वैदिक ऋषियों का कर्म
वैदिक ऋषियों का कर्म
एक भ्रान्त धारणा बन गई है हम लोगों में कि वैदिक काल के ऋषि एकान्त खोजकर जंगलों में रहा करते थे। इनके रहने के लिए घास-फूस की झोंपड़ी या मिट्टी का घर हुआ करता था। पहाड़ों की गुफाओं में या कन्दराओं में रहते थे। कन्द-मूल ही इनका भोजन था। परिवार नहीं होते थे इनके। यत्र-तत्र भ्रमण किया करते थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूंछ तथा बडे़-बडे़ बाल हुआ करते थे। भेड़-बकरियां तथा गायें पालते थे। हिरण की खाल या पेड़ों की छाल ही इनका वस्त्र था। अर्धनग्नावस्था या अर्धवन्य अवस्था में रहते थे।
यह मिथक बहुत दिनों से चला आ रहा है। दूरदर्शन के धारावाहिकों आदि में ऋषियों को पर्णकुटी बनाकर रहते हुए दिखाया जाता है। परन्तु वेद की ऋचाओं को ध्यान से देखने पर यह धारणा कपोल कल्पित लगती है। ऋषि कर्मयोगी होने के प्रतीक थे। अपना एक क्षण भी बर्बाद नहीं करते थे। अपने कर्म बल से ही ये स्वाबलम्बी, स्वपोषी व स्व-सुरक्षित होते थे। कभी भी भिक्षाटन को प्रोत्साहन नहीं दिये। इनके साथ-साथ इनका पूरा परिवार रहा करता था। इनका अपना विद्यालय हुआ करता था जहाँ शिष्य तथा शिष्याएं साथ-साथ ही हजारों की संख्या में रहा करते थे।
आश्रम में सब तरह की शिक्षा दी जाती थी। पांच से सात वर्ष की अवस्था में आते-आते शिशुओं को आश्रम में भेज दिया जाता था। यहां से ये अपना पठन-पाठन समाप्त कर स्वाबलम्बी बनकर ही अपने गृह को जाते थे। यह आश्रम एक तरह से सम्पूर्ण विश्वविद्यालय ही होता था। जिसमें हजारों-हजार विद्यार्थी, शोधकर्ता तथा शिक्षक निवास किया करते थे। यह सब क्या एक पर्णकुटी में सम्भव है? यदि पर्णकुटी में रहते होते तो उनका अधिकाधिक समय तो पर्ण काटने में ही चला जाता तथा बचा हुआ समय उदरपूर्ति हेतु भिक्षाटन आदि कुछ कर्म करने में। ऐसे में तो पठन-पाठन का समय ही नहीं बचता।
जो ऋषि कर्मयोग युक्त थे, वे तो स्वयं ही लक्ष्मी पैदा कर लेते थे। उसी लक्ष्मी (अर्थ) से पक्वे विद्यालय भवन का निर्माण करवा लेते थे। कुछ खर्च धनी-मनी शिष्यों के यहां से दक्षिणा के रूप में निकल जाता था। इसके बावजूद भी सभी शिष्य-शिष्याएं चाहे वे किसी राजा की सन्तान हों या रंक की, समान रूप से शिक्षा पाते थे। जो ऋषि स्वाबलम्बी नहीं हो पाये वे राजाश्रित हो गये। राजाओं के लड़कों के पढ़ने पर विशेष ध्यान देते। विशिष्ट लोगों के लिए विशिष्ट इन्तजाम था। कर्मकाण्ड पर ज्यादा महत्व दिया करते थे। बदले में राजा से अनुग्रह राशि मिलती थी। कर्मकाण्डों (यज्ञों) के बदले दक्षिणा वसूलने का बहाना भी मिल गया। यह सब करना उनकी मजबूरी भी थी अन्यथा आश्रम का खर्च मुश्किल हो जाता।
जिस आश्रम में कर्मकाण्ड का प्रचलन बढ़ गया था उन लोगों ने कर्म को नकार दिया, उद्यम को नकार दिया, कालान्तर में वहाँ विद्यार्थी एवम् ऋषि दोनों ही दयनीय होने लगे। उनकी सम्भावनाएं क्षीण होती दिखाई दीं हर समय राजा की तरफ ही मुखातिब रहते दक्षिणा के लिए। यत्र-तत्र दक्षिणा के लिए छद्म यज्ञादि करना पड़ता। खुशामद करना इनकी आदत-सी पड़ गयी। इसने एक व्यभिचार का रूप ले लिया।
ऋग्वेद के 7/89/1 में वशिष्ठ कहते हैं- ‘मां अहं मृण्मये गृहम् गमम् |’ मैं अब मिट्टी के घर में नहीं रहूंगा। इससे स्पष्ट होता है कि जो ऋषि मिट्टी के घर में नहीं रह सकता वह पर्णकुटी में कैसे रह सकता है। वह भी कोई सामान्य घर नहीं चाहिए। आगे कहते हैं-
‘वृहन्तं मानं सहस्त्राद्वारं गृहम् जगम् |’ 7/88/5
अर्थात् बडे़ प्रशस्त हजार द्वारों वाले घरों में जाकर हम रहेंगे। आगे है-
‘ध्रुवं छर्दिः यशः पंतसः |’ 7/74/5
स्थायी वाला यशस्वी घर ही हमें रहने के लिए चाहिए।
अपना चाहिए वह भी हजार दरवाजे वाला ही, वास्तु शास्त्र से बना हो। जिसमें रहने से यश में वृद्धि हो। दूसरे के घर या किराये पर लिये गये घर में रहने की बात नहीं कर रहे। ऐसा घर यानि राजमहल से भी अच्छा, जिसमें चार-पांच सौ कमरे हों। तभी तो उस मकान में हजार दरवाजे होंगे। जिसमें इनके पुत्र, पुत्री, पौत्र, पौत्रियां, पत्नी रह सकें। साथ-साथ शिष्य-शिष्याएं रह सकें। साथ रहकर शिक्षा ग्रहण कर सकें। सम्भव है वशिष्ठ की यह मांग किसी राजा से ही हो सकती है। राजा को घर बनाने का या तो सुझाव दे रहे हैं, या मांग कर रहे हैं।
वशिष्ठ कहते हैं- ‘नृणां मा निषदाम, शूने मा निषदाम प्रजावतीषु दुर्यासु निषदाम् |’ 7/1/111
दूसरों के घरों में हम नहीं रहेंगे। पुत्रहीन, शून्य घर में हम नहीं रहेंगे। पुत्र-पौत्र जिस घर में हैं, ऐसे बड़े घर में ही हम रहेंगे | अर्थात् अपना स्थायी घर हो, जिसमें पुत्र-पौत्र सभी साथ-साथ रह सकें। पुत्रहीन यानि अकेले बनखण्डी बनकर हम नहीं रहेंगे। ये हमारी साधना में बाधक नहीं अपितु वर्धक होंगे।
उपनिषद भी ऋषि गृह को विशाल बताते हैं। ‘महाशाला श्रोत्रियाः|’ श्रोतिय विद्वानों के घर विशाल होते थे। इसी विशाल घर रूपी आश्रम में रहते हुए वशिष्ठ राम को उपदेश देते हैं –‘त्याग अच्छा है |’
यह अच्छा नहीं- संतों की भावना इससे ऊपर उठ चुकी होती है। कर्तव्य का त्याग या पालन दोनों स्थितियाँ उनके लिए बेमाने होती हैं। इसलिए वे वही करते हैं जो करना होता है। इस दुनिया में कुछ ज्ञानी हैं तो कुछ अज्ञानी और कुछ अर्थज्ञानी। वे तो अपने अच्छे कर्मों को भी त्याग चुके हैं। वे न तो यहां होते है न वहां। मुक्ति के लिए वन में रहना जरूरी नहीं। इसके लिए न तो साधु का जीवन जरूरी है और न कर्म का त्याग। मुक्ति उसी को मिलती है जो स्वभाव में पूरी तरह स्वतंत्र हो और अनासक्त।
बुद्धि से स्वतंत्र एवम् अनासक्त होने पर वह संसार की उलझनों में नहीं उलझता। ‘हे राम! तुम ही परमात्मा हो। तुम अच्छाई-बुराई से मुक्त हो तथा परमसत्य में स्थापित हो। उस ब्रह्म में कोई अशुद्धि, परिवर्तन, पर्दा, राग या द्वेष नहीं होता |’(योग वशिष्ठ)
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत…
|| हरि ॐ ||
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –