महर्षि कपिल का तीसरा नेत्र
||सद्गुरुदेव की जय||
समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत….
महर्षि कपिल का तीसरा नेत्र
हमारा स्थूल शरीर माँस, मेद और अस्थि से निर्मित है। इसी में प्राण स्थित है। जो इस शरीर को जीवनी शक्ति प्रदान करता है। प्राण के बिना यह शरीर नहीं टिकता है। अतएव यह शरीर अन्नमय और प्राणमय कोश के संघात से बना है। इसमें जीवनी शक्ति इससे भी अन्दर एक शरीर है, उससे आती है। वह शरीर है सूक्ष्म शरीर। यह स्थूल शरीर का पोषण करता है। यह मन और बुद्धि के समन्वय से बना है। इसमें ही मनोमय कोष और विज्ञान मय कोष आते हैं।
शारीरिक क्रियाओं का आदान-प्रदान, नियंत्राण संचालन मनोमय कोष द्वारा होता है। मन ही इस शरीर रूपी रथ का सारथी है। मन शक्ति का स्रोत है। शक्ति यदि बन्दर के हाथ लग गई तो पतन कराता है। शक्ति ऋषि के हाथ लग गई तो तीसरा नेत्र खोल सकता है।
विज्ञानमय कोष बुद्धि के सारे व्यापारों का नियंत्रण करता है। मन अपनी समस्याओं को बुद्धि के पास ले जाता है। बुद्धि उसे दिशा निर्देश देती है। यही बुद्धि परिष्कृत होकर ‘ऋतंभरा प्रज्ञा’ का रूप लेती है। इससे योगी में सर्वज्ञता की शक्ति आती है। यह कोष आत्म-साक्षात्कार का द्वार खोलता है। इसे भी जीवनी शक्ति कारण शरीर से प्राप्त होती है। यह अंगुष्ठवत प्रकाशस्वरूप है। इसी से इसे लिंग शरीर भी कहते हैं। इसे आनन्दमय कोष भी कहते हैं। यह आनन्द स्वरूप होता है। ऊपर के तीनों शरीर वास्तव में ‘जड़’ हैं। अचेतन हैं।
सभी शरीर को शक्ति प्रदान करने वाली आत्मा ही है। यह चेतन स्वरूप प्रकाश पुंज और अविनाशी है। इसके शरीर में आने से जन्म है, रहने से जीवन है। साधक इसे जान लेता है तो वह जीवन मुक्त है। इसके निकल जाने से मृत्यु है।
आत्मा का ही प्रकाश-शक्ति स्थूल शरीर तक दृष्टिगोचर होती है। फिर हम इसी स्थूल शरीर के माध्यम से उस प्रकाशमय शरीर तक पहुँच सकते हैं। हम स्थूल शरीर पर ही रुक जाते हैं। यह तो माध्यम है, स्थूल जगत में फँसे रहने का। यह माध्यम है सूक्ष्म-कारण शरीर को उपलब्ध होने का। आत्मा की ही शक्ति प्रकाश विभिन्न माध्यमों से बाहर निकलती है। हम किसी भी माध्यम को चुन लें, उसी माध्यम से वहाँ तक पहुँच सकते हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रिय नाक, जिह्वा, कान, त्वचा या आँख सभी संदेश एवं शक्ति वहीं से पाती हैं। वही पहुँचाती हैं। फिर हमें सचेत हो जाना है, उसके प्रति। गंगा की धारा की तरफ चलने से हम गंगोत्री, फिर गोमुख पहुँच जाते हैं।
मैंने गोमुख की यात्रा चार बार की है। इसके ऊपर तपोवन, नन्दन वनादि में भी रहे हैं। हिमालय हमें सदैव आकर्षित करता रहता है। अपनी तरफ बार-बार आने का निमंत्राण देता रहता है। यही कारण है कि जाने-अनजाने बरबस हिमालय की तरफ खिंचता चला जाता हूँ। मेरी इच्छा हुई कि हिमालय में एक आश्रम बनाऊँ। जहाँ से शिष्यों को, भक्तों को रहस्यमय लोक की यात्रा सुगम हो। विचार आया, गया।
एक बार बद्रीनाथ से अलकापुरी चला गया। यक्षादि के निमंत्रण पर। फिर वे हमें बद्रीनाथ में आश्रम बनाने के लिए मंत्रणा दिए। बद्रीनाथ बहुत बार गया, हर बार पण्डा लोगों से एवं एक महात्मा शनिदेव से भी जगह के लिए चर्चा किया। वे लोग जगह की कमी कह देते, अपने ही स्थान में एक कमरा बनाने हेतु दान देने की प्रेरणा देते। मैंने 2005 में महात्मा जनेश्वर स्वामी एवं पंजाब के रणजीत सिंह को कुछ रकम देकर जगह खरीदने हेतु भेजा। वे लोग नारायण पर्वत पर ही बद्रीनाथ मंदिर से लगभग दो कि.मी. उत्तर जगह देखे। जो 2.5 लाख रु. नाली थी (दो सौ गज का एक नाली होता है) हमसे फोन पर बताए कि वहाँ गाड़ी नहीं जा सकती है। यात्रा कठिन है। सभी नहीं पहुँच सकते हैं।
मैंने फोन पर ही जनेश्वर स्वामी से कहा कि आप भगवान बद्री विशाल को मेरा संदेश दे दो कि आप हमें बस स्टैंड के आस-पास जगह दिलवा दें। वे लोग वैसा ही किए। फिर वापस आ गए। इसके दो-तीन माह बाद ही श्रीमती आशा उपाध्याय संदेश लेकर आईं कि श्री राकेश कौशल जी अपनी जमीन दान देना चाहते हैं। जिनकी जमीन बस स्टैंड के सामने मेन रोड पर है। परन्तु कुछ लोग कब्जा जमाए हैं। मैंने न चाहते हुए भी उस जमीन को स्वीकार किया। वहाँ के लोगों की दबंगई एवं पार्टी पॉलिटिक्स देखकर ऐसा लगा कि जमीन दखल करना कठिन है। फिर बद्री विशाल ने मुझसे कहा, स्वामी जी! आप हमारा कार्य अपने हाथ में क्यों लेते हैं? जमीन मैंने दिलवाई, आपके कार्यालय नहीं जाने के बावजूद भी रजिस्ट्री मैंने कराई। आप अपने भजन में रहें, जगत में सद्विप्र समाज का कार्य करें। जमीन पर निर्माण की व्यवस्था मेरे द्वारा की जाएगी। आप बिल्कुल निश्चिंत रहें। जब मुझे ऐसा विजन (अतिन्द्रिय दर्शन) हुआ, मैं मौन हो गया। सचमुच सभी कार्य स्वतः होने लगे।
अधिकांश कार्य रणजीत जी के माध्यम से पूर्ण हुए। अलकापुरी से ही अलकनन्दा निकली है जिसमें सरस्वती नदी व्यास गुफा के समीप मिलती है। व्यास गुफा में जब वेद व्यास जी से साधकों को ध्यान के माध्यम से मिला रहा था। इसी क्रम में एक भव्य ज्योर्तिमय व्यक्तित्व का दर्शन हुआ। व्यास जी ने परिचय कराया कि ये हैं महर्षि कपिल जी। मेरे मुँह से अनायास निकला- क्या सांख्ययोग के प्रवर्तक परम पूज्य महर्षि कपिल जी यही हैं! उन्होंने मुस्कुराते हुए दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा- हाँ स्वामी जी, मैं हूँ। आप मुझे भूल गए। मैं तो देखते ही पहचान गया। मैं कैलाश जा रहा था- आकाश मार्ग से। महर्षि वेदव्यास जी को देख ऊपर से दण्ड प्रणाम कर लेता हूँ। आज मैं आपको यहाँ बैठा देखकर उतर आया। आपसे मिलने की इच्छा तीव्र हो गई।
मैंने कहा महर्षि जी! मैं आपके तप स्थल जहाँ सागर से गंगा को मिलने के लिए बाध्य कर दिए, वहीं मिलना चाहता हूँ। आप कब, कैसे मिलेंगे? आप तो बद्रीनाथ एक हफ्ता रुकने वाले हैं। अभी मैं मानसरोवर में स्नान करूँगा। भगवान और भवानी का दर्शन करूँगा तथा कुछ ऋषियों से मिलकर लौट आऊँगा। अभी दिन के बारह बज रहे हैं, मैं रात्रि के ग्यारह बजे तक आपके कक्ष में पहुँच जाऊँगा। आप अपने कक्ष में किसी अन्य व्यक्ति को नहीं रखेंगे। अच्छा महर्षि जी, दण्डवत! ‘स्वामी जी, हरि ॐ! मैं चलता हूँ|’
मैं वापस बद्रीनाथ आकर धर्मशाला में रुक गया। रात्रि का इंतजार कर रहा था। वहाँ पूजा-पाठ कर, प्रसाद पाकर नौ बजे ही अपने-अपने कक्ष में सभी चले गए। मैं अपने कक्ष में इंतजार कर रहा था। मेरी आँखें बंद हो गईं। नींद लग गई। किवाड़ अन्दर से बन्द किया था। कुण्डी खुली, खट् की आवाज आई। मैं चौंककर उठ गया। अपने आसन पर बैठ गया। बत्ती जल रही थी। अरे महर्षि जी आ गए! तभी ग्यारह का घंटा बज गया। मैंने उन्हें कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया। वे बैठते हुए बोले-आपको लेने के लिए आया हूँ। शीघ्रता करें। समय कम है। अपने पार्थिव शरीर को इसी कमरे में रख दें। आप सूक्ष्म शरीर से मेरे साथ चलें।
देखते ही देखते अथाह जलराशि के ऊपर उड़ रहे थे। महर्षि नीचे उतरे। सागर के जल को हाथ से स्पर्श कर प्रणाम किया। उसने जलकूप की तरह रास्ता दे दिया। मैं उनका अनुगमन कर रहा था। कूप ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ‘स्फटिक’ की दिवाल है- पारदर्शी। मैं नीचे उतरते गया। एक सुन्दर सौन्दर्य से परिपूर्ण विशाल राज-प्रासाद सा दिखाई दिया। बाहर स्वर्ण का फाटक लगा था। उसके नजदीक पहुँचते ही वह स्वतः खुल गया। अन्दर आते ही स्वतः बंद हो गया। सामने चौड़ी सड़क, दोनों ही तरफ विभिन्न तरह के फल-फूल लदे फल-फूल के वृक्ष खड़े थे। सभी झुक-झुककर अपनी सुगंध से स्वागत कर रहे थे। कुछ दूर यात्रा करने पर लगभग पच्चीस-तीस युवक खड़े थे| लगभग बीस से तीस वर्ष के होंगे। सभी का चेहरा महर्षि कपिल के ही सदृश था। सभी महर्षि कपिल ही लग रहे थे। कपिल जी ने ही अपना रूप इतने भागों में विभक्त कर रखा है क्या?
स्वरूप भक्तों ने आरती-पूजा की। आगे बढ़ने लगे। स्फटिक की सड़क गुलाब-कमल की संयुक्त पुष्प की सड़क बन गई। दोनों तरफ विशाल नारियल, सुपारी के फलदार वृक्षों के मध्य से होकर गुजर रहा था। ऊपर सागर लहरा रहा है। विभिन्न प्रकार के जलीय जीव भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। ऊपर-नीचे रहस्यमयी दृश्य का फैलाव है। विभिन्न प्रकार के वर्णनातीत दृश्यों के मध्य चल रहे थे। कुछ दूरी पर फुलझरी सा वृक्ष दिखाई दिया। उस वृक्ष से पुष्प स्वतः ऊपर उड़ रहे थे; जो हम लोगों पर गिरकर स्वागत कर रहे थे। वे पुष्पदल गुलाब, जूही, चमेली इत्यादि पुष्पों के थे। सामने एक बड़ा द्वार दिखाई दिया। उस द्वार पर भगवान नारायण का चित्र अंकित था। उसका नाम ही था-नारायण द्वार। द्वार के सामने जाते ही स्वतः खुल गया। अन्दर देखा उसका किनारा नहीं दिखाई दे रहा था। मैंने सोचा सम्भवतः यह अन्तिम द्वार है जिससे समुद्र प्रारम्भ होता है। मैं रुक गया। महर्षि जी आगे बढ़े। जैसे जमीन पर चल रहे हों। वे बोले- स्वामी जी! आप इधर आ जाएँ। आपको सागर एवं गंगा के मिलन बिन्दु को दिखाना है। वहीं मेरा आश्रम है। जिस भाग से यात्रा कर आ रहे हैं, सभी विभिन्न विभागों, संकायों के भवन हैं जिनमें निरंतर खोज चलती रहती है। हमारा क्षेत्र समुद्र की गोद में है। यही हमारी रक्षा करते हैं। साधारण मनुष्य किसी भी साधन से इस क्षेत्र में नहीं आ सकते हैं। भगवान विष्णु-लक्ष्मी के साथ इसी सागर में निवास करते हैं। सागर उनके श्वसुर हैं। स्वामी जी! आप उन्हें नाना कहते ही हैं। फिर आप तो अपने नाना श्री की गोद में आए हैं।
मैंने अपना पैर बढ़ाया; महर्षि के साथ चलने लगा। एक अतीव सुन्दर युवती सामने प्रगट हो गई। बोली-स्वामी जी का यहाँ स्वागत है। मैं गंगा हूँ। आप बैठ जाएँ। अन्दर से कमल के सदृश पुष्प बाहर आ गया। सम्भवतः यही कुर्सी था। मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मेरे मुँह से निकला- दादी जी! अपना पैर स्पर्श करने दें। दादी अंक में भर ली। वात्सल्य प्रेम उमड़ गया। अपने हाथ से मेरे मुँह में कुछ डाली। मेरा सारा शरीर रोमांचित हो गया। नई स्फूर्ति आ गई। माँ गंगा अपने बगल में बैठा दी। दूसरी तरफ महर्षि कपिल जी। कपिल जी ने कहा-तो आप दोनों एक-दूसरे को पहचान लिए। मैं पीछे छूट गया। माँ गंगा मुस्कुराते हुए बोली-नहीं, महर्षि जी। यह सब आपकी ही देन है। सामने देखते हैं-महर्षि के प्रतिरूप हजारों साधक शिष्य बैठे हैं। दूसरी तरफ हजारों माँ गंगा के प्रतिरूप बैठे हैं। सभी की दृष्टि हम तीनों की तरफ है। वे सभी ऐसे बैठे हैं, जैसे समाधि में हों।
एक युवक ने आकर स्वागत गीत गाया| फिर इस स्थान का महात्म्य बताया। वह अपने स्थान पर बैठ गया। दूसरा युवक संन्यासी आया, उसने महर्षि कपिल एवं माँ गंगा के सम्बन्ध में बताया। वह भी अपने स्थान पर बैठ गया। सभी यंत्रवत चल रहा था। बिना किसी ध्वनि यंत्र का शब्द सभी को स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था। फिर एक युवती संन्यासिनी उठी। वह संस्कृत में स्वागत गीत गाई, वह भी अपने स्थान पर बैठ गई। दूसरी युवती आगे आई, जो हमारे कई जन्मों की बातें कही, जैसे वह प्रत्यक्ष देख रही हो। फिर माँ गंगा से मेरा सम्बन्ध पुत्रवत स्थापित कर दी। प्रणाम कर अपने स्थान पर बैठ गई। गहन मौन, अपूर्व शान्ति अनिद्य सौंदर्य का संगम था-गंगा सागर। सभी विचार शून्य थे। चूँकि किसी के अन्दर विचार उत्पन्न होते ही सभी के सामने प्रगट हो जाता था। जैसे पारदर्शी बर्तन में मछली के चलते ही पानी की हलचल से मछली का यात्रा मार्ग दृष्टिगोचर हो जाता है। सम्भवतः यही कारण था गहन मौन का, अपूर्व शान्ति का, सौन्दर्य का। जब तक इच्छाएं रहेंगी, शान्ति सम्भव नहीं है। इच्छाओं से ऊपर उठना ही योग की कला है। इच्छाओं के जाल में फँसना ही संसार में आबद्ध होना है।
क्या तीसरा नेत्र केवल संहार के लिए है?
मैंने महर्षि कपिल जी की तरफ देखा| उन्होंने मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोलना प्रारम्भ किया। उनका होंठ बंद था। प्रकाश युक्त चेहरा स्थिर था। आँखें अर्द्ध-खुली थीं। लेकिन शब्द ध्वनित हो रहे थे। सामने कपिल के शिष्य अपने गुरु पर त्राटक किए थे। माँ गंगा की शिष्याएँ माँ पर त्राटक किए थीं।
महर्षि कपिल उवाच
आज बहुत ही आनन्द का विषय है कि स्वामी जी को बद्रीनाथ से लेकर मैं नारायण धाम आया हूँ। ये माँ गंगा के उद्गम स्थान से आकर महामिलन स्थान पर हम लोगों के मध्य दर्शन दे रहे हैं। स्वामी जी ने अपने दृष्टिपात से प्रश्न किया है कि क्या तीसरे नेत्र का प्रयोग केवल संहार के लिए ही किया जाता है? भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुला-कामदेव का संहार हुआ। आपका तीसरा नेत्र खुला, सगर पुत्रों का संहार किया। क्या इसकी यही उपयोगिता है? क्या तीसरा नेत्र क्रोध का प्रतीक तो नहीं है? इस नेत्र की कथा से लोगों को भय उत्पन्न होता है।
स्वामी जी समय के सद्गुरु हैं। इनका यह प्रश्न स्वयं के लिए न होकर पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति के मानस का प्रश्न है। तीसरा नेत्र तो आत्मबोध का प्रतीक है। इससे संहार का प्रश्न कहाँ है? यदि कोई मंदिर बहुत पुराना हो गया है, प्राचीन काल का है। लोगों में अटूट श्रद्धा भी है। मंदिर कभी भी गिर सकता है। भय से कोई अन्दर नहीं जाता है। उससे दूर-दूर रहते हैं। प्रणाम करते हैं। अपने बच्चों को मंदिर में जाने से रोकते भी हैं। ऐसी स्थिति में कोई सद्गुरु ही लाखों लोगों की भावनाओं और रूढ़ परम्परा के विरुद्ध होकर उस मंदिर को ध्वस्त कर देगा। पुनः उसी स्थान पर समय और व्यक्ति के आवश्यकतानुसार भव्य मंदिर खड़ा कर देगा। भगवान शिव भी आपकी जन्म भूमि (कोपवाँ) में तप कर रहे थे। उन्हें तप की क्या आवश्यकता है? क्या पुत्रों को नौकरी या व्यापार में वृद्धि के लिए आवश्यकता थी। अक्सर लोग अपनी सांसारिक इच्छा पूर्ति के लिए तपस्या करते हैं। भगवान का स्वभाव ही है सदैव ध्यान में रहना। उनके सदैव ध्यान से ही सृष्टि के सभी कार्य सम्पादित होते हैं। काम देवता सशरीर उन पर आक्रमण कर रहे हैं। जो भविष्य के लोगों के लिए खतरा था। इस व्यवस्था को बदलना है। कौन बदल सकता है? तीसरा नेत्र ही इस तरह की व्यवस्था बदलता है।
भगवान शिव ने इस चुनौती को स्वीकार किया। शरीर-धारी कामदेव को भस्म किया। पुनः उनकी पत्नी की आराधना पर साधना की व्यवस्था प्रदान की। उन्हें ‘मनोज’ (मन से उत्पन्न) होने का वरदान दिया। सृष्टि की व्यवस्था का नए ढंग से श्रीगणेश हुआ। सभी के अंदर से आतंक विदा हुआ। सभी प्रसन्नतापूर्वक अपनी साधना की तरफ उन्मुख हुए।
राजा सगर के पुत्रों का आतंक इस पृथ्वी पर छा गया था। साठ हजार पुत्र थे। सभी शक्ति, समृद्धि, वैभव में अपूर्व थे। उनकी शक्ति निर्माणमूलक न होकर विध्वंसमूलक हो गई थी। देवता भी उनसे भयभीत थे। यही कारण है कि देवराज इन्द्र भी उनके सामने जाने का साहस नहीं कर सकते थे। चूंकि सगर पुत्र सभी के सभी इन्द्र से भी ज्यादा पराक्रमी थे। उनके उत्पात से पृथ्वी भयातुर थी। मैं तो अपने में मस्त था। देश दुनिया से दूर इसी टापू में ध्यानस्थ था। यहाँ कोई प्राणी नहीं थे। देवराज इन्द्र ने सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा मेरी ही झोंपड़ी के पीछे बांध दिया था। यह सारा षड्यंत्र देवताओं ने छिप कर चोरी से किया था। मैं बाह्य दुनिया से कटा था। अपने स्वरूप में स्थित था। विश्व मंगल की कामना से युक्त था।
सगरपुत्रों ने अपना घोड़ा खोजते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी को रौंद डाला। अन्ततोगत्वा अग्नि देव ही यज्ञ पर बैठे हुए सगर को घोड़े के सम्बन्ध में सूचना दिए। फिर क्या! साठ हजार सगर-पुत्र एक साथ उमड़ पड़े। यहाँ आकर कोई उपहास करता है, कोई मेरे शरीर पर पत्थर मारता है, कोई थूकता; परन्तु मुझे इसका ज्ञान नहीं हुआ। साठ हजार सैनिकों एवं उनके सेवक, घोड़े-हाथी के शोर से, उपद्रव से मेरी ऊर्जा एकाएक ऊपर से नीचे उतरी। जो ऊर्जा अनंत की ओर प्रवाहित हो रही थी, वही एकाएक नीचे की तरफ बहने लगी। मेरा तीसरा नेत्र स्वतः खुला- सामने खड़े साठ हजार सगर पुत्रों पर वही ऊर्जा प्रवाहित हो गई। जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सके। सभी धू-धू कर जल उठे। भयंकर अग्नि की ज्वाला उठी। मानो विश्व ही जल जाएगा। मैंने उसे रोकना चाहा। परन्तु चलती हुई गाड़ी में ब्रेक लगाएंगे तो भी कुछ दूरी तय करके ही रुकेगी। वैसे ही मैंने अपनी शक्ति को रोका। तीसरा नेत्र बंद किया। मैंने पूछा- यह क्या था? क्या हुआ?
फिर सारा दृश्य सामने आया। गंगा का अवतरण। शिव नेत्र से कपिल नेत्र तक की यात्रा। भाव आया- कैसे? दृश्य आया- सगर की दूसरी पत्नी से एक पुत्र है-असमंजस जो अति नकारात्मक है, विध्वंसक है। उसी विध्वंस से, नकारात्मक शक्ति से पैदा हुआ है-अंशुमान। अभी किशोर वय का है। दादा श्री यज्ञ पर हैं। क्षत्रिय इन विघ्नों से घबराता नहीं है। सगर के साठ हजार पुत्र मारे गए। असमंजस को राज्य से बाहर निकाला गया। फिर भी यज्ञ नहीं छोड़ेंगे। यज्ञ राजाओं के लिए है। क्षत्रिय दिल-दिमाग ही इसे पूरा कर सकता है। इतने उपद्रव के बाद भी सगर विचलित नहीं होंगे। यज्ञ अवश्य पूरा करेंगे। पृथ्वी का भविष्य, सूर्य वंश का भविष्य- अंशुमान घोड़े की खोज में आने ही वाला है।
फिर तीसरा नेत्र खुला- सामने हाथ जोड़े, प्रार्थना करते खड़े किशोर वय पर दृष्टि पड़ी। शरीर वज्र का हो गया। इस नेत्र के प्रकाश से अंशुमान का तन, मन शान्त हो गया। उसका तीसरा नेत्र खुल गया। अल्प वय में ही युवा हो गया। उसके सामने सारा भूत-भविष्य खुल गया। अश्व लेकर लौटा। दादाजी अंशुमान को राजगद्दी सौंपकर गंगा के अवतरण के लिए हिमालय के लिए प्रस्थान किए। इस तरह सगर, अंशुमान… रघु… दिलीप… भगीरथ ने गंगा का अवतरण कराया। गंगा ब्रह्मा के कमण्डल से निकलकर भगवान शिव की जटा में प्रवेश कर गई। तीसरे नेत्र से गंगा निकल यहाँ अर्थात् सीधे तीसरे नेत्र के पास आकर मिल गई। गंगा का दर्शन इसी नेत्र से सम्भव है। यही माँ गंगा सामने विराजमान है। तीसरा नेत्र विध्वंस नहीं करता, बल्कि निर्माण करता है। समाज को सही दिशा देता है। जब सृष्टि भटक जाती है, तब यही नेत्र इसे क्रान्ति-शान्ति प्रदान करता है।
|हरि ॐ||
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –