पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन के प्रश्नों पर भगवान् श्रीकृष्ण का निश्चय मत
गुरुदेव द्वारा ‘गीता’ पर विशेष व्याख्या
पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन के प्रश्नों पर भगवान् श्रीकृष्ण का निश्चय मत
प्रिय आत्मन्,
आज हम गीता के अठारहवें अध्याय के 4, 5, 6 श्लोकों पर विचार करेंगे|
भगवान् कृष्ण कहते हैं-
त्याग के तीन भेद- सात्त्विक, राजसिक, तामसिक
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम|
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः|| ४ ||
पदच्छेद अन्वय –
निश्चयम् शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम|
त्यागः हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः|| ४ ||
पुरुषव्याघ्र = हे पुरुषश्रेष्ठ, भरतसत्तम = अर्जुन, तत्र = संन्यास और त्याग – इन दोनों में से पहले, त्यागे = त्याग के विषय में (तू), मे = मेरा, निश्चयम् = निश्चय, शृणु = सुन !, हि = क्योंकि, त्यागः = त्याग (सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से), त्रिविधः = तीन प्रकार का, सम्प्रकीर्तितः =
कहा गया है|
हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन| क्योंकि त्याग सात्त्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है|| ४ ||
यहाँ पर भगवान् कृष्ण अर्जुन को ‘पुरुषश्रेष्ठ’ कह रहे हैं| गीता आज 5000 वर्षों के बाद भी उतनी ही सार्थक है, इसलिए कि समय-समय पर इसका अर्थ जो है, परिमार्जित होते रहता है| कुरान, बाइबिल में जरा भी हेर-फेर कोई नहीं कर सकता है| जो लिख दिया गया, ब्रह्मलेख हो गया| इसलिए हो सकता है कि आज से कुछ दिन के बाद वह मर जाए| लेकिन गीता जीवन्त है| ‘समय का सद्गुरु’ जब आता है, उस समय के अनुसार गीता का अर्थ वह करता है| इसलिए गीता की जीवन्तता बनी रही है, गीता रूपी ज्ञान मन्दाकिनी का सतत् धारा प्रवाह बना रहा है| तो देखो, समय के प्रवाह के साथ गीता का अर्थ अब हम भी एक नए ढंग से कर रहे हैं और तुमलोग सुन रहे हो! इसलिए इसकी जीवन्तता बनी रहेगी|
हर समय आदमी की स्थिति बदलती रहती है| पहले पुरुष राम और कृष्ण के समय में यह गहना पहनता था- आभूषण| आज यदि पुरुष गहना पहनकर निकले तो हास्यास्पद हो जाएगा! आप भगवान कृष्ण के कान में देखोगे- बाली, कुण्डल| छोड़ो, वह तो बहुत पहले की बात है, हमलोगों का भी कान छेदा गया था बचपन में| बाली लटकाया गया था| उस समय हमलोगों के परिवार में एक आदमी कमाता था, दस आदमी खाने वाले थे और परिवार बड़े मजे में चलता था| आज पति-पत्नी, लड़का-लड़की- सब कमा रहे हैं| प्रत्येक एक-एक लाख रुपया महीना कमा रहा है दिल्ली जैसे शहर में| लेकिन फिर भी अटता नहीं है| क्योंकि कमाने की होड़ बहुत बढ़ गई, आवश्यकताएं बढ़ गई हैं| सोच बदल गई, समय बदल गया| पहले का पुरुष आभूषण पहनता था- इसका मतलब वह ज्यादा प्रकृति के नजदीक था| पुरुष को ही अपनी सुन्दरता दिखानी पड़ती है| शेर को देखा होगा- प्रकृति में शेर ही ज्यादा सुन्दर और आकर्षक दिखाई पड़ता है| शेर गरजता है, दहाड़ता है, शेरनी नहीं| मोर नाचता है और अपने रंग-बिरंगे इन्द्रधनुषी पंख जब फैलाता है, नाचता है तो कितना सुन्दर दिखाई पड़ता है! मन मोह लेता है| वह सुन्दर मोर पंख मोर को मिला है सजावटी- मोरनी को नहीं| मोरनी नाचती नहीं है| मुर्गा अपने सिर पर कलगी लगाकर बड़े शान से चलता है| मुर्गी को कलगी नहीं होती है| क्योंकि स्त्री अपनी सुन्दरता को छुपा कर रखती है, चुप रहती है| प्रकृति मौन रहती है| पुरुष गरजते रहता है, बादल गरजता है| पुरुष बोलता है, औरत मौन रहती है| स्त्री का आभूषण मौन है| इसलिए यह समझो, पुरुष ही अपनी सुन्दरता को बरक़रार रखना चाहता है| लेकिन अब उलटा हो गया, औरतें गहना पहनने लगीं| पहले जो औरत गहना पहनती थी, बुद्ध के समय तक ‘नगरवधू’ होती थी| नगरवधू माने वैश्या| बुद्ध के समय में गहना वैश्याएं पहनती थीं, सामान्य औरतें नहीं| गहने पहनने का मतलब था कि वह पुरुषचित्त की है, आक्रामक है| तब औरतें शांत चित्त होती थीं| तो देखो हमने आपको यह याद दिलाया, समय के अनुसार सब बदलते रहता है| आदमी की धारणाएं बदलती रहती हैं, मनःस्थिति बदलती रहती है| इसलिए अर्थ भी बदलते रहता है, गीता की व्याख्या फिर कर रहे हैं हम|
भगवान् कृष्ण अर्जुन को ‘पुरुषव्याघ्र’ (पुरुषों में सिंह, पुरुषश्रेष्ठ) कह रहे हैं| जैसे-जैसे शिष्य झुकता है, वैसे-वैसे उसमें श्रेष्ठता आती जाती है| जब अकड़ता है तो समझ लो कि वह बक्कड़ हो गया है- बकरा| पौरुषहीन हो गया है| अकड़ने वाला अक्सर मारा जाता है| इसलिए अर्जुन झुक रहे हैं| अभी तक कृष्ण मित्र था, अनजाने में सारथि बना लिया| अनजाने में प्रश्न कर दिया और फेर में, चक्कर में पड़ गए| अब कृष्ण को ‘मित्र’ से ‘गुरु’ समझ गए| गुरु में ‘परमात्मा’ देखने लगे और जब परमात्मा देखने लगे तो समर्पण आ गया- झुकने लगे| और जैसे-जैसे यह झुकने लगे हैं, वैसे-वैसे कृष्ण में श्रेष्ठता देखने लगे| तब भगवान् कृष्ण भी कह रहे हैं कि अब तुम पुरुषश्रेष्ठ हो|
आप लोगों ने देखा होगा, पहले और दूसरे अध्याय में ये अर्जुन को मूर्ख कहे हैं, नपुंसक कहे हैं| इससे बड़ी गाली नहीं कोई हो सकती है| किसी वीर, बहादुर को, क्षत्रिय को नपुंसक कह दो- मर मिटेगा| लेकिन देखो, अब अठारहवां अध्याय आते-आते ‘पुरुषश्रेष्ठ’ कह दिए कृष्ण| इसका मतलब अर्जुन अब समर्पित हो गए हैं| और समर्पण का सबसे उच्च लक्षण यही है कि वह मोक्षपद की, संन्यास की बात पूछ रहे हैं| जो संन्यास और मोक्ष की बात करेगा, वही श्रेष्ठ होगा| जो सांसारिक बात करेगा- केवल पैसे और इस जगत् की बात करेगा, वह निकृष्ट होगा|
हालाँकि जीसस ने कहा है कि जब कभी वो अपने गाँव जाते थे, लोग कहते कि देखो, यह जोसफ का, बढ़ई का लड़का है! बड़ी-बड़ी बात कर रहा है, पूजा करने से रोकता है- इसे मारो| और ईसा को अपने लोगों का बहुत विरोध झेलना पड़ा, सूली पर चढ़ा दिया गया| लेकिन कृष्ण की पूजा इनके रिश्ते में होने लगी- अर्जुन झुकने लगे| अब यह रिश्ता नहीं, ‘गुरु’ देख रहे हैं| जब झुके तो समझ गए कि यह तो गुरु है कृष्ण| फिर देख रहे हैं कि नहीं, इसमें परमात्मा छिपा है| यह पूर्ण परमात्मा ही है! गुरु में परमात्मा देखना एक बहुत बड़ी खूबी है| चूँकि वह दिखाई तो पड़ता है तुम्हारी ही तरह| चलता है तुम्हारी ही तरह, बोलता है तुम्हारी ही तरह| लेकिन उसमें जो छिपा हुआ है रहस्य, उसे जब शिष्य देखने लगता है तब वह झुकने लगता है| और जब तक उसमें वह छुपा हुआ रहस्य नहीं देखता है, अकड़ा रहता है, तब तक वह निकृष्ट है| लेकिन अर्जुन श्रेष्ठ हैं| इसलिए भगवान् कृष्ण कह रहे हैं कि ‘हे पुरुषश्रेष्ठ! मैं तुझसे यह निश्चय भाव से कह रहा हूँ| संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन|’
‘निश्चय’ शब्द हर कोई नहीं कह सकता है| जब तुम तर्क करते हो, वितर्क करते हो, विचार करते हो, आपस में बात करते हो, तब नहीं कहते हो कि हम निश्चय पर पहुँच गए| कहते हो कि हम निष्कर्ष पर, conclusion पर पहुँच गए| विज्ञान निश्चय से नहीं कहता है, निष्कर्ष देता है| राजनीति में लोग निष्कर्ष पर पहुँचते हैं बहुत वाद-विवाद करके| विचार मंथन होता है, तब कहा जाता है कि हमलोग इस निष्कर्ष पर पहुँच गए| ‘निश्चय’ कहने की हिम्मत नहीं है| यह तो ‘समय का सद्गुरु’ ही कोई कह सकता है| इसलिए कृष्ण ‘निश्चय’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं कि मैं निश्चय से यह कह रहा हूँ| अतः त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन| यह बुद्ध पुरुष ही कह सकता है, इसलिए कृष्ण के एक-एक शब्द पर ध्यान देना होगा|
विज्ञान निष्कर्ष देता है| गैलिलियो ने जो कहा, निश्चय से नहीं कहा| और गैलिलियो के बाद न्यूटन ने आगे कहा और गैलिलियो की बात फीकी पड़ गई| लेकिन न्यूटन ने वह भी निश्चय से नहीं कहा| उसको आइंस्टीन ने काट दिया| लेकिन आइंस्टीन ने भी निश्चय से नहीं कहा| काटने का मतलब? वे एक दूसरे के दुश्मन नहीं थे| विज्ञान में निष्कर्ष निकलता है| यह निश्चय से कहने का साहस नहीं रखता है| आइंस्टीन ने सोचा होगा कि हम बहुत आगे की बात कह दिए हैं, लेकिन आज ‘गॉड पार्टिकल’ आ गया| उसके आगे आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत- ‘थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी’ फीका पड़ गया| आज ‘गॉड पार्टिकल’ माने परमात्मा की तरफ बढ़ता हुआ एक कदम- यह भी विज्ञान निश्चयात्मक तरीके से नहीं कह रहा है| तो विज्ञान निष्कर्ष देता है, धर्म निश्चय देता है| निश्चय देता है धर्म- यह बात ठीक से समझ लो| निश्चय- यह अपना आत्म-जागरण ही दे सकता है, विज्ञान नहीं| विज्ञान संदेह को निष्कर्ष तक पहुँचा सकता है, लेकिन धर्म संदेह को निश्चय में बदल देगा| दोनों में अंतर यही है| इसलिए धर्मवेत्ता निश्चय की तरफ बढ़ता है|
‘निश्चय’ का अर्थ हमको क्यों कहना पड़ा? हालाँकि हमने आज 15-16 गीता की व्याख्याओं को पलटा, देखा| सभी जगह इस पर मात्र एक ही लाइन कहकर छोड़ दिया गया| निश्चय और निष्कर्ष का अंतर नहीं समझे लोग| इसलिए इस पर हमको जोर देना पड़ रहा है| शायद किसी ने ‘निश्चय’ के अर्थ पर ध्यान नहीं दिया होगा|
भगवान् कृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि अर्जुन, तुम पुरुषश्रेष्ठ हो| मोक्ष और संन्यास के सम्बन्ध में पूछ रहे हो, इसलिए अवश्य तुम पुरुषों में श्रेष्ठ हो| संन्यास और मोक्ष के सम्बन्ध में सब नहीं पूछते हैं, कोई विरला ही पूछता है| कभी आता है कोई, हम लोगों के यहाँ भी| प्रश्न कर देगा ईश्वर, परमात्मा के बारे में| हम कह देंगे कि अच्छा! अभी जरा आधा घंटा बैठो| आधा घंटे के बाद पूछेंगे कि अब बोलो, कैसे हो? तो कहेगा कि क्या कहें, बड़े हम दुखी हैं! पत्नी भाग गई है, लड़का जो है उसका पत्नी से नहीं पटता है, झगड़ा होता है| ‘तो परमात्मा.. ?’ अब चुप| परमात्मा की बात ख़त्म- मोक्ष की बात ख़त्म| एक मिनट में बदल जाता है| और वह एक-दो प्रश्न नहीं करेगा, उसके सामने अब एक नहीं, एक हज़ार समस्याएं आ जायेंगी| अर्जुन भी समस्याओं से घिरा हुआ है| युद्ध भूमि में- मरने और मारने की स्थिति में खड़ा है| अपना पूरा अस्तित्व दांव पर लगा दिया है| और वहाँ पर मोक्ष और संन्यास की बात कर रहा है- अठारहवें अध्याय में| इसलिए भगवान् कृष्ण ने कहा कि तुम पुरुषों में श्रेष्ठ हो| अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर बड़ी सरलता और सहजता से दे रहे हैं| अब कह रहे हैं कि हे पुरुष श्रेष्ठ! त्याग तीन प्रकार का होता है- तामसिक, राजसिक और सात्त्विक|
तामसी त्याग- तामसी व्यक्ति आलसी होता है, सोया-सोया रहता है, काम करना नहीं चाहता है| चूँकि उसकी काम करने की, श्रम करने की वृत्ति नहीं है- आलस्य में वह त्यागी बन जाता है| फिर वह त्यागी ‘साधु’ बन जाता है, साधु से ‘बाबा’ बन जाता है| और समाज उसको खिलाने लगता है, पिलाने लगता है, ‘सिद्ध’ कहने लगता है| 90% भारत के साधु-बाबा, इसी तरह के तामसिक वृत्ति के हैं| यह बात ठीक से समझ लेना| हालाँकि साधु कोई हमारी बात सुनेगा तो बड़ा घबराएगा| लेकिन आज भारत के 90% साधु- तामसी हैं| अभी 125 करोड़ भारत की जनसँख्या है, जिसमें लगभग एक करोड़ साधु हैं| और सुन लो, इनमें यदि एक लाख साधु सात्त्विक वृत्ति के हो जाते तो यह भारत देश आज ‘सोने की चिड़िया’ ही नहीं बन जाता, साक्षात् स्वर्ग उतर आता| लेकिन नहीं, ज़्यादातर साधु यही हैं- तामसी| इसीलिए विवेकानंद जब मरने लगे तो उनकी आँखों में आँसू थे| लोगों ने पूछा कि क्यों? तो कहा कि अपने जैसे हमको यदि सौ भी मिल जाते संन्यासी-साधु; तो मैं स्वर्ग उतार देता| लेकिन उन्होंने भी देखा कि यहाँ तो तामसी साधुओं की भीड़ है! आलसी साधुओं की भीड़! यह सोया रहता है- खाएगा, सो जाएगा| तुम जान रहे हो कि यह बड़ा सिद्ध है! त्यागी है! अरे, इसे तो आलस्य की सिद्धि है|
एक बार जापान में एक आलसी ‘राजा’ हो गया| जब राजा वह हो गया तो कहा कि भाई, क्यों न आज हम सब आलसियों को निमंत्रण दें! पेपर-पत्रिका में ऐड निकाला गया- हमारे यहाँ सब आलसियों को ‘आलसी भत्ता’ मिलेगा, जीवन भत्ता मिलेगा- आ जाओ| लाखोंलाख अप्लाई किए| मंत्रीगण हड़बड़ा गए कि महाराज! सारा खजाना ख़त्म हो जाएगा| अब आलसियों का इंटरव्यू लेना पड़ेगा| तो कहा कि चलो, इंटरव्यू तुमलोग ले लेना| लेकिन हम आलसी राजा हो गए हैं| तब आलसियों को कुछ तो देना पड़ेगा- जीवन भत्ता न!
अब हजारों आलसी आ गए| मंत्री लोग झोंपड़ी, टेंट लगा दिए और जैसे ही अर्द्धरात्रि हुई, झोंपड़ियों में आग लगा दिए| सारे आलसी भाग गए| दो-चार आलसी रह गए| लोग कहे कि भागो-भागो| कहा कि क्यों भागें? कम्बल ओढ़कर सो गए कि आने दो आग- देखा जाएगा यार! और आग की लपट जब कम्बल के ऊपर गिरने लगी तो भागे जान बचाकर| लेकिन एक आलसी सोया रहा| लोग चिल्लाये कि भाग| कहा कि कहाँ भागें, देखा जाएगा| तब मंत्री कहे कि असली आलसी यही है| यह सिद्ध साधु है!
जो जितना आलसी व्यक्ति- वह उतना सिद्ध साधु होगा| है न जी! इसलिए यह साधु का लक्षण है- आलस्य| यानि सोने में प्रवीण| साधु को ठीक-ठीक समझो! असली साधु जो होगा, यदि उसके मुख में ही भोजन देते रहोगे तो वह बिस्तर से नहीं उठेगा| तो भगवान् कृष्ण कहते हैं कि त्याग भी तीन तरह का है| यानि उनके समय में भी यह थी बात| पहला कहा- तामसी| समझ गए! दूसरा राजसी होता है|
राजसी त्याग- जो राजसी वृत्ति का रहेगा, वह त्याग करेगा| लेकिन यदि वह सोया रहेगा- आलसी तो यह सोएगा ही नहीं| दो बजे- तीन बजे तक रात में काम करता रहेगा| कुछ न कुछ करते रहेगा| और जब तीन बजेगा तो सो जाएगा| दिन में दस बजे-ग्यारह बजे तक सोया रहेगा| यह जो है राजसी वृत्ति का है| और जब इसे कुछ नहीं मिलेगा काम, ‘साधु’ ही बन गया, तब क्या करेगा? कहेगा कि भैया, क्या करें? कुछ अच्छा नहीं लग रहा है| पेपर-पत्रिका में नाम नहीं निकल रहा है| अरे देखा नहीं, गंगा की सफाई नहीं है| चलो, गंगा की सफाई के लिए अब अनशन कर दें! अब उस पर अनशन कर देगा| बैठ जाएगा, लेकिन गंगा की सफाई नहीं करेगा| रोज़ पेपर-पत्रिका में आने लगेगा| अब यहाँ से हॉस्पिटल में जाएगा| वहाँ से फिर उसे प्लेन से ले जाया जाएगा – एम्स तक| अब वहाँ भी नाम आएगा- चर्चा में आएगा| है न! यह राजसी व्यक्ति है| यह जो है बैठेगा नहीं| किसी न किसी तरह से चर्चा में रहना चाहेगा| यह दूसरे को दुःख नहीं देगा, अपने पर दुःख ले लेगा कि नहीं, भोजन नहीं करेंगे| यह दुःख खरीद लेगा, अपने पर ले लेगा- दुःख| कहेगा कि हिंसा है! लेकिन हिंसा यह दूसरे पर कर नहीं सकता है, अपने ऊपर करने लगेगा- भोजन नहीं करेगा, पानी नहीं पीएगा| यह जो है, राजसी त्याग है| भगवान् कृष्ण कहते हैं कि यह भी निकृष्ट है त्याग| कुछ अच्छा नहीं है| राजसी व्यक्ति दूसरे को नहीं दबाएगा, अपने को दबाएगा| लेकिन एक सात्त्विक त्याग होता है- तीसरा |
सात्त्विक त्याग – माने बुद्ध और महावीर का त्याग| सात्विक त्यागी बुद्ध और महावीर की तरह होता है| जो संतुलन में बना रहता है| पेंडुलम की सुई एक अति से दूसरी अति पर जाती है| यह अति पर नहीं जाता है, बीच में स्थिर रहता है, सात्त्विक रहता है| यह 1% भी नहीं है, सात्त्विक त्याग लगभग नगण्य है| जब कभी ‘समय के सद्गुरु’ में यह सात्त्विक त्याग आता है- सब लोग उसे नकार देते हैं| ऐसे ही लोग कहते हैं-
‘जो मिला सो गुरु मिला, चेला मिला न कोय|’
उसको तो कोई चेला ही नहीं मिलता है| क्यों मिलेगा? संसार में तो तामसिकों की संख्या ही सबसे ज्यादा है| जो व्यक्ति जैसा होता है, उसे जीवन में वैसे ही लोगों से पाला पड़ता है| क्योंकि-
जैसे को तैसा मिले, मिले डोम को डोम|
दाता को दाता मिले, मिले सूम को सूम||
90% संख्या जब तामसियों की है और 9% राजसियों की, तब सात्त्विक (जो मात्र 1% है या इससे भी कम) उसको कौन मिलेगा शिष्य? तामसिक के यहाँ ज्यादा भीड़ रहेगी| तब कहोगे कि हाँ, उस बाबा के यहाँ ज्यादा भीड़ है| उसकी बड़ी चलती है! अरे हम भी तामसी, वह भी तामसी- तो तामसियों की भीड़ हो गई| तामसी कुछ करना ही नहीं चाहेगा| जाकर कहीं कोई गुरु खोज लेगा, कहेगा कि गुरुजी, कुछ जंतर बना दीजिए, मन्त्र कोई बता दीजिए| यंत्र- गुरु भी दे देगा, मन्त्र फूंक देगा| और उसकी दुकान दौड़ने लगेगी| गुरुजी की भी दुकान चल निकलेगी- खूब दौड़ेगी| तो देखो, यह तामसिक प्रवृत्ति है| तामसी व्यक्ति जो है जन्तर ले लेगा, मन्तर ले लेगा| और वह गुरु भी दे देगा- जंतर-मंतर, राख बरसाएगा| कोई चमत्कार करेगा- कराएगा| यह तामसिक वृत्ति है| भगवान् कृष्ण कहते हैं कि सात्त्विक वृत्ति से जो है संतुलन होता है| सत्त्व- समता पैदा करता है, बोध पैदा करता है| सात्त्विक व्यक्ति तो परिपक्व होता है| हर समय मध्य में खड़ा रहता है| भगवान् कृष्ण कहते हैं कि एक भी यदि सात्त्विक वृत्ति का व्यक्ति है तो उसी के आधार पर यह सृष्टि खड़ी है, अर्जुन! वही इस सृष्टि का कर्ता-धर्ता है| लेकिन देखो, सत्त्व-वृत्तियुक्त व्यक्ति को शिष्य नहीं मिलता है| कबीर साहब कहते हैं-
‘चलते-चलते पग थका, नगर रहा नौ कोस|
बीच में ही डेरा पड़ा, कहूँ कौन को दोस||’
इनको एक चेला नहीं मिला| पूछा गया कि अरे, नहीं मिला ? कहा कि नहीं| ‘क्यों?’ कबीर साहब कहते हैं-
‘बार-बार मैं कह रहा, कोई न माने बात|
जब वा के हित की कहूँ, पुनि पुनि मारे लात||’
माने जो हम कह रहे हैं, कोई नहीं मानता है- ‘जब उसके हित की कहूँ, पुनि पुनि मारे लात’| कबीर साहब कहते हैं कि चेला तो ऐसा मिल रहा है कि जब उसके हित के लिए मैं मोक्ष और संन्यास की बात कर रहा हूँ, यह लात मार देता है- लात चला रहा है|
तो देखो, सद्गुरु के शिष्य की हालत यह होती है| रामकृष्ण परमहंस शिष्य के लिए रातभर रोते थे- काली माई से कहते कि माँ! एक शिष्य दे दो न| अब बताओ, ये पैरवी कर रहे हैं और तामसियों के यहाँ देखो, क्या भीड़ लग रही है शिष्यों की| भगवान् कृष्ण बता रहे हैं कि संसार में ऐसे ही लोगों की भीड़ हो रही है अर्जुन ! इसलिए मैं यह निश्चय पूर्वक कह रहा हूँ- संन्यास और त्याग के बारे में तू मेरा निश्चय सुन| यहाँ कृष्ण ने ‘निश्चय’ शब्द पर जोर दिया, इसलिए इसका अर्थ मुझको करना पड़ा| आज तक यह किसी ने नहीं किया है गीता के सन्दर्भ में| इसलिए जहाँ मैं देखता हूँ कि किसी शब्द विशेष की व्याख्या नहीं हुई है, मुझे उस पर ज्यादा देना पड़ रहा है|
आगे भगवान् कृष्ण कह रहे हैं-
कर्तव्यरूप आवश्यक कर्म हैं यज्ञ, दान और तप
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्|
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्|| ५ ||
पदच्छेद अन्वय –
यज्ञदानतपःकर्म = यज्ञ, दान और तपरूप कर्म, न, त्याज्यम् = त्याग करने के योग्य नहीं हैं, (बल्कि), तत् = वह (तो), एव = अवश्य, कार्यम् = कर्तव्य है, क्योंकि, यज्ञः = यज्ञ, दान = दान, च = और, तपः = तप – (ये तीनों), एव = ही (कर्म), मनीषिणाम् = बुद्धिमान पुरुषों को, पावनानि = पवित्र करने वाले हैं|
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं हैं, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं|| ५ ||
भगवान् कृष्ण गीता में यह कई बार, लगभग 8-10 बार कह चुके हैं कि कि यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं हैं| इसको बार-बार दोहरा रहे हैं कि हे अर्जुन! यह मेरा निश्चय मत है कि ये तीनों अवश्य ही करने योग्य कर्तव्य कर्म हैं और बुद्धिमान पुरुषों को पावन करने वाले हैं| ‘निश्चय मत’- कह रहे हैं कृष्ण| माने सभी कुछ त्याग दो, लेकिन इसे नहीं- यज्ञ, दान और तप कर्तव्य रूप आवश्यक कर्म हैं| लेकिन कैसे करोगे? यह भी सबके भाग्य का नहीं है| देखो, यहाँ अभी ‘राम रसायन यज्ञ’ हो रहा है एक साल का| यज्ञ की भी सारी तैयारी, व्यवस्था की जिम्मेदारी सुनील तिवारी की थी यहाँ| लेकिन यज्ञ जब शुरू हुआ, तपस्या का, दान का समय आया तो चलता बना| और जिसने कुछ नहीं किया इसमें, इसमें सम्मिलित होने लगा| इसे क्या कहोगे? भाग्य की बात, ईश्वर की अनुकम्पा या जन्मोंजन्म का फल- क्या कहा जाएगा? न तो यह सबके वश की बात है, न सबके भाग्य की| क्या कहा जा सकता है! चलो, अब जो हो|
संसार में जो भौतिक यानि इस लोक की कामना करता है, वह परलोक की बात नहीं करता है और जो परलोक की बात करता है, वह भौतिकता की बात नहीं करता है| दोनों दो ध्रुवों पर खड़े हैं| एक गृहस्थ यदि भौतिकता, सांसारिकता की बात करता है तो परलोक की बात पर चुप हो जाता है| एक साधु यदि परलोक की बात करता है तो वह भौतिकता पर चुप हो जाता है| गृहस्थ यदि अशांत होता है तो साधु के द्वार पर भिक्षा लेकर खड़ा होता है कि मुझे शांत कर दो| मेरी यह भिक्षा स्वीकार करो| साधु-संन्यासी को जब भूख लगती है तो भिक्षा पात्र लेकर के गृहस्थ के द्वार पर खड़ा हो जाता है कि भिक्षां देहि! मेरी भूख शांत करो| दोनों ही अधूरे हैं- एक दूसरे के द्वार पर खड़े हैं, भीख माँग रहे हैं| लेकिन मैं ऐसा संन्यासी नहीं बनाना चाहता हूँ| मैं तो चाहता हूँ कि तुम परिश्रम करो और अपने उद्यम पर खुद भी खाओ और दूसरों को दो- तभी तुम संन्यासी हो| नहीं तो आधे-अधूरे हो| भिक्षा-पात्र लेकर फिर खड़े हो किसी के द्वारे पर? लेकिन इसके बाद भी संन्यासी गुर्राता है कि हम तुमसे श्रेष्ठ हैं! उसी से खाता भी है माँगकर और उसी पर गुर्राता भी है| और गृहस्थ बेचारा देता भी है और दो कदम पीछे भी हट जाता है| लेकिन पीछे जब वह हटता है तो उसका पैर भी छूता है, पालन-पोषण भी करता है उस संन्यासी का| जिसके तन पर कपड़ा भी किसी गृहस्थ का दिया हुआ ही रहता है| भोजन भी कर रहा है तो उसी का कर रहा है- फिर गुर्राता है उसी पर, उसी को श्राप भी देता है| अब बताओ, कौन श्रेष्ठ है? इसीलिए हमने कहा कि आज का संन्यास तामसियों का है| इसमें तामसी लोग आ गए हैं| जो खायेंगे भी और गुर्रायेंगे भी| बन्दर को देखा है! बन्दर को यदि कुछ खाना दोगे न, तो वह हाथ से लेगा भी और गुर्राएगा भी| तो भारत के संन्यासी सब बन्दर हो गए क्या?
देखो, संन्यासी सब बैठे हैं यहाँ| हम पर बिगड़ेंगे कि गुरुजी यह तो बड़ा गड़बड़ कह दिए| हम पर कमेंट कर रहे हैं क्या! अभी सब नोट हो रहा है, टीवी पर जाएगा तो और कुछ संन्यासी गुर्रायेंगे| लेकिन क्या करें! वस्तुस्थिति हम देख रहे हैं, इसलिए कह रहे हैं| अध्यात्मवादी जो है भौतिकवादी को निकृष्ट समझता है| यह अधूरा है|
कृष्ण जो हैं एक भौतिकवाद को भी अपने साथ लेकर चल रहे हैं, अध्यात्मवाद को भी साथ लेकर चल रहे हैं| कृष्ण जितने भौतिकवादिता में समर्थ हैं, अध्यात्म में भी उतने ही समर्थ हैं- इसलिए कृष्ण पूर्ण हैं| पूर्ण निश्चयपूर्वक कह रहे हैं रहे हैं कि मैं अपना यह निश्चय मत कह रहा हूँ| कृष्ण जैसे पूर्ण व्यक्ति का ही निश्चयात्मक मत सुनना चाहिए| कृष्ण समर्थ हैं| राजा भी हैं- द्वारिकाधीष बन गए हैं, इसलिए भौतिकवादी भी हैं| सम्पदाएँ इनके पास भरी पड़ी हैं| यह माँग नहीं रहे हैं और अध्यात्म में गीता कह रहे हैं जो सर्वोत्कृष्ट है| इसलिए श्रीकृष्ण का ही संन्यास सर्वोत्कृष्ट होना चाहिए इस पृथ्वी पर|
लेकिन यहाँ देखो, कृष्ण भगवान् अपनी बात ही नहीं, दूसरों का मत भी बता रहे हैं कि कुछ पण्डित जन कहते हैं कि काम्य कर्मों का त्याग कर देना चाहिए| कुछ विद्वान् लोग कह रहे हैं कि नहीं, कर्मफलों को त्याग दो तो कुछ पण्डित कह रहे हैं कि सम्पूर्ण कर्मों को ही त्याग देना चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण कर्म कहीं न कहीं दोषयुक्त हैं- दोष का कारण हैं| इसलिए कोई कर्म मत करो- सबको त्याग दो| और कुछ कहते हैं कि नहीं, यज्ञ, दान और तप को मत त्यागो| तो यह चार मत दिए गए हैं| इसका मतलब उस समय भी अनेकों मत थे कृष्ण के समय में| इसलिए उनको निश्चयपूर्वक कहना पड़ता है – निष्कर्ष (conclusion) नहीं कह रहे हैं| समय का सद्गुरु आता है तो अनेक मतों में एक मत निश्चयपूर्वक देता है|
कृष्ण यहाँ निश्चयपूर्वक कह रहे हैं कि हे अर्जुन! इन सबों में तुम यज्ञ, दान और तप का त्याग मत करो| यहाँ भी समय आया यज्ञ, दान और तप का तो हमारे भी शिष्य भागे चले| बहुत भाग गए| और जो भागे हुए थे, वो आ गए| तो क्या करें, समय आने पर कर्म से भाग चलते हैं लोग|
देखो, महाराष्ट्र के एक पटवारी थे- मणिक जी| वहाँ पर एक बार अकाल पड़ा तो मणिक जी के पास जो धन-धान्य था, अन्न था- निकालकर सब दान कर दिए| और अकाल जब ख़त्म नहीं हुआ तो अपने खेत-बैल सब बेचकर दान कर दिए| सब कुछ दान देने के बाद भी उनके यहाँ भिखमंगों- भुखमरों का, गरीब लोगों का तांता बना रहा- आने जाने का क्रम बना रहा तो कहा कि अब क्या करें? मणिक जी ने अपना घर बेच दिया, पत्नी के आभूषण बेचकर सब दान कर दिया और बाहर झोंपड़ी में आ गए| क्या करें!
इतना दान कर सकते हो तुम लोग? क्या जी! तुम तो रखे रहोगे बीस लाख और उसमें से ले आओगे बीस रुपया- कि गुरुजी, इतना दान दिए न! लेकिन देखो, मणिक जी ने सब दान दे दिया| गरीबों मे बाँट दिया और कुछ न रहा तो मजदूरी करने लगे| कर सकते हो? एक दिन एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी भीख माँगने के लिए आए| इन्होंने कहा कि आज दो सेर आटा मिला है मजदूरी में| आप यह आटा लो और मैं कुछ लकड़ी देता हूँ- आपलोग बनाओ, पाओ| स्वपाकी हो न! कहा कि सब्जी? बोले कि नारायण! नारायण! अब यही है मेरे पास| कोई उधार भी नहीं देगा|
उसकी वह उदारता को देखकर के दोनों ब्राह्मण पति-पत्नी लक्ष्मी-नारायण के रूप में प्रकट हो गए| कहा कि मणिक! तुम्हारे इस तप से, दान से, यज्ञ से हम प्रसन्न हैं| इतनी विषम परिस्थिति में भी तूने यह नहीं छोड़ा है- मजदूरी कर रहा है, दान कर रहा है, अपना सर्वस्व लगा दिया है| बोलो, क्या चाहिए? मणिक ने कहा कि बस आपकी कृपा बनी रहे, यही चाहिए| हमें कोई धन-दौलत नहीं चाहिए, स्वर्ग-ऐश्वर्य नहीं चाहिए| हे भगवान्! हमारी ऐसी भक्ति बनी रहे कि किसी भी परिस्थिति में यह यज्ञ, दान और तप मैं नहीं छोडूँ| तब भगवान् नारायण ने कहा कि तथास्तु! तुम ही सच्चे संन्यासी हो| सचमुच, तुम मोक्ष के पात्र हो|
तो देखो, यह तीन- यज्ञ, दान और तप विषम से विषम परिस्थित्ति में भी न छूटे- सच्चा संन्यास यही है| जो भगवान् कृष्ण यहाँ निश्चयपूर्वक कह रहे हैं| क्योंकि कृष्ण अध्यात्मवादी और भौतिक्कादी दोनों हैं| और हमारे यहाँ तुमलोग यदि गृहस्थ हो, भौतिकवादी हो तो संन्यासी अध्यात्मवादी हैं| मैं बता चुका हूँ कि दोनों आधे-अधूरे हैं| लेकिन कृष्ण दोनों में पूर्ण हैं| हम तो चाहते हैं हमारे गृहस्थ और संन्यासी दोनों पूर्ण बनें| भौतिक संसाधन भी परिपूर्ण रहें और अध्यात्म भी पूरा रहे| जब दोनों पूरा-पूरा रहेगा, तभी कृष्ण की तरह संन्यास तुम्हारा पूर्ण होगा| नहीं तो अधूरा होगा| भगवान् कृष्ण कह रहे हैं कि संसार और मोक्ष- दोनों में संतुलन साध लेना है| संसार में जो कर्म है, उसको छोड़कर कोई भाग नहीं सकता है| यदि तुम भाग रहे हो छोड़कर संसार के कर्म, तो कहीं न कहीं अपने को धोखा दे रहे हो| क्योंकि तुम तो श्वास ले ही रहे हो, देख ही रहे हो, सुन ही रहे हो, भोजन करके पचा ही रहे हो| जब यह अपने प्राकृतिक कर्म तुम नहीं छोड़ रहे हो, तब अपने कर्तव्य-कर्म क्यों छोड़ रहे हो? यज्ञ क्यों छोड़ रहे हो, दान क्यों छोड़ रहे हो, तप क्यों छोड़ रहे हो? शारीरिक परिश्रम क्यों छोड़ रहे हो? अपना सब कर्म जब छोड़ रहे हो, इसका मतलब तुम आलसी प्रवृत्ति के हो- तामसी हो, भाग रहे हो|
सब जोड़कर के कृष्ण के कहने का मतलब यह है कि अर्जुन भी कर्म से भाग रहे हैं| पलायन करके साधु बनना चाहते हैं| भगवान् कृष्ण कह रहे हैं कि हे अर्जुन! युद्ध से भागना नहीं है| अपने क्षत्रियोचित कर्म का निर्वाह कर- युद्ध कर| और इस युद्ध के परिणाम का विचार त्याग दे| यह युद्ध रूपी कर्म ही यज्ञ है|
तुम यहाँ जो भी कर रहे हो कर्म- यज्ञ कर रहे हो, तप कर रहे हो या दान कर रहे हो- इसका फलाफल जो मिल रहा है, उस फलाफल का भी तुम त्याग कर दो| उसके फल की चिंता मत करो| हम फल की चिंताएं ज्यादा करते हैं- आम का पेड़ बोये नहीं, चिंता कर लिए|
सुने हैं कि एक इंजिनियर कहीं शादी में गया था| शादी धूमधाम से हुई| पति-पत्नी नए-नए शादी के बाद मिले- बातें किये| ये बोला कि यदि लड़का हुआ तो उसका आप लोग क्या नाम रखेंगे! लड़की ने कहा कि उसका नाम हम रखेंगे- पप्पी| तो कहा कि नहीं, नाम हम रखेंगे- डबलू| कहा कि नहीं-नहीं… ‘पप्पी’ तो ‘डबलू’ करते-करते दोनों में फाइटा-फाइटी हो गई| युद्ध होने लगा- सुबह हो गई| दोनों का हाथ-मुँह फूल गया|
गाँव भर के लोग पूछे कि अरे क्या हो गया! थाना-कचहरी में लोग चले गए| सौ नंबर घुमाया- पुलिस आ गई| पूछा- क्या हुआ? कहा कि देखिये न, ऐसे-ऐसे… हमलोग बात कर रहे थे कि लड़का हमारा होगा तो उसका क्या नाम रखेंगे? हम कहे कि पप्पी तो यह कहे- डबलू| पप्पी या डबलू… दरोगाजी, यही निर्णय पहले कर दीजिए| दरोगा ने कहा कि पहले बताओ कि लड़का कहाँ है? कहा कि अरे लड़का! …हमलोग अभी तैयारी में हैं न|
तो यही हम लोग करते हैं| कर्म करने से पहले फल की आकांक्षा कर लेते हैं| भगवान कृष्ण के कहने का इतना ही मतलब है कि सब काम करो| पुरुषार्थ मत छोड़ो, फल की आकांक्षा छोड़ दो| हम भी कहते हैं तुम लोगों से कि पुरुषार्थ करो| लेकिन भागकर फिर सो जाते हो|
To continue
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –