रावण की व्यथा

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत..
Part 1 : लंका में माँ जानकी की पूजा
अब आगे –
||श्री सद्गुरवे नमः||
रावण की व्यथा
‘गुरुदेव! आज मैं सभी कुछ कह देना चाहता हूँ। मैं अपने मन की व्यथा को आप सभी के सामने निकाल देना चाहता हूँ। मैंने शरीर बल, धन मद, पद-प्रतिष्ठा के मद से चूर हो इस चतुर्वर्ण व्यवस्था को चूर-चूर कर दिया। प्रतिवर्ष अपने पुतले को जलते एवं भगवान राम की पूजा-अर्चना मुझे झकझोर कर रख देती है। जिससे मैं ग्यारह माह के लिए मौन साधना में चला जाता हूँ। अपना प्रायश्चित्त करता हूँ। आज के दिन आता हूँ। इस पृथ्वी पर हजारों लाखों जगह हमारे पुतले में आग लगाई जाती है। भगवान की स्तुति की जाती है। फिर मेरा अन्तर्मन विद्रोह कर उठता है। मैंने ऐसा क्यों किया? ऐसा होना भी चाहिए जिससे हमारे जैसे व्यक्ति का व्यक्तित्व निखर कर अपने प्रति सजग होकर अपने अन्दर ब्रह्मत्व को देखे।
गुरुदेव! मैं आपके पूर्व जन्म के संस्कार को देखता हूँ। आप अपने राजपद से पुत्र को उतार दिए। ब्राह्मण शुनः शेष को जिसे वशिष्ठ जी बलि दे रहे थे, उसे आपने राज धर्म में दीक्षा देकर राजगद्दी सौंप दी। जिस खानदान में जनक जैसे विदेह महात्मा हुए, जो ब्रह्म ज्ञाता हुए, संन्यासियों के भी गुरु बने; आप असम्भव को सम्भव कर दिए। भगवान को आप विश्वमित्र के रूप में ही शिष्य बनाए। समस्त पृथ्वी पर सद्विप्र समाज की स्थापना कर रामराज्य का झंडा लहरा दिए। अभी भी हमारी लंका उसी झंडे के नीचे आनन्द मग्न है।
सीता को आप अपनी मानसपुत्री मानते थे। यह रहस्य मात्र सीता, दूसरा मैं, तीसरे वशिष्ठ जानते थे। यही कारण है कि सीता पूर्ण नारी बनी। पूर्ण नारी पर पर-पुरुष आँख नहीं उठा सकता है। राम पूर्ण पुरुष बने। पूर्ण पुरुष पर भी पर-नारी आँख उठाने का दुःसाहस नहीं कर सकती है। यह रहस्य मैं जानता था। आज इसी क्रम में सारे रहस्यों का उद्घाटन कर देना चाहता हूँ। मेरी धृष्टता क्षमा करेंगे।
नीति विहीन, मर्यादा विहीन विद्वता व्यक्ति को राक्षस बना देती है। निपढ़-गंवार यदि नीतिज्ञ है, मर्यादित है, भक्त है- तो वह पूज्य है। जैसे शबरी एवं वाल्मीकि थे।
मेरी पत्नी के गर्भ से एक पुत्री उत्पन्न हुई। पत्नी बेहोश थी। मैंने उस लड़की को तत्काल उठा लिया। परिचारिकाओं को कठोरता से आदेश दिया कि महारानी के होश आने पर उन्हें बता देना कि आपको मृत पुत्र हुआ था जिसे महाराज ने दफना दिया। ऐसा ही हुआ। हालांकि सभी संदेह में इसे स्वीकार किए- चूंकि मेरे रहते मेरे आंगन में काल प्रवेश कर जाए, यह असम्भव था। एक तरफ मेरा सूक्ष्म अहंकार सोच रहा था कि मुझे पुत्र हो। हमसे श्रेष्ठ कौन होगा जिसे मैं दामाद बनाऊँगा। जिसे मैं कन्या दान करूँगा। मैं उसी के सामने अपना शीश झुकाऊँगा? यह असम्भव है। लंका का परिवेश लड़कियों के पालन-पोषण के उपयुक्त था भी नहीं। दूसरी बात यह देखकर मैं चौंक गया कि जिस नक्षत्र-मुहूर्त में इसका जन्म है वह असाधारण प्रतिभा की धनी होगी। पूर्ण ब्रह्मचारिणी, पूर्ण स्त्री होगी। जिधर क्रोध से देखेगी, संहार कर देगी। यह तो साक्षात् जगदम्बा होगी। उसका पालन-पोषण लंका की पृथ्वी पर असम्भव है।
लंका की राजा-प्रजा का आचरण गिर चुका है। इसकी क्रोधाग्नि में क्या लंका ही जलकर भस्म हो जाएगी। नहीं, ऐसा नहीं होगा। मेरी बात भाई विभीषण नहीं मानते। ये जन्म से ही नीति-मर्यादा की बातें करते हैं। अतएव इस सम्बन्ध में मैंने किसी से कुछ नहीं कहा।
तत्काल पुत्री को लेकर अयोध्या चला गया। उस धरती पर ज्ञात हुआ कि यहाँ तो पूर्ण पुरुष आ चुका है जो इसे वरण करेगा। मेरा त्रिनेत्र का कुछ भाग खुला था। आगम-निगम देखता था। इसे लेकर जनकपुर गया। यह लड़की उसी भूमि पर क्रंदन की। मैं समझ गया कि यहीं इसके माँ-बाप हो सकते हैं। इसी धरती पर इसका पालन-पोषण हो सकता है। रात्रि के अंधेरे में राजा जनक की यज्ञ भूमि में चुपचाप रख दिया। प्रातःकाल राजा जनक यज्ञ-भूमि में आए। यज्ञ करने लगे। यज्ञ रूपी हल आगे बढ़े। धर्म रूपी वृषभ चल रहे थे। नीतिज्ञ ब्राह्मण वेद मंत्र उच्चारण कर रहे थे। लड़की की करुण क्रंदन से राजा का ध्यान उधर आकृष्ट हुआ। राजा दौड़े। उस बालिका का अपूर्व सौंदर्य-आभा देखकर जनक तत्क्षण अपनी गोद में ले लिए। राजा पृथ्वी-पति होता है। पृथ्वी से निकली बालिका का पिता होता है। उसे लेकर अपनी परिचारिकाओं को पालने हेतु दे दिए।
राजा का आकर्षण उस बालिका की तरफ बढ़ता गया। एक दिन उसे उठाकर अपने अंक से भर लिए अश्रुपूरित नेत्रों से अपनी पत्नी से विनीत स्वर में कहा- ‘देवी! एक मेरा निवेदन स्वीकार करोगी। यह बालिका मुझे अत्यन्त प्यारी है। मेरे प्राणों से भी प्रिय हो गई है। मैं विदेह हूँ। इसे देखकर विदेह का भान भूल रहा हूँ। क्या तुम इसे अपनी गोद में स्वीकार कर सकती हो?’
सुनैना जी ने कहा- ‘प्रभु! पति की प्रत्येक इच्छा का पालन करना पत्नी का कर्त्तव्य है। मैं तो माँ हूँ। माँ का कर्त्तव्य होता है पुत्री का पालन करना। यह तो मेरा अहोभाग्य होगा। मुझे प्रदान करें मेरी पुत्री को। यह तो उल्टा हो गया। पहले पुत्री माँ की गोद में पलती है तब पिता की अंगुली पकड़कर नीति के धर्म के रास्ते पर चलती है। यह लड़की अवश्य ही अद्भुत है। माँ की भी माँ है। तभी तो पहले आपके अंक में स्थान ग्रहण की, तब मेरे। यह आपके लिए आत्मा से बढ़कर प्रिय होगी। यह हमारी प्राण होगी।’ अपनी गोद में सुनैना जी ने ले लिया।
सीता का रूप, गुण, चाल, चरित्र, चिंतन, त्याग, वैराग्य, विद्वता में पंख लग गए। इसका विकास चर्तुदिक होने लगा। राजा जनक के हृदय को छेदने लगी। अपनी विदेहावस्था का कभी-कभी परित्याग कर अपनी प्रिय पुत्री के लिए सुयोग्य वर की तलाश में चिंतित हो गए। मैं सदैव यही सोचता रहा कि मैं ही भाग्य विधाता हूँ। भाग्य की रेखा अपने पराक्रम से लिखना जानता हूँ। इस पुत्री से मुझे ज्ञात होने लगा कि व्यक्ति जन्मों जन्म कर्म करता है। जिससे चिरसंचित प्रारब्ध का निर्माण होता है। वह हमें भोगाभोग भोगने के लिए बाध्य करता है। जिससे हमारे जैसा व्यक्ति भी कहने लगा कि इंसान परिस्थितियों का दास होता है।
आयावर्त का कोई राजकुमार सीता से शादी करने को तैयार नहीं था। चूंकि सर्वविदित था कि यह अज्ञात ‘वीर्यशुल्का’ है। बहुपत्निक राजा सीता से शादी करना चाहते थे। राजा जनक का पुत्री के प्रति मोह बढ़ता गया। पुत्री के भविष्य के लिए उनकी चिंता बढ़ती गई। कई बार बहुतेरे यक्ष, रक्ष, देव राजा जनकपुर पर चढ़ाई भी किए। सीता अपूर्व सौंदर्य वाली है। इसे हमें दे दो। राजा जनक अपने कर्त्तव्य पथ पर आरूढ़ रहे।
इन विषम परिस्थितियों में समय के सद्गुरु महर्षि विश्वमित्र ने ओजपूर्ण शब्दों में गर्जना की- ‘अहिल्या एवं सीता दोनों मेरी मानस पुत्री हैं। दोनों का भविष्य मंगलमय होगा। इसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ|’ धूम-लगन-विश्व मंगल के प्रहरी की इस उद्घोषणा से सभी सिहर गए। सभी के कदम पीछे हट गए। मैं हर्षित हुआ। मैं ऐसा अभागा पिता निकला कि अपनी इकलौती पुत्री का भी कन्यादान देने का साहस नहीं कर सका। अपनी पुत्री को भी संरक्षा-सुरक्षा नहीं दे सका। धिक्कार है मेरे पौरुष का- धिक्कार है मेरे पराक्रम पर। उसी दिन से टूटने लगा। मैं उसी दिन से प्राणों से प्यारा समझने लगा।
आपने राम-लक्ष्मण को माँगा। उन्हें लेकर सिद्धाश्रम आए। सारी सूचना मुझे तत्काल मिली। मैं राम का लग्न एवं सीता का लग्न देखकर चौंक गया। समय के सद्गुरु ने अपनी पुत्री हेतु ‘वर’ का चयन कर ही लिया। ये हैं परमात्मा। मेरी पुत्री है प्रकृति। दोनों को मिलाने वाले हैं गुरुदेव। मैं अति प्रसन्न था।
आपने सिद्धाश्रम में ताड़िका की हत्या कराई। मलप-करुष दोनों राज्यों को मुक्त कराया। गुरुदेव का यज्ञ तो बहाना था। मेरे यहाँ लंका में आपात कालीन सभा बुलाई गई। निर्णय हुआ कि सिद्धाश्रम पर चढ़ाई कर दें। मैंने मना कर दिया। मैंने स्पष्ट कह दिया कि आर्यावर्त में सूर्योदय हो गया है। हमारा विवाद निरर्थक होगा। मैं अति प्रसन्न था। भाव विह्नल था। मेरी इच्छा थी कि किसी तरह राम सीता की शादी हो जाए। उन्हें एक बार लंका ला दूँ। उन्हें सभी कुछ सौंपकर इस पृथ्वी का भार हल्का करूँ।
आपने राम से अहिल्या का उद्धार कराया। देवराज इन्द्र कभी मेरी तरफ देखते, कभी आपकी तरफ। बरबस पीछे हट गए। महाराज रावण चक्रवर्ती सम्राट उस ऋषि से नहीं जूझ रहे हैं। इसमें अवश्य कोई रहस्य है। राम को लेकर धनुर्यज्ञ देखने के लिए जनक के यहाँ पहुँचे। पूरे भूमण्डल में हलचल हो गई कि विश्वमित्र धनुर्भंग कराकर रहेंगे। मैं स्वयं बाणासुर को लेकर चला गया। सप्रेम धनुष को प्रणाम किया। मन ही मन भगवान शंकर से प्रार्थना की कि यह धनुष आप मुझे ही प्रदान किए थे। आज आप मेरी पुत्री की लाज रख लीजिए। उसके सुयोग्य वर आ गया है। वह गुरु भक्त है।
भगवान शंकर ने मुझे आशीर्वाद दिया कि तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। बस मैं तत्क्षण एक बार सीता का मुंह देखा। बाणासुर ने भी देखा। उसका चेहरा उड़ गया। वह इस रहस्य को समझ गया। वह भी भगवान शंकर का भक्त था। अपनी राजधानी में पहुँचने पर उसने हमें आक्रोश में अवश्य कहा कि आप इतने गिरे हुए इंसान हैं प्रथम बार मुझे ज्ञात हुआ। अपनी पुत्री को दूसरे के हाथों सौंप दिया। राजा जनक जरूर विदेह हैं। हम लोगों से बहुत ऊँचे हैं। वे तो नारायण स्वरूप हैं। विश्वमित्र को तो विश्व गुरु मान लेना चाहिए।
मैंने दबे स्वर में उससे कहा- ‘मित्र! इस रहस्य को कभी प्रगट मत करना। मैं स्वयं अन्दर से टूट गया हूँ। मेरे विवेक का नाश हो गया है। मैं विक्षिप्त हो गया हूँ। अपनी पुत्री को देखकर आज अन्दर से टूट गया हूँ। मेरी जीने की इच्छा भी समाप्त हो गई। उसके चेहरे पर मेरी आँखें नहीं टिक सकीं। ऐसा प्रतीत हुआ कि वह नवजात शिशु मेरी गोद में कह रही है ‘मेरा क्या दोष है-पिताश्री|’ सचमुच मैं महान पातकी हूँ। तत्क्षण भाग चल। वहाँ खड़े होने का साहस नहीं कर सका। बाणासुर मेरी मृत्यु हो गई है। मैं तो मात्र लाश हूँ। लेकिन यह लाश भी तभी पवित्र होगी जब मेरा दामाद अपने बाणों से इस अपवित्र शरीर को छिन्न-भिन्न कर देगा। अब मेरी यही अन्तिम इच्छा है। इसका यही अन्तिम प्रायश्चित्त है|’
धनुष टूटा। राम-सीता ने एक-दूसरे की गर्दन में माला डाली। गुरुदेव ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिए। परशुराम ने परीक्षा ली। सारी सूचना तत्क्षण मुझे प्राप्त होती थी। मुझे दूरदृष्टि प्राप्त थी। तांत्रिक उपासना, पिताश्री एवं दादाजी के द्वारा मेरे तीसरे नेत्र खोलने का अथक प्रयास किया गया। जिससे मेरी कुछ लाख कोशिकाएँ विखण्डित हो गईं। मैं अचानक तमाम रहस्यमय लोक से जुड़ गया। विभिन्न प्रकार की शक्तियों से जुड़ गया। जिससे मैं अहंकारी हो गया। मेरे पिताश्री ने बार-बार कहा-‘पुत्र तुम्हारा तृतीय नेत्र पूरा नहीं खुला है। तुम्हारी ऊर्जा का गमन अभी आज्ञा चक्र पर नहीं हुआ है। परिणाम उल्टा होगा। शक्ति-सामर्थ्य के जोश में किसी की नहीं सुनी। मैं हठी-जिद्दी एवं विलासी बनता गया।
शादी के पूर्व मेरे प्रपितामह प्रजापिता ब्रह्मा लंका आए। मैंने उनका सम्मानपूर्वक स्वागत किया। उन्होंने कहा बेटा आज भगवान राम की शादी है। उनकी शादी मुझे ही करानी है। परन्तु मैं वृद्ध हो गया हूँ। मंत्रों का उच्चारण ठीक नहीं हो रहा है। तुझमें मेरा रक्त है। वेदज्ञ भी है। हमारे साथ भगवान शिव और भगवान विष्णु भी आए हैं। मैं तत्काल बाहर गया। उन दोनों का भी भरपूर स्वागत किया। मैंने प्रार्थना पूर्ण शब्दों में कहा- पितामह! मैं जनकपुर जाकर उनकी शादी नहीं करा सकता हूँ। आप इसे जानते होंगे कि सीता की तरफ देखने की मेरी सामर्थ्य नहीं है। मेरा शरीर कांपने लगता है। मैं पिता के नाम पर अपने को कलंक समझने लगा हूँ। मैं हीन भावना से अपने को ग्रसित मानता हूँ। यदि किसी भी तरह यह रहस्य मंदोदरी या मेरे पुत्रों को ज्ञात हो गया तो वे भी हमें क्षमा नहीं करेंगे। मैं तो बे-मौत मर रहा हूँ।
ब्रह्मा जी ने कहा- ‘पुत्र! होनहारी-प्रबल है। मैं स्वयं सभी का भाग्य विधाता हूँ फिर भी ‘क्षणाद्धर्म किं भविष्यति दैवो न जनाति|’ तुम कैसे शादी सम्पन्न करवाओगे। यह विधि बताओ। करना तुम्हें ही है। वशिष्ठ मेरे पुत्र हैं। राम की शादी हेतु मेरा इंतजार अवश्य करेंगे।’
रावण ने कहा,’पितामह! आप सभी मेरे पुष्पक विमान पर बैठें। मैं जनकपुर के आकाश में स्थिर होकर शादी सम्बन्धी मंत्रों का आपके समक्ष उच्चारण करूँगा। जिसे सुनकर पितामह वशिष्ठ जी शादी की प्रक्रिया सम्पन्न कराएंगे। ब्रह्मा जी ने कहा ऐसा ही करो।
रावण ने कहा- मैंने घोड़े पर बैठने से लेकर तिलक लगाने तक का मंत्र बोला। जनकपुर के सभी लोग समझ गए कि ब्रह्मा जी आ गए। शादी की सारी विधियाँ मैंने सम्पन्न करा दीं। सभी विदा हो गए। राजा जनक ने इतना दान दिया कि सभी लोग धनी-सम्पन्न हो गए। मैं ही था विपन्न।
राम-सीता की विदाई हो गई। जनक जी को फूट-फूट कर रोते देखा। जानकी उनसे लिपट-लिपट कर रो रही थी। महाराज जनक विलाप करते हुए कह रहे थे ‘पुत्री! तुम्हारी पालकी यहाँ से मैं उठा रहा हूँ। तुम्हारी दूसरी बार पालकी श्मशान के लिए ही उठनी चाहिए। तुम्हारा पति ही सर्वस्व है। आज से राम का भाई तुम्हारा भाई। उनके रिश्ते-नाते ही तुम्हारे रिश्ते-नाते होंगे। हमारी चिंता छोड़कर महाराज दशरथ की चिंता करना। यही पुत्री का धर्म है। राम की छाया की तरह जीवन बिताना। उनका हर्ष-शोक तुम्हारा हर्ष-शोक। आज से बेटी तुम दोनों के दो शरीर हो सकते हैं लेकिन प्राण एक हैं।’ राजा जनक के आँसू अविरल बह रहे थे। पुत्री की विदाई में वे सम्भवतः विदेहावस्था भूल गए थे।
यह सुनकर-देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा था। हे प्रभु! यह सब मैं कैसे देख रहा हूँ। इस पृथ्वी पर इस रहस्य को छिपाए घुट-घुट कर मर रहा था। सर्वत्र अंधेरा था-मेरे लिए। सदैव जानकी का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था। नन्हीं बालिका मेरी गोद में कभी-कभी बोल देती-‘मेरा क्या दोष है पिताश्री… क्या लड़की होना अपराध है…’ ये वाक्य मेरे मस्तिष्क को छिन्न-भिन्न कर देते। हृदय की गति को रोक देते। श्वास रुक जाता। अपना सिर स्वयं दिवाल से पीटने लगता। यह दुःख किससे कहूँ। जिससे कहूँ वही मेरा शत्रु हो जाएगा। यह घोर पाप था। इसे भूलने के लिए मैंने मदिरा साकी का सहारा लिया। फिर एक गलती छिपाने पर हजार गलतियों को जन्म देती है। मैं लगातार गिरते गया। मुझे उसी समय ज्ञात हुआ कि लड़की के साथ छल करने से बड़ा अपराध दूसरा नहीं हो सकता है। मैं इस सृष्टि का सबसे बड़ा अपराधी हूँ। राक्षस हूँ। निशाचर हूँ। मैं अक्षम्य हूँ। ये विचार निरंतर घूमने लगे। मैं असहाय हो गया।
राम की पालकी के ऊपर जाकर मैंने कहा- ‘हे राम! जो कुछ नहीं किया उसे सब कुछ दान में प्राप्त हुआ। जो सभी कुछ किया उसे कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ|’ राम ने कुछ जवाब नहीं दिया। फिर बाध्य होकर जानकी की पालकी के ऊपर आकाश मार्ग से यही शब्द दोहराया। जब तीसरी बार कहा-‘क्यों जानकी यह कहाँ का न्याय है। तुम जनक नन्दिनी हो। जो सभी कुछ कराया उसे कुछ भी नहीं। जो कुछ नहीं कराया, उसे सभी कुछ दान में मिला। जनक नन्दिनी कहते हुए मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा था। मैं वेदना से व्यथित था। विक्षिप्त था।
सीता ने अपनी पालकी ढोने वालों को ओदश दिया, पालकी रोक दो। तुम लोग जरा दूर हट जाओ। चौंसठ कहार पालकी में लगे थे। सभी सम्मान के साथ दूर हट गए। वह बोली आकाश मार्ग से कौन बोल रहा है? नीचे आकर दर्शन देने की कृपा करें। अल्पवय में ही वह निर्भीक थी। मैं सामने नतमस्तक खड़ा हूँ। मैं हूँ देवी। एक अभागा पिता। मुझे लोग सम्राट रावण के नाम से जानते हैं। मैं ब्राह्मण हूँ। मैंने आपकी शादी कराई है। मुझे कुछ भी दक्षिणा में नहीं मिला है। मेरी आँखें नीचे हो गईं।
जानकी ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मृदु भाषा में बोली-‘विप्रवर! मेरे पिता किसी का हक नहीं मारते। वे विदेह हैं। दानी हैं। वे किसी के साथ अन्याय नहीं करते हैं।
रावण ने कहा-ठीक कहती हो देवी! लेकिन मैंने अपनी बेटी के साथ अन्याय किया है जिसके पश्चात्ताप में जल रहा हूँ। आपके पिताश्री ने मेरे साथ अन्याय किया।
वह कैसे? स्थिति स्पष्ट करें महाराज। समय नहीं है। बारात लौट रही है। दुल्हन अकेले बहुत देर तक खड़ी नहीं रह सकती है। जानकी ने एक स्वर में कहा।
बेटी जानकी! जरा अपना चेहरा पालकी में लगे दर्पण में देखो। मेरा भी चेहरा देखो। क्या तुम्हारी धमनियों में मुझ अभागे पिता का रक्त नहीं प्रवाहित हो रहा है। बेटी मैं कुछ सत्य उद्घाटित कर अपने मन को हल्का करना चाहता हूँ। तुम वचन दो कि मेरी दक्षिणा मुझे दोगी। साथ ही इस सत्य को किसी से किसी भी परिस्थिति में नहीं उद्घाटित करोगी। हो सकता है इसका तुझे बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़े। रावण सस्वर कह गए। आँखों में आँसू, चेहरे पर ग्लानि भरी पड़ी थी।
जानकी अति विनीत स्वर में बोली- महाराज! मैं वचन देती हूँ। आप सत्य बोलें। आपकी दक्षिणा मैं पूरी करूँगी।
रावण ने कहा- हे पुत्री! मैं ही तुम्हारा अभागा पिता हूँ। तुम्हारी माँ मंदोदरी है। अपने अहंकारवश मैं तुम्हें पैदा होते ही जनक के पृथ्वी यज्ञ में रख गया। मैंने तुम्हारी माँ से झूठ बोल दिया कि मृत पुत्र का प्रसव किया था। परन्तु छिप-छिपकर सदैव तुझे देखता रहता था। घुट-घुट कर रोने एवं पश्चात्ताप करने के सिवाए कुछ हाथ नहीं लगा। सचमुच महाराज जनक श्रेष्ठ हैं। महान हैं। जो तुझे अपनी पुत्री से भी ज्यादा सम्मान दिया। तुम्हारी शादी में विभिन्न प्रकार से परेशानी उन्हें उठानी पड़ी। महर्षि विश्वमित्र तुझे मानस पुत्री मानकर अपने निमंत्रण पर राम को ले गए। तुम्हारी शादी कराकर आज वे भी अति प्रसन्न हैं। मानों दुनिया का उन्हें वैभव मिल गया हो। वे हिमालय की तरफ तप हेतु प्रस्थान कर गए। मानों उनकी चिरप्रतीक्षित मनोकामना पूर्ण हो गई। मेरी एक ही कामना है बेटी, तुम एक बार लंका भूमि पर पैर रख दो। इस रहस्य को रहस्य ही रहने दो। अन्यथा तेरी माँ मुझे जिन्दा शेरनी की तरह खा जाएगी। तुम्हारे भाई माँ की तरफ ही रहते हैं। देश में विद्रोह हो जाएगा। मैं चाहता हूँ जैसे इन अपवित्र हाथों से तुझे लंका से बाहर किया, उन्हीं हाथों से तुझे एक बार लंका में ले चलूं। वहाँ मैं एक अशोक वाटिका का निर्माण करा रहा हूँ। जो त्रिभुवन में अपनी तरह की अकेली है। देव लोक का कल्पवृक्ष, इन्द्र की कामधेनु तथा विभिन्न लोकों के पुष्प और वृक्षादि होंगे। आपके लिए अति सुन्दर जानकी मंदिर का निर्माण कार्य करा रहा हूँ। उसका नाम जानकी देवी न देकर ‘देवी मन्दिर’ दिया गया है। आपके प्रवेश मात्र से उसका उद्घाटन हो जाएगा।
जानकी ने कहा- ‘यह कैसे सम्भव होगा? मैं कैसे अयोध्या से लंका आऊँगी?’
इसकी चिंता आपको नहीं करनी है। आज से दस वर्ष के बाद राम को राजगद्दी दी जाएगी। लेकिन उसी समय उन्हें चौदह वर्ष का वनवास हो जाएगा। मैं ज्योतिषी भी हूँ। चौदहवें वर्ष आप लोग नासिक से पंचवटी पहुँचेंगे। वहीं मैं स्वर्ण मृग आपके आश्रम में भेजूँगा। आप उसे लाने राम को भेज दें। राम को लौटने में विलम्ब होगा तो लक्ष्मण को भेज दें। उसी समय मैं साधु के रूप में आपके सामने अपने विमान के साथ उपस्थित हो जाऊँगा। आपका अभागा पिता इन्हीं पापी हाथों से अपनी पुत्री को उठाकर रथ पर रखेगा। वहाँ से लंका लाकर सीधे उसी मंदिर का उद्घाटन कराएगा। फिर प्रारम्भ होगा रामलीला का अन्तिम चरण। लंका में अविद्या तंत्र का यज्ञ प्रारम्भ होगा। जिस यज्ञाग्नि में राम सभी के सिरों का हवन करेंगे। हम लोग हवन कुण्ड में अपने अहंकारी शरीर को आहुति के रूप में जलते देखेंगे। हम पापों से मुक्त होंगे। लंका में भक्त विभीषण का राज्य स्थापित होगा। गुरुदेव विश्वमित्र का सपना साकार होगा सद्विप्र समाज की स्थापना के साथ। यही मेरी अन्तिम अभिलाषा है। पुत्री इसे स्वीकार कर लो। एक अभागे पिता की माँग को न ठुकराना पुत्री। मात्र तुम वनवास में राम के साथ अयोध्या से निकल आना। महाराज रावण सहसा एक साथ कह दिए।
अल्पवय जानकी गम्भीर हो गई। फिर बोली- आप ही मेरे पिताश्री हैं। जरा आपका पैर तो स्पर्श कर लूँ। मुझे आशीर्वाद आज विवाह-विदाई के समय दे देने की कृपा करें।
नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। मैं कर्म च्युत हूँ। धर्म च्युत हूँ। मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। जब तक सूर्य चाँद रहेंगे तब तक तुम्हारे अपमान की कीमत मुझे चुकानी होगी। मेरे नाम से लोग घृणा करेंगे। मेरे पुतले जलाएंगे। तब मेरा पाप क्षय होगा। आप मेरा पैर स्पर्श न करो बेटी। मेरा आशीर्वाद है। तुम सदैव सौभाग्यवती बनी रहो। तुम्हारा पति सदैव विजय प्राप्त करे। मैं उस दिन अति प्रसन्न होऊँगा जिस दिन हम पर विजय प्राप्त करेंगे। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा बेटी। इस तरह महाराज जनक अपनी ऋद्धि-सिद्धि तुम्हें चुपचाप विदाई में प्रदान कर दिए हैं। मैं कुछ भी पुण्य किया हूँ वह पुण्य तुझे अर्पित कर रहा हूँ। मेरे साथ शेष रह जाएं मेरे दुष्कर्म। उसे मैं प्रेम से भोग सकूँ। मेरा आशीर्वाद ग्रहण करो बेटी। अश्रुपूरित नेत्रों से महाराज रावण कह गए।
जानकी की आँखों में आँसू भर गए। वह हकलाती हुई बोली- यही होगा पिताश्री। पालकी अपनी दिशा में बढ़ चली। मैं लंका में चला आया। इसके अनुसार सम्पूर्ण कार्य पूर्ण हुआ। मैंने सम्पूर्ण राक्षस कुल को चुन-चुन कर उस यज्ञाग्नि में राम के हाथों हवन करा दिया। अन्त में स्वयं को भी उस यज्ञ वेदी के लिए समर्पित कर दिया। आज इस सत्य को उद्घाटित किया हूँ।
यह सुनकर सारी सभा में शोक की लहर दौड़ गई। मंदोदरी बेहोश हो गई। विभीषण दहाड़ कर रोने लगे। सभा की कार्यवाही अश्रु की धारा में बह गई। महाराज रावण भी फफक कर रो पड़े। मंदिर में जानकी भी सजीव हो गई। उनकी आँखों से भी अश्रु की धारा निकल पड़ी। सारी जनता क्रंदन करने लगी। ऐसा भी कठोर हो सकता है कोई पिता।
स्थिति को अति कारुणीय देख देवर्षि नारद जी आगे बढ़े। उन्होंने कहा- आज कितना पावन दिन है कि लंका में सदियों से दबी सत्य की देवी बाहर निकल आई। सत्य के साथ करुणा का जल भी होता है। जगदम्बा के नेत्रों से भी करुणा का जल प्रवाहित हो चला है। आप सभी के पाप धुल गए। सभी सत्य में गोता लगा रहे हैं। गुरु के आगमन से ऐसा ही होता है। अन्तश्चेतना में दबी ज्ञान गंगा स्वतः प्रवाहित हो उठती है। जब बिना प्रयास के ही सत्य उद्भाषित होने लगे तब समझना चाहिए हमारे जन्मों जन्म के पाप धुल गए। सद्गुरु का सान्निध्य मिल गया। हम आत्म दर्शन के लिए तत्पर हो जाएँ। आप सभी धैर्य के साथ बैठ जाएँ। प्रत्येक आत्मा परमात्मा से विदा होकर विभिन्न लोकों में अवतार ही लेती है। जो निम्न कार्यों के चक्कर में फँस जाती है। वह दिनोंदिन अधोगति को प्राप्त करती है। जो अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है वही श्रेष्ठ कहलाती है। कालान्तर में हम उसे अवतार कहते हैं। हम स्वतंत्र हैं नीचे गिरने को। स्वतंत्र हैं उच्चतम शिखर पर चढ़ने को। उच्चतम शिखर पर बैठे गुरुदेव आपको अपनी अमृतमयी वाणी से सम्बोधित करेंगे। आप उसे अमृत रस समझकर सीधे पी लें। जिससे आप आज ही अपने चतुर्थ शरीर से छूटकर पंचम शरीर पर पहुँच सकते हैं। आपकी उत्तरायण की यात्रा प्रारम्भ हो सकती है।
स्त्री-पुरुष का भान अर्थात् द्वैताद्वैत से मुक्त हो सकते हैं। समय का उपयोग-दुरुपयोग हमारे ऊपर निर्भर है। हम इसका उपयोग जैसा करेंगे हमारी उपलब्धि वैसी ही होगी। मैं आप सभी की तरफ से गुरुदेव को आमंत्रित कर रहा हूँ।
||हरि ॐ||
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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