अम्मा
अम्मा
अब भी रखी थी वहीं
सामने के बरामदे में
वो कुर्सी, जिस पर
अम्मा बैठा करती थीं
जिस पर अम्मा की चीजें रहतीं थीं
एक चश्मा, एक ताबें का गिलास
रुद्राक्ष की माला और भागवत गीता
अधूरा रह गया सलाई में ऊनी
कुछ वो बुन रही थी शायद,
रह गयी थी बाकी जिसमें
उन बूढ़े हाथों की नरमी।
छडी़ ,चौकी से सटी खड़ी थी
मानो अम्मा हाथ लगाएगीं,
ठंडे तेल की शीशी,वहीं थी
अब भी आधी भरी हुई
एक बिछौना लगा रह गया था
जिस पे बच्चे घर के बैठा करते
और दादी से
राजा रानी की कहानियोंँ सुनते,
अकसर अम्मा डब्बे में
से कुछ मीठा देती थीं
“कैसा है अच्छा है न”
सबसे पूछा करती थीं।
शिव शंभू महादेव का
जयकार लगाती अम्मा
गाय का अगरासन
ले कर खुद जाती अम्मा
आते जाते लोगों से
छज्जे से बतियाती अम्मा
बरसों से कहीं निकली नहीं
बस घर में ही मंडराती अम्मा
आज नहीं घर में
तो कितना कुछ कमतर लगता है
कितना कुछ रोज देखने की
आदत में
हर बात में याद आती अम्मा ।