अंकों का छलावा
अंकों का छलावा
पिछले सप्ताह हाईस्कूल और इंटरमीडिएट सीबीएसई तथा गुजरात माध्यमिक शिक्षा परिषद के बोर्ड के परिणाम आए हैं, बहुत से लोगों ने अपने बच्चों के परिणाम के विषय में बताया। अच्छा लगा, उनकी बातें सुनकर जिनके नंबर अच्छे आए थे उनका उल्लास देखने लायक था। कुछ रोतड़े भी थे जो बस रोने को तैयार थे कि नंबर अच्छे नहीं हैं। विश्लेषण करने पर पाया कि अधिकांश अर्धसत्य पर चल रहा धंधा है। कुछ की तो पुष्टि की जा सकती है किंतु कुछ ने इसे भी प्रतिष्ठा का प्रश्न मान लिया है और वे न अपने साथ, न बच्चे के साथ और न शिक्षा के साथ न्याय कर पाए हैं, भविष्य के साथ तो क्या करेंगे ?
सबसे अव्वल दर्जे के अंक के आधार पर इस बात की कतई गारंटी नहीं दी जा सकती कि इन अंकों के साथ उत्तीर्ण छात्र व्यावहारिकता में भी उतना ही योग्य होगा। आज जब देश में लगभग माध्यमिक शिक्षा परिषदों के दसवीं व बारहवीं के परीक्षा परिणाम घोषित हो चुके हैं, तो परिणामों को देखते हुए हमारी माध्यमिक शिक्षा एवं परीक्षा प्रणाली से जुड़े कई सवाल खड़े होते हैं, जिन पर गहनता से विचार जरूरी है। कुछ बातें ध्यान में आई, खोपड़ी खुजाने लगी…
- इन नंबरों का जीवन से कोई विशेष अर्थ नहीं है। यह संभव है कि हम अपने 58 साल की उम्र में इस बात को कह रहे हैं क्योंकि जब हम अपने 10वीं और 12वीं में थे तब 60 प्रतिशत अंक और वह भी गुजरात माध्यमिक शिक्षा परिषद के बोर्ड में लाना, बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। तब किसी विषय में 75 अंक आने पर अंक तालिका में ब्रैकेट में डी फॉर डिस्टिंक्शन लिखा आता था। हाँ आज की शिक्षा व्यवस्था में इन अंक प्रतिशत का महत्व है क्योंकि यदि 90-100 के बीच अंक नहीं आए तो उन लाखों रुपयों का क्या औचित्य बाजार में सिद्ध किया जा सकता है, जो हमने कोचिंग/ट्यूशन में दिए हैं। उस तपस्या और अपराध का क्या होगा कि हमने बालक को माघ की भोर का सूरज और शरद पूर्णिमा का चांद तक नहीं देखने दिया। आखिर हमें भी तो उस अपराध बोध से निकलने की कोई अंधी गली चाहिए, जिसके आखिर में कोई रास्ता नहीं है, यह अंक गली है। माँ बाप ने अपनी अंक पिपासु नासिका इतनी लंबी कर ली है कि 100 में जरा सा दशमलव कम होते ही कट जाती है।
- ऐसे भी मामले हुए हैं जिनके बच्चों ने JEE mains अच्छे परसेंटाइल से पास कर ली किंतु 12वीं के परिणाम में गणित में 75 प्रतिशत नहीं आए, ऐसे बदनसीब इस सदमे से बहुत मुश्किल से उबर पाएंगे।
- बच्चे, माँ-बाप, परिवार (यदि कहीं है) का संबंध मात्र आवश्यकताओं की पूर्ति और सुविधाओं के अबाध निर्झर रहने तक का हो गया है। क्या यह शिक्षा प्रणाली बच्चे को किताबी सूचनाओं के किसी और रूप में दीक्षित करने में सफल हो रही है ?
- आज जिस तरहसे माँ बाप बच्चों को लेकर परीक्षा केंद्र के बाहर धूप, वर्षा में भूखे-प्यासे बैठे दिखते हैं – हमारे दौर में हमारे माँ-बाप को पता भी नहीं होता था कि कोई बहुत महत्वपूर्ण घटनाचक्र चल रहा है। हाँ, यह भी सही है कि तब सभी के पास 3-4 बेटे और बेटियाँ होते थे, किस किस को रोते। और माँ-बाप को सिर्फ फेल और पास से ही मतलब होता था।
- उसके बाद का सीन बहुत भयावह है जब ये आईआईटी और बड़े संस्थानों में पहुंचते हैं।
- हमें, हमारी व्यवस्था को, समाज और देश को नौकरी से अलग जिंदगी को देखना होगा। कुछ आनंद का चबूतरा विकसित करना होगा जो जीवन में कोई आश्वस्ति का भाव लाए, जो किताबी अंकों के छलावे से बाहर हो। ओशो कहते थे कि चूहा दौड़ में विजयी हो भी गए तो रहे तो चूहे ही। जंजीर लोहे की हो या सोने की है तो जंजीर ही। तुम तो बंधे ही, पर ये मुक्ति गामी पापी पुण्य करेगा कौन ? जब मैंने नहीं किया तो किससे उम्मीद करूं ?
तमाम आँकड़े दर्शाते हैं कि आज के बच्चे किस तरह की महत्वाकांक्षा के शिकार हो गए हैं। उनके सपने बड़े हैं और उनके सपने पूरे न होने पर वे मौत को गले लगाने में भी नहीं चूकते। सवाल यह है कि उनको समाज या स्कूल के स्तर पर इस तरह की सोच को गले लगाने की सीख कहां से मिलती है ?
हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़, फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले। आपको क्या लगता है यह अंकों के छलावे से कोई रास्ता मिलेगा या फिर भटकाव ही अंतिम सत्य होगा ?
धनेश परमार ‘परम’