औरतनामा
औरतनामा
जो खुद को समझती हूं,
पर मैं वो भी नहीं हूं
जो तुम मुझे समझते हो ।
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दायरों की परिभाषा में
खुद को कितना ढालूं,
अकथ अचिंत्य सा
ये वजूद कितना पालूं,
कुछ आकाँक्षाय असीम की
हवाओं में बिखर जाती है,
जब पतझड़ में खिली
कली कोई मुरझाती है,
है इतना कि सर्वस्व यहीं
तार तार सा लगता है,
जगती आंखों के ख्वाबों का
ये व्यापार सा लगता है,
हर दौर में ए जिंदगी
अजब गजब तू कर जाती है,
मंजिल का पता देकर
राहों से अलग कर जाती है।।
Love it!