इमारतों के साए में….
इमारतों के साए में….
जाने किस गुमान में
तनी सी रहती है
इमारतों और झोपडि़यो की
अकसर ठनी सी रहती है
उसे देखती तो है
बड़ी हसरत से
फिर भी कुछ
अनमनी सी लगती है
उसके हिस्से की रोशनी
भी छिन गई और
तपन ने मुँह फेर लिया
उसके नजारों का रास्ता
इन इमारतों ने रोक लिया
उसकी कमतर सी जिंदगी में
और कमी लगती है ।
शीशे के उन ऊँचें बंद कमरों में
अक्सर तन्हाई रहती है
दिन भर की थकन
को ले कर के गरीबी
ऊँघी आलसाई रहती है ।
यूँ तो फर्क है
जमीन आसमान का
मखमली बिस्तर का
टूटे फूटे मकान का।
पर दोनों ही
एक दूसरे के पूरक है
इसे उसकी उसे इसकी
माने न माने जरूरत है ।
मीनू यतिन