देख परिंदे
देख परिंदे
भोर हुई है निकल पड़ा है सूरज अपनी राहों में,
सूरज की किरणों ने जाकर, धरती माँ के कानों में,
ओढ़ के जो सोई थी, हरी सि चादर आँख मूंदकर,
पंछी की किलकारी से जो जागी थी, अपने फूलों जैसी आँख खोलकर,
गूँज उठा फिर से जग सारा, अपने अपने कामों में,
हर फूल खिला हर बाग सजी,
हर बैल लगे अब खेतों में खलिहानो में,
गाँव के सुन्दर रंग-बिरंगे तितली जैसे लोग मिले,
बातों में जैसे शहद का मीठा सा अपनापन है,
टूटी सी मटकी में जो गरम गरम सी चाय में,
मानो अपना प्यार मिला कर, थमा दिया है हाथों में,
शहर की उन चमकीली सड़कों मे वैसे वह बात कहाँ,
मिल जाता है कोई सड़क पर
हाय ! बोलकर भाग लिया,
घर आने का न्योता देता परोक्ष रूप से ना कहता,
घर आ गया तो अगर….??
समय हो गया तो ज़ाया….??
धन कमाने के चक्कर में जन का जीवन निह प्यार हुआ,
अपने संस्कारों को जैसे बलि चढ़ा कर लौट गया,
क्या देगा अपने बच्चों को,
जब खुद के पास न और बचा,
भगवान ही जाने क्या होगा अब
कौवा मोती खायेगा !!!
नवुडूरि कल्याणी