“शेरशाह” विक्रम बत्रा

कारगिल युद्ध के शेर ‘विक्रम बत्रा’ को समर्पित
“शेरशाह” विक्रम बत्रा
एक सूरमा यूँ चला था,
अपनी परवरिश में यूँ ढला था,
जुनून सिर्फ़ हिंद का था,
फौजी इसलिए बन चला था।
मनमौजी जब भी गुनगुनाता,
गीत वतन के गाता,
सरहदों की ही बात करता,
और शहीदों के ही किस्से सुनाता।
आखिर वो दिन भी निकला,
जब दुश्मन ने धोखा दिया,
हमारी चोटियों पर कब्जा किया,
पिघलते बर्फ की चोटियों के पीछे,
मौसम ने जब करवट बदला।
अब ही मौका था,
अपनी तैयारी, अपनी ताकत को
आजमाने का,
उन्हें उखाड़ फेंकने का
उनको सबक सिखाने का
इस लड़ाई में जिम्मेदारी
बडी जरूरी थीं,
इसलिए उसकी तैयारी भी पूरी थी।
उसने हर पहलू को समझा,
स्थिति का पूर्ण अभ्यास किया,
आँच न किसी पर आने दूँगा,
जीत के सबके साथ आऊंगा,
ऐसा दृढ़ संकल्प लिया।
तिरंगे के लिए बना हूँ,
तिरंगे के लिए जिया हूँ,
तो टाइगर हिल पर
तिरंगा फेहरा कर आऊंगा,
या फिर, तिरंगे में लिपटा हुआ
लौटकर आऊंगा।
हमें नहीं पता था कि
यह बात सच्ची हो जाएगी,
चोटियां हमारी फिर आज़ाद
हो जाएंगी,
पर उसमें “शेरशाह” की आवाज़
खो जाएगी।
ऐसे परमवीर,
बस माटी का जुनून
लिए इस जमीं पर आते है,
वतन के लिए जीते हैं,
और फिर
वतन पर ही मिट जाते हैं।
कई सदियों तक
औरो के लिए मिसाल बन जाते हैं।