जीती भी वो ही जो अडी़ रही।

जीती भी वो ही जो अडी़ रही
कहीं किसी की पलकों में पल रही है
कहीं जन्म से ही खल रही है
कहीं किसी के है आसरे वो
कहीं सरहदों पे लड़ रही है
कहीं किसी ने समझा सराहा
कभी खुद ही से उलझ रही है
है किसी की प्रेरणा वो
किसी को बोझ सी लग रही है
कोई सोचता है मगरूर है वो
अपनों के ही हाथों
कहीं मजबूर है वो
कोई देवी का स्वरुप समझे
कोई रंग कद से कुरूप समझे
कहीं अपने पर है गुमान उसको
प्यारा है अपना स्वाभिमान उसको
कहीं अस्मत बचा रही है
चुभती निगाहों से
खुद को छुपा रही है
अपनी किस्मत आजमा रही है
कहीं किस्मत का
लिखा चुका रही है ,
बचपन से जैसे तराशा गया है
वो वैसी ढलती गई
नियति जिसकी जैसी रही
वो वैसे जीती रही।
कुछ ने वक्त को पलट दिया
कुछ ने समझौते कर लिए
कोई वक्त से लड़ती गई।
अपने लिए जो खड़ी रही
जीती भी वो ही जो अड़ी रही।
मीनू यतिन