आसक्ति से मुक्ति
||श्री सद्गुरवे नमः||
आसक्ति से मुक्ति
जो व्यक्ति जीते जी आसक्ति के स्वभाव के साथ-साथ इससे जुड़े सभी प्रकार के भय, ईर्ष्या, दुश्चिंता एवं स्वामित्व को समझकर स्वतः छोड़ने में समानता प्राप्त कर लेते हैं- वही जीते जी आसक्ति से मुक्त हो सकते हैं। जो इससे मुक्त हो जाते हैं वे ही परम सौन्दर्य को उपलब्ध होते हैं। स्पर्धा से भरी इस दुनिया से हम मुक्ति पाते हैं। साथ ही तथाकथित जीवधारी शरीर का अंत हो जाता है। तब भी मानव चेतना की अंतर्वस्तु चलती रहती है। हम जैसे ही उस चेतना में मौलिक परिवर्तन लाते हैं, हम स्वार्थपरता की धारा में नहीं बहते हैं। तब हम आसक्ति, अनिश्चित की पकड़ में नहीं पड़ते हैं। अब जीने का ढंग बिल्कुल भिन्न, अनोखा होता है।
मुक्त मन ही धर्मिक हो सकता है। वही नूतन विश्व, नूतन सभ्यता, संस्कृति का स्रोत बन सकता है। यह मुक्ति है क्या? जैसे एक कैदी मुक्त होना चाहता है। अर्थात वह जेल में बन्द है। वह जेल से छूटने की स्वतंत्रता चाहता है। यह मुक्ति नहीं है, यह तो प्रतिक्रिया है।
मुक्ति का अर्थ है- सभी भ्रमों, धारणाओं, सभी विचारों, सभी संचित कामनाओं तथा वासनाओं का पूर्णतः अंत कर देना। धार्मिक मन विवेकशील, स्वस्थ और तथ्यगत होता है। यह तथ्यों का सामना करता है, विचारों का नहीं।
यह मन विनम्रता एवं अज्ञानता, श्रद्धा की भावना से प्राप्त होता है। धार्मिक मन ही क्रियाशील होता है, क्योंकि वह करुणावान होता है। इसकी क्रिया उसकी प्रज्ञा से उत्पन्न होती है। प्रज्ञा, प्रेम एवं करूणा यह सभी कुछ साथ-साथ होता है। वही ध्यान है। विभिन्न प्रकार की क्रिया-कलाप ध्यान नहीं है।
ध्यान क्या है? शब्दार्थ है- मनन करना, विचार करना, बड़ी निकटता से देखना, किसी अलौकिक चीज को जो विचार की खोज हो, उसके सम्पर्क में न आना, अपितु अपने दैनिक जीवन के निकट और सम्पर्क में आना ही ध्यान है।
मेरे विचार से शब्दों की पुनरावृत्ति, संकल्प का अनुशासन, द्वंद्व का प्रतीक है। जैसे ही हमारे अन्दर रिक्तता आती है, शून्यता आती है, द्वंद्व स्वतः गिर जाता है। या द्वंद्व के गिरते ही आंतरिक आकाश का अस्तित्व प्रगट होता है। ऐसे ही आकाश में, शून्य में ऊर्जा होती है| यह विचार के संघर्ष वाली ऊर्जा नहीं क्योंकि यह ऊर्जा तो स्वतंत्रता से उत्पन्न होती है। जब ऐसा शून्य, ऐसी शांति, ऐसी असीम ऊर्जा है तब वहाँ वह चीज होती है जो पूर्णतः अनाम है। अमापनीय है, समयातीत है। तब वह परम पावन है। वह प्रेम एवं करूणा से ही पायी जा सकती है। जिसका प्रारम्भ अपने ही गृह से करना होगा। आप अपनी पत्नी, अपने बच्चों से प्रेम करना शुरू करें। अभी आप आसक्ति में हैं। आसक्ति और प्रेम एक साथ नहीं रह सकता। आसक्ति एक साथ अनेक समस्याओं को पैदा करती है, प्रेम करूणा, प्रज्ञा पूर्ण जीवन प्रदान करता है। जिससे हमारे अन्दर बहुत विशाल शून्यता जन्म लेती है। यही ध्यान है। यह अत्यंत निर्मल है। पावन है। यहाँ स्वार्थपरता, आसक्ति की छाया का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। गंगोत्री के निर्मल, स्वच्छ, शीतल जल से भी पवित्र अमृत रहेगा। जिससे हमारे साथ-साथ आस-पास के सभी लोग तृप्त हो जाएंगे। परिपूर्ण हो जाएंगे।
||हरि ॐ||
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति मेरे राम से उद्धृत….
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –