लोक परलोक का रहस्य
||श्री सद्गुरवे नमः||
लोक परलोक का रहस्य
इस विश्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र आत्मा का अस्तित्व है| कोई भी लोक या स्थान ऐसा नहीं है; जहाँ आत्मा की उपस्थिति नहीं है| आत्म सत्ता विभिन्न रूपों में सर्वत्र व्याप्त है| मैं कुण्डलिनी जागरण में सात शरीरों का वर्णन कर चुका हूँ| स्थूल जगत से लेकर निर्माण जगत पर्यन्त एक ही आत्मा अपने कर्म-संस्कार और अपनी उपलब्धियों के अनुसार विभिन्न नाम रूप और विभिन्न संज्ञा धारण करती है| वह अपनी योग्यता के अनुसार स्वयं अपने लिए जगत या परलोक का चुनाव कर लिया करती है| वह स्थूल जगत में मनुष्यात्मा, भाव जगत में प्रेतात्मा और सूक्ष्म जगत में सूक्षात्मा कहलाती है| इस लोक में जीवात्मा, आत्मा एवं निर्माण जगत में दिव्यात्मा और विशुद्धात्मा कहलाती है|
स्थूल, भाव और सूक्ष्म लोक में दो प्रकार की आत्माएँ निवास करती हैं| प्रथम- जो वहाँ की स्थायी निवासिनी हैं, दूसरी- जो वहाँ अन्य लोकों से आई हैं| अपने संस्कारवश कुछ समय निवास करने के बाद नीचे के लोकों में उतर जाती हैं या ऊपर के किसी लोक में चली जाती हैं| आपको जिस लोक की याद करनी है, उसी शरीर को धारण करना पड़ेगा| फिर आप बिना रोक टोक सम्पूर्ण लोक परलोक का परिभ्रमण कर सकते हैं| आपके सामने सारी सृष्टि का रहस्य खुल जायेगा|
इस विश्व ब्रह्माण्ड में तीन महत्वपूर्ण शक्तियाँ हैं| प्रथम- प्राण शक्ति| स्थूल जगत के शरीरधारी प्राणशक्ति से ही नियंत्रित होते हैं| रोग-कष्ट प्राण शक्ति का अनियंता है| रोग मुक्ति प्राण का नियंत्रण है| प्राणायाम का मूल केंद्र प्राण ही है| श्वास प्राण को ढोता है| दूसरी है- मन शक्ति| आपके द्वारा किया गया पूजा-पाठ, मन्त्र जाप का प्रभाव व मन को नियंत्रित करना| मन का विखण्डन ही शक्तिहीनता है| मन का नियंत्रण ही शक्ति का प्रतीक है| तीसरी है- आत्म शक्ति| यह शक्ति सर्वोपरि है| मन गिर जाता है| आत्मा ही इस शरीर की मालिक है| जैसे ही आप आत्म शक्ति से परिचित हो जाते हैं; आप आनंद से भर जायेंगे| फिर आपको किसी भी तरह से कष्ट नहीं दिया जा सकता है| स्थूल, भाव, सूक्ष्म जगत में प्राणशक्ति क्रिया शक्ति है| मनोमय लोक में मन शक्ति की प्रबलता है| इसके ऊपर अन्य लोक आत्म शक्ति का क्षेत्र है|
आत्म लोक पूर्णतः स्वतन्त्र एवं पूर्ण अनुशासित हैं| ऐसा प्रतीत होता है जैसे सभी कार्य स्वतः सम्पादित हो रहे हैं| यहाँ वार्ता के लिए न वाणी की आवश्यकता है, न भूख के लिए अन्न की, न श्रवण हेतु कान की| सभी संतुष्ट हैं| सभी आनंदित हैं|
यक्ष रक्ष एवं आर्य
सन् 1994 का जून का महीना था| मैं अपने दिल्ली वाले आश्रम के नवनिर्मित छोटे से कक्ष में बैठा था| एक शिष्य ने आकर सूचना दी- दो व्यक्ति मिलना चाहते हैं| मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया| पूर्व परिचित युवक-युवती प्रणाम कर बैठ गए| मैंने उनका समाचार पूछा| नागराज एक सुन्दर युवक था| व्यापारी था| प्रेम विवाह किया था| पति-पत्नी दोनों मेरे प्रिय थे| कहा- “गुरुदेव हमदोनों परिभ्रमण को गए थे| एक हिमालय के शिखर पर घूम रहे थे| बर्फ की ठंडक का, सुन्दरता का आनंद ले रहे थे| दूर-दूर तक कोई नहीं था| हमारी पत्नी रीतिका अति उमंग में आगे निकल गयी| मैं भी भाव-विभोर होकर उसे भूलकर एक चट्टान पर बैठ गया| कुछ देर बाद याद आया कि वह किधर गयी? फिर मैं उसका नाम लेकर जोर-जोर से पुकारता हुआ आगे बढ़ा| दूर-दूर तक वह दिखाई नहीं दी| मेरा दिल धक-धक करने लगा| लगभग एक फर्लांग आगे जाने पर यह बेहोश पड़ी हुई दिखाई दी| मैं इस स्थिति के लिए तैयार नहीं था| इसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे, ठीक किये| बहुत हिलाया-डुलाया, कुछ नहीं बोली| फिर अपनी पीठ पर लादकर लौट चला| किसी तरह होटल में आया| इसे डॉक्टर को दिखाया| दो दिन के बाद होश में आई| मैं अपनी यात्रा छोड़कर दिल्ली लौट आया| इसकी आँखों से कम दिखाई देने लगा है|
डॉक्टरों को रोग समझ में नहीं आ रहा है| तांत्रिक-मान्त्रिक को दिखाया तो यह उसे ऐसा तमाचा लगाती है कि तांत्रिक भाग जायेगा| इसके शरीर में अपूर्व शक्ति आ गयी है|”
मैं मन ही मन समझ गया| मैंने कहा- “तुम दोनों नौजवान हो| अति सुन्दर हो| किसने कहा कि हिमालय के एकांत क्षेत्र में अकेले भ्रमण करो|” मैंने अपने कमण्डल से जल लेकर रीतिका के सिर पर फेंक दिया| उसकी आँखें खुल गईं| वह सामान्य होकर बोली- “गुरुदेव! मैं हिमालय की सुन्दरता से मुग्ध हो बढ़ रही थी| अचानक मेरे आस-पास इत्र की खुशबू महकने लगी| मैं धीरे- धीरे मदहोश हो गयी| मेरे शरीर से एक विचित्र परन्तु मोहक व्यक्ति खेलने लगा| ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे मैं उन्मुक्त हो स्वछन्दता पूर्वक उससे आबद्ध हो गयी| फिर मुझे याद नहीं| मैं बेहोश हो गयी| मैं दिल्ली अपने निवास में जहाँ सोती हूँ, वह प्रति रात्रि पहुँच जाता है| मेरा कक्ष गुलाबी इत्र से महक उठता है| मेरे कक्ष से स्वतः ये निकलकर दूसरे कक्ष में चले जाते हैं| वह जी भरकर हमारे शरीर से खेलता है| मैं भी उसका साथ देती हूँ| जैसे मैं स्वप्नलोक की परी हूँ| प्रातः होते ही रात्रि की घटना से काँप उठती हूँ| आप मेरी रक्षा करें, आपकी पुत्री हूँ|”
मैंने जल अभिमंत्रित कर उसके ऊपर छोड़ दिया| तत्क्षण वह काँपने लगी| आँखें लाल हो गयीं|
उसने झुक कर प्रणाम किया| मैंने पूछा- “तुम कौन हो?” वह नम्र शब्दों में पुरुष की तरह बोली- गुरुदेव! मुझे क्षमा कर दें| मैं यक्ष हूँ| मैंने उसे डाँटते हुए बोला- इसे क्यों तंग करता है? “ये मेरे निवास स्थान पर घूम रही थी| इसकी सुन्दरता देखकर मैं मुग्ध हो गया और फिर इसे इत्र से स्नान कराया| प्रेम किया| यह पूर्व जन्म से ही मेरी प्रेमिका है| उसी प्रेम के वशीभूत होकर अपने पूर्व के स्थान पर निर्भीक घूमने आई थी| मैंने तत्क्षण पहचान लिया| बस इसके प्रेम में पागल हो गया| इसके साथ दिल्ली आ गया|”
तुम्हारा नाम क्या है? कहा- “मेरा नाम यक्ष कामरू है| मैं यक्षपति कुबेर के कुल का हूँ| गुरुदेव! आपसे मुझ्रे भय लगता है| आप मुझे छोड़ दें| आप हम पर कृपा करें|” प्रार्थना करते हुए उसने हमारे पैर पकड़ लिए|
मैंने डाँटते हुए कहा, “पहले तुम दूर हटकर बैठो|” वह दूर हटकर बैठ गयी|
तुम्हारी प्रेमिका कैसे है?
गुरुदेव! आज से मात्र एक सौ पचास वर्ष पहले यह गणपति डौडियाल की पुत्री थी| इसके पिता तांत्रिक थे| यक्ष साधना में प्रवीण थे| यह उनकी एकमात्र संतान थी| अति सुन्दर और चंचल थी| मैंने इसके पिता पर प्रसन्न हिकार बहुत सी तांत्रिक विद्यायें प्रदान कीं| वे हमसे असंभव भी संभव कराते थे| मैं इसके रुप पर मुग्ध था| इसके पिता से मैंने इसे दान स्वरूप माँग लिया| इसके पिता सांसारिक समृद्धि एवं चमत्कार के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर रहते थे| उन्होंने तत्क्षण इसे मुझे अर्पित कर दिया| तब से यह मेरे साथ रहती थी| इसके बदले इसके पिता को धन-दौलत, ख्याति, ऐश्वर्य सभी कुछ प्रदान किया| इसके पिता की ख्याति देखकर इसके ही चाचा ने से तंत्र विद्या से मार दिया| वह अपने चाचा को बहुत मानती थी| उसने अभिचार कर तीन दिन इसे खिलाया| मार दिया| मैं उस समय कैलाश पर्वत पर था| एक माह के बाद आया तो इसे न पाकर दुखी हुआ| इसके पिता से सभी कुछ ज्ञात हुआ| इसके पिता से मैंने भी अभिचार करा इसके चाचा हरिहर डौडियाल को भी मार दिया| वह अभी भी प्रेत योनि में भटक रहा है| कालांतर इसके माता पिता की भी मृत्यु हो गयी| अंतर्मन में अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम बैठा था| वही प्रेम इसे वहाँ खीँच ले गया; जिस स्थान पर मैं रहता हूँ| यह स्वतः पहुँच गयी| मैं इसे एकाएक देखकर प्रसन्न हो गया|
गुरुदेव आप जो कुछ कहेंगे, मैं करूँगा| आप इसे अपने आश्रम से बाहर कर दें| मेरे साथ रहने की अनुमति दे दें| इस संसार का असंभव कार्य भी आपके लिए मैं तत्काल संभव कर दूँगा|
मैंने कहा, तुम तत्काल इसे छोड़ दो| वह छाती पीट-पीट कर रोने लगा| दया की भीख माँगने लगा| बदले में सभी कुछ देने को तैयार हो गया| मैं उसे जोर से डाँटते हुए बोला, अरे दुष्ट! तुम मुझे जानते हो?
वह प्रार्थना करते हुए बोला, “गुरुदेव! आपको लोक-परलोक में कौन नहीं जानता है| आप समय के सद्गुरु हैं| जगत उद्धार हेतु आपका आगमन आपके आसपास स्वतः होने लगा है| कोई देव-देवी भी आपके इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है, परन्तु आप अति दृढ़ संकल्पित हैं| अपने स्वार्थ-पूर्ति हेतु तो आप कुछ भी नहीं कर सकते| जगत-हित उद्धार ही आपका ऊद्देश्य सद्विप्र समाज की रचना ही आपकी कामना है|” वह एक स्वर में ही कह गया| यह आपका साथ नहीं देगी| स्वार्थपूर्ति हेतु यह आपकी पुत्री बनी है|
मैंने कहा, “यक्षराज यह मेरी मानस पुत्री है| आप इसे भूल जायें| बदले में आप कुछ भी माँग लो|” वह बहुत देर तक मौन रहा| फिर आर्त्त भाव में बोला, “ठीक है| मैं भी इस योनि में ऊब गया हूँ| आप मेरा भी उद्धार करें|”
“ठीक है| तुम्हारा उद्धार करूँगा| तुम अभी यहीं रुक जाओ| मैं तुमसे कुछ प्रश्न करूँगा| एक-दो माह तुम हमारे साथ रहो| फिर तुम्हें दीक्षा प्रदान करूँगा| इसके बाद तुम भक्ति करो| तुम्हारा उद्धार हो जायेगा| तुम मनुष्य योनि चाहते हो या देव योनि| किस योनि में जाना चाहते हो?”
“मैं मनुष्य योनि में ही जन्म लेना चाहता हूँ| यदि सम्भव हो तो इसी का पुत्र होकर जन्म लूँ या आप जैसा उचित समझें| ऐसा जन्म लूँ कि मैं भक्ति भाव से आपकी आराधना करते हुए मुक्त हो जाऊँ| संसार में जाकर वासना के चक्कर में न पडूँ| शादी-वासना का चक्कर ऐसा है कि बड़े-बड़े देवता- दानव- फ़क़ीर जन्म लेते हैं| पढ़ते हैं, शादी करते हैं, नौकरी करते हैं| फिर अपने पूर्व के कर्मों को भूल जाते हैं| पत्नी-पुत्र, संसार ही सत्य प्रतीत होने लगता है| गुरु-गोविन्द मिथ्या प्रतीत होते हैं| वे दलदल में फँसते जाते हैं| वे देखते हैं कि भगवान् शिव की बगल में भवानी बैठी हैं| विष्णु की बगल में लक्ष्मी, ब्रह्मा की बगल में सरस्वती; परन्तु यह भूल जाते हैं कि यह पद कितने जन्मों का फल है| इस पद से गिरने पर अधोगति होती है| शिव के साथ नंदी है| विष्णु के साथ नारद हैं| ब्रह्मा के साथ सनत- सनत कुमार हैं| जो धर्म प्रचारक हैं| ब्रह्मचारी हैं| राम-सीता के साथ हनुमान हैं| ये अवतारी पुरुष अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु आते हैं| सांसारिक लोग जनक, अत्रि, कश्यप के बाहरी रूप को देखते हैं| उनके आतंरिक रूप को नहीं देख पाते| वे मोह से ग्रसित होकर अधोगमन को प्राप्त होते हैं| अतएव आप इस मोह से मेरी रक्षा करें| मैं आपके साथ रहकर सद्विप्र समाज की सेवा कर मुक्त हो जाऊँ| यही मेरा ऊद्देश्य है| कहीं भटक न जाऊँ|”
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समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘लोक परलोक’ से उद्धृत….
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –