धर्म
धर्म
||श्री सद्गुरवे नमः||
मैं किसी नए सिद्धांत या नए दर्शन की घोषणा नहीं कर रहा हूँ। जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि का नाम जीवन है। सभी लोग दीर्घ जीवन के आकांक्षी होते हैं। परन्तु इसे ठीक से जीना एक कला है। गुरु को समर्पित होकर जीना, एक योग है। मैं यही आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन करने जा रहा हूँ। गुरु ही सच्चा शिक्षक है, वही पथ प्रदर्शक है। वही मुक्तिदाता है। ब्रह्म सत्ता का पूर्ण साकार अस्तित्व वही है। सचमुच मेरा यही मंतव्य है। इस सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है, उसके पीछे किसी सत्ता का परोक्ष हाथ है। उसे यदि हम समझना चाहते हैं तो हमें ऊँच-नीच, छूत-अछूत के भेदभाव को पूर्णतः एक ओर रख देना होगा। जिससे हमारा मन इस सत्य को अवलोकन करने के लिए स्वतंत्र और मुक्त हो। जब हमारा मन किसी भी पूर्वाग्रह या रूढ़िवादी परंपरा से ग्रस्त हो जाता है, तब वह मन सत्य का अवलोकन करने में असमर्थ हो जाता है। पूर्वाग्रह से मुक्त मन ही अवलोकन करने में समर्थ होता है।
अब समय आ गया है, वेद-पुराण को नए विमर्श के परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। पूरब का मानव-मन पश्चिमी साम्राज्यवादी सत्ता के विमर्श का गुलाम बन गया है। हम किसी भी सिद्धांत को उचित साबित करने के लिए पश्चिम के किसी न किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या दार्शनिक का उदाहरण प्रस्तुत करना अत्यावश्यक समझते हैं। जैसे, जब तक पश्चिम की मुहर नहीं लगती, हस्ताक्षर नहीं होता, तब तक हम अपूर्ण हैं, अधूरे हैं। यही मापदण्ड हीन मानसिकता का द्योतक है। इसके लिए हमें औपनिवेशिक इतिहासवाद की दृष्टि से मुक्त होकर सत्यता, वास्तविकता की धारणाओं को अपनाना होगा। वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति में सबसे ज्यादा कष्टप्रद बात यह है कि इतिहास, भूगोल, सभ्यता, संस्कृति और साहित्य का अपर्याप्त, एकांगी दृष्टि से अध्ययन कराया जा रहा है। जिसमें भारतीयता की जानकारी नगण्य है। जिससे बच्चों के मन.मस्तिष्क पर ऐसी कुण्ठा की पट्टी पड़ जाती है कि वे सहज ही अपनी सभ्यता-संस्कृति से मुँह मोड़ लेते हैं। आधे-अधूरे रूप में अविकसित सभ्यता, संस्कृति और इतिहास की तरफ उन्मुख हो जाते हैं।
आज के इतिहासकार, प्रबुद्ध वर्ग के लोग सोचने लगे हैं कि इतिहास तो शक्ति, सत्ता की तानाशाही से भरा पड़ा है। मानव ईश्वर और इतिहास के बोझ से मुक्त होकर स्वयं अपनी नैतिकता की तलाश करने निकल पड़ा है। यह अनुभव अत्यंत भयानक तथा खतरनाक है। इतिहास की अर्कियोलॉजी में जाग रहा है- सामूहिक अवचेतन। नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सद्-असद् की जिम्मेवारी से अपने को मुक्त समझकर मानव उद्दण्ड, उच्छृंखल बन गया है। विश्वभर में बीसवीं शताब्दी का बड़ा हिस्सा अस्तित्ववादी चिंतन को इसलिए ग्रहण किए रहा कि यह दर्शन मानव को ईश्वर और इतिहास से मुक्ति देकर स्वयं अपनी नैतिकता, स्वतंत्रता, व्यक्तित्व-निर्माण का पथ दिखाता रहा। सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, धर्म, दर्शन, प्रगति, वृद्ध व्यक्ति, नारी आदि के प्रति जो हमारी संवेदना थी, उसे आज की भौतिकता और पश्चिमी सभ्यता के राजनीतिक बवंडरों ने ध्वस्त कर दिया। हम उस कटी पतंग की तरह आकाश में उड़ रहे हैं, जहाँ कोई सूत्राधार ही नहीं है। किसी भी समय किसी वृक्ष या किसी वस्तु से टकराकर अपना अस्तित्व सदा के लिए खो देने को आतुर हैं, व्याकुल हैं।
यह सत्य है कि ज्ञान अनुभव की एक श्रंखला है। सोचने की क्रिया, स्मृति की प्रतिक्रिया है जो मस्तिष्क में संचित रहती है- इसे ज्ञान कहते हैं। मानवता ने हजारों वर्षों से हजारों अनुभव प्राप्त किए हैं। जिनसे उसने ज्ञान की राशि निःसृत की है। वह ज्ञान स्मृति है। मस्तिष्क में संग्रहित है। जैसे ही आप प्रश्न पूछते हैं, वह स्मृति-प्रक्रिया ही विचार बनकर बाहर आती है। परन्तु विचार सदैव सीमित हैं। किसी भी चीज के बारे में संपूर्ण ज्ञान संभव नहीं है।
व्यक्ति ही मानवता का इतिहास है। मानवता की कथा है। किताब है। जिसमें हम सभी कुछ पढ़ सकते हैं। इसे पढ़ने की कला ही गुरु देता है। अपने बाहर एवं भीतर की हलचल को शांत करना होगा। उत्ताल तरंगों की तरंगायमान गति को शिथिल करना होगा। तब हम ध्यान की प्रक्रिया से सभी कुछ देख सकते हैं, सुन सकते हैं, पढ़ सकते हैं।
यह पढ़ाई मस्तिष्क से सम्भव नहीं, जो शब्दों का गुलाम बन गया है। वह तो नाप-तौल की भाषा जानता है। काटने-पीटने के तरीके को अपनाता है। यह पढ़ाई तो हृदय से ही सम्भव है, जो सेवा, समर्पण, श्रद्धा से भरा है।
तथाकथित अध्यात्मवादी और भौतिकवादी में कोई खास अंतर नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक कर्मकाण्डों में, मठाग्रहों में, पूजा-पाठ में, जनेऊ धरण करने में, कुछ शब्दों को बुदबुदाने में चाहे वह कितने ही प्राचीन क्यों न हो, नदी किनारे बैठने में, त्याग करके अपने को हर प्रकार के बोझ से दूर रख किसी प्रकार की क्रिया में अपने को भुला देने में ही धर्म समझता है। दूसरा सिनेमा में, शराब में, राजनीति में, क्लबों के आमोद-प्रमोद में, कारों में यात्रा में, धन सम्पत्ति के नशे में स्वयं को भुला देना चाहता है। ये सभी वृत्तियाँ किसी न किसी भ्रांति द्वारा स्वयं से पलायन का ढंग है| यह धर्म नहीं है। धर्म के रहस्य को जानना मन का आविष्कार नहीं है। वहाँ मन गिर जाता है। अमन हो जाता है।
तर्क मन का आविष्कार है। कथा कहानी- मन का खेल है। प्रमाद है। चाहे वह आविष्कार शंकराचार्य ने किया हो या निम्बालकाचार्य या दयानन्दजी ने किया हो या किसी अन्य ने, ये कोरे सिद्धांत होते हैं। धर्म का अस्तित्व तब तक नहीं होता, जब तक कि हम यह नहीं जान लेते कि हमारा मन अपनी अनेक सूक्ष्म वासनाओं को, भ्रांतियों को कैसे उत्पन्न करता है? मन केवल सतही क्रिया-कलाप नहीं है। जैसे गंगा का जल वही नहीं है, जो गोमुख में है। समुद्र में मिलने तक जितनी नदियाँ उसमें मिलती हैं, सभी गंगा हैं। उद्गम के जैसा जल ही अंत तक है, ऐसा सोचना मूर्खता है। उसी तरह विचार, सिद्धांत, अन्ध-विश्वास, पुनरावृत्तियाँ, मंत्र, तंत्र ये सारे आविष्कार मन के हैं। सतही हैं। इन सबको एक तरफ ढकेलना ही होगा। इसे छोड़ना भी अत्यंत जटिल कार्य है।
प्रेम ही ईश्वर है। वही धर्म है। उसमें जिया जा सकता है, हुआ जा सकता है। जैसे हम किसी व्यक्ति, पशु या वृक्ष को बिना किसी लालच के प्रेम कर सकें- यही धर्म है| यह मन की वह चरमावस्था है- जिसमें मन आविष्कार नहीं करता है। अमन हो जाता है। जब तक ‘मैं’ संघनीभूत रहेगा, मन प्रबल रहेगा। मैं के गिरते ही शांति, नीरवता, सजगता, सक्रियता प्रगाढ़ एवं निश्छल होती है। तब हमें अकेला बोध होता है- जिसे हम ईश्वर, सत्य या जो कुछ भी कहना चाहें, अस्तित्व में आता है। यह बिना ‘स्व’ बोध के संभव नहीं है। अतएव आत्मा को जानने की कला ही धर्म है।
||हरि ॐ||
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘मेरे राम’ से उद्धृत…
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –