतुर ऋषि हैं- वे राज गुरु, राज पुरोहित बन गए हैं। जो राजगुरु नहीं बन सके उसने राजा को ही भगवान का अवतार मानकर उनकी पूजा-अर्चना करना शुरू कर दिया। कुछ ऋषि उनके पक्ष में जनमानस के मन बुद्धि में धारणा पैदा करने लगे। वही आज के सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। वही ऋषि त्रिकालदर्शी हैं। वे मात्र राजा के इशारे को समझकर अपना नीति-निर्णय बदल देते हैं। अतएव राजा अपनी परिषद् में उन्हें ही त्रिकालज्ञ की उपाधि से विभूषित कर देता है। धन-धान्य से उन्हें भर देता है। उनका आश्रम स्वर्ग की अप्सराओं से, स्वर्गिक सुख से भरा रहता है। उनके दर्शन के लिए लोगों को हफ़्तों इंतजार करना पड़ता है। तब कहीं विशिष्ट जन मिल पाते हैं। जन साधारण को तो वे दर्शन ही नहीं देते। कहीं अपने वाहन से जा रहे हैं, तभी भाग्यवानों को, एक झलक दर्शन दे देते हैं जिससे दर्शनार्थी का भाग्य बदल जाता। यह सब परमात्मा की ही लीला है। अतएव उसकी लीला में हम लोगों का सम्मिलित हो जाना ही उचित है।
राज्याश्रयी ऋषियों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती रहती है। ये लोग राज्य का आश्रम छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं जा सकते। जैसे कुत्ते की अंढ़ई, यदि उसे कुत्ते से अलग करेंगे तो वह तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। वह तो कुत्ते का खून पीने की एवं सुरक्षित रहने की आदी बन गई है।
राज्य या देश की खराब नीतियों के खिलाफ बोलने वाले ऋषि की, राज्यपोषित ऋषि निन्दा ही नहीं करते बल्कि दमन भी करते हैं। राज्य प्रदत्त शक्तियाँ (सिद्धियाँ) इनका साथ देती हैं। राज्य प्रदत्त विद्या (सरस्वती) पत्र-पत्रिका इन्हीं को पालती हैं। विद्रोही ऋषि के विरोध में विष वमन करती हैं। जिससे बाध्य होकर ऐसे ऋषि राज्य से, देश से निष्कासित होते या किए जाते हैं। ये कभी परिस्थिति से, अपने सिद्धांत से समझौता नहीं करते, बल्कि अनवरत अपने उद्देश्य की तरफ बढ़ते ही जाते हैं। भले ही इन्हें संकटपूर्ण एकाकी जीवन ही बिताना पड़ता है। समाज इन्हें हेय दृष्टि से देखता है, फिर भी ये धुन के पक्के, लौह पुरुष के सदृश विपरीत परिस्थिति में जीना ही अपना सौभाग्य समझ लेते हैं। सत्य का, धर्म का, प्रेम का, सम्यक दृष्टि का रास्ता नहीं छोड़ते। ये पत्थर को पानी में बदलने का अदम्य साहस रखते हैं। दलितों, उपेक्षितों, निराश्रितों में ही परमात्मा देखते हैं। उनकी सेवा ही परमात्मा की सेवा समझते हैं।
||हरि ॐ||
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति मेरे राम से उद्धृत….
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –