जो आत्म बोध करा दे – वही है ‘समय का सद्गुरु’
जो आत्म बोध करा दे – वही है ‘समय का सद्गुरु’
मैंने एक कहानी सुनी है| सम्राट इब्राहीम एक विशाल महल बनाना चाहता था, जिसमें वह स्थायी रूप से निवास कर सके| वह अपने सलाहकारों के साथ सिंहासन पर बैठा विचार कर रहा था, तभी उसे आवाज़ सुनाई पड़ने लगी| कोई फ़क़ीर कह रहा था, मुझे रास्ता दो| तुम रोकने वाले कौन हो? वह द्वारपाल से झंझट कर रहा था| वह कह रहा था, मैं इसी सराय में आज की रात्रि रुकूँगा| आज विश्राम करूँगा| द्वारपाल करबद्ध उसे समझा रहा था कि तुम पागल हो क्या ? यह सम्राट का महल है| उनका निवास स्थल है| यह सराय नहीं है| तुम नासमझ हो| मूर्ख हो| इस शहर में आगे चले जाओ, वहाँ सराय है| वहीं ठहर जाना|
फ़क़ीर जिद पर अड़ा था| वह बार-बार आग्रह कर रहा था, मैं यहीं रुकूँगा| मैं जानता हूँ कि यह सराय है| तुम इसे महल कह रहे हो|
सम्राट को उत्सुकता हुई, यह आदमी कौन है ? जो कहे जा रहा है, सराय है| जबकि एक साधारण आदमी भी समझता है कि यह राजमहल है| उसकी वाणी में मिठास है| आँखों में जादू है| चेहरे पर तेज है| उसकी आवाज़ में कोई गहरा आकर्षण है| सम्राट ने आज्ञा दी, इस फ़क़ीर को अन्दर आने दो|
फ़क़ीर ने अन्दर प्रवेश किया| जैसे उसी का घर हो| उसकी चाल बादशाही थी, शान फकीरी, निरंकारी| निराली वाणी थी और स्वभाव विनम्र| वह सम्राट के सामने आकर खड़ा हो गया| सम्राट फीका पड़ गया| वह सिंहासन से उठ खड़ा हुआ| हाथ जोड़कर प्रेम से बोला – ‘आप कौन हैं ? क्यों मिथ्या जिद कर रहे हैं ? यह महल हमारा है| मेरा स्थायी निवास-स्थल है| आपको बार बार द्वारपाल समझा रहे हैं|’
उस फ़क़ीर ने सम्राट की तरफ गौर से देखा| उसकी आंखें सम्राट को आरपार बेध गईं| सम्राट अन्दर से काँप उठा| फ़क़ीर ने कहा – ‘मैं अनामी हूँ| मेरे इस शरीर लको लोग कबीर कहते हैं| मैंने इससे पहले किसी और को इस सिंहासन पर बैठे देखा था|’
सम्राट ने कहा – ‘आप ठीक कहते हैं| वो मेरे पिता थे| उनका स्वर्गवास हो गया |’
कबीर ने कहा – ‘उससे पहले किसी और को बैठे देखा था|’
सम्राट ने कहा – वह भी ठीक है| आप तो पागल नहीं मालूम होते हैं| वो मेरे पिता के पिता थे| वे भी जा चुके|’
कबीर जोर से हँसने लगे | हँसते जा रहे थे | राजा को आश्चर्य हुआ| कबीर बोले – ‘राजन् ! जब मैं दुबारा आऊँगा, तुम्हें पक्का है कि तुम मुझे यहाँ बैठे मिलोगे ? तुम्हारा बेटा तो न मिलेगा ? वह भी यह तो नहीं बोलेगा कि वे मेरे पिताजी थे| यह तुम्हारा स्थायी निवास कैसे है? यह तो सराय है| इस सराय को अपना निवास होने का भ्रम कर बैठे हो|’
कहते हैं, इब्राहीम की आँखों के आगे बिजली सी कौंध गई| कबीर की वाणी ने झकझोर कर जगा दिया| उसने कबीर के पैर छुए और कहा – ‘कबीर जी, आप ठीक कह रहे हैं| आपकी बात बिलकुल ठीक है| आप इस सराय में रुकें| मैं जाता हूँ|’
इब्राहीम ने कबीर को गुरु मान लिया| वह घर छोड़कर निकल गया| लोगों ने उससे कहा – ‘आपको क्या हो गया है?’ उसने कहा – ‘कुछ भी नहीं| समझ में आ गया- मैं ही नासमझ था| यही दुःख का कारण था| जहाँ दो दिन रुकते हैं और चले जाना पड़ता है, उसको घर क्या मानना?’
वह तत्क्षण मरघट चला गया| विरक्ति तो एकाएक आती है| किसी बुरी आदत को धीरे-धीरे पकड़ते हैं, परन्तु छोड़ते तो एकाएक हैं| जो भी व्यक्ति कहता है कि भक्ति करूँगा, वह झूठ बोलता है| वह स्वयं को ठग रहा है| कोई किसी के लिए इंतजार नहीं करता है| मन जन्म-जन्म से ठगता है| हम उससे ठगाने में ही ख़ुशी का अनुभव करते हैं| जैसे कोढ़ी अपने घाव को खुजलाने में ही आनंद का अनुभव करता है|
सम्राट अब मरघट पर रहने लगा| लोग उसे समझाते – ‘यह क्या कर रहे हैं? क्या पागल हो गए हैं? ठीक है, अपने महल में मत रहें| ग्राम-नगर में तो रहें| वहीं आश्रम बन जायेगा|’
सम्राट कहता – ‘मेरी समझ में आ गया| मैं बस्ती में ही आ गया हूँ| तुमलोग जिसे बस्ती कहते हो, वही मरघट है| वहाँ मरने वालों की भीड़ लगी है| वहाँ सभी मरने के लिए कतार में खड़े हैं| लोग वहीं मरते हैं| मैं जहाँ रहने लगा हूँ, यही बस्ती है| यहाँ कोई मरता नहीं है| यहाँ आकर लोग चिर निद्रा में सो जाते हैं| सबकी अपनी-अपनी कब्रें भी हैं| कोई किसी से झगड़ा नहीं करता| सभी अपनी कब्रों में सोये हैं| कभी कोई हटता नहीं| अब इनको कोई उजाड़ नहीं सकेगा| वहाँ तो प्रतिदिन उजड़ाव होता है| यहाँ बसना होता है|’
पृथ्वी का कोई भी भाग केंद्र बिंदु हो सकता है| उसी तरह इस पर निवास करने वाला कोई भी व्यक्ति केंद्र बिंदु हो सकता है| हम परिधि पर हैं, अपने अज्ञान की वजह से| हम केंद्र में हो सकते हैं, अपने जागरण से| द्वार तो एक ही होता है| जिससे हम बाहर से अन्दर के आँगन में, आँगन से विभिन्न कक्षों में जा सकते हैं| उसी आँगन से हम गृहपति के कक्ष में में भी प्रवेश कर सकते हैं| हम उसी द्वार से आँगन से बाहर भी निकल सकते हैं| फिर हम सम्पूर्ण विश्व में घूमने को स्वतन्त्र हैं| जन्म-जन्म हम भटकते रहते हैं| भटकना मन का स्वभाव है| चूँकि शरीर का केंद्र मन है| मन का नियंत्रण सम्पूर्ण शरीर पर है| वह शरीर को भटकाता है, इन्द्रियों के माध्यम से भोगाभोग की आसक्ति में उलझाता है| फिर अपनी सलाह देता है| मन का केंद्र आत्मा है, जहाँ वह जाना नहीं चाहता है| आत्मा का केंद्र परमात्मा है, आत्मा का सहज स्वभाव है – आनंद| जहाँ से मन हर समय हमें भटकाता है| इन्द्रियाँ द्वार हैं, मन आँगन है| मन निरंतर इन द्वारों से बाहर निकलता रहता है| वह किसी गृह में प्रवेश नहीं करने देना चाहता है|
अभी प्रार्थना, सत्संग, योग पर काफी अनुसन्धान हो रहा है| ऐसे हजारों प्रकाशित अध्ययन उपलब्ध हैं| केवल क्षमा भावना और इसके स्वास्थ्य से सम्बन्ध पर लगभग बारह हज़ार अध्ययन प्रकाशित हो गए हैं| इन वैज्ञानिक अन्वेषणों के तीन पक्ष हैं| पहला पक्ष यह है कि बहुत सी स्वास्थ्य समस्याओं व शारीरिक व्याधियों के मूल कारण मानसिक तनाव में छिपे होते हैं| हार्वर्ड मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर हर्बर्ट बेन्सन तो यहाँ तक कहते हैं कि डॉक्टरों के पास जाने वाले 60 से 90 प्रतिशत व्यक्तियों का कहीं न कहीं मानसिक तनाव से जुडी समस्याओं से सम्बन्ध होता है|
दूसरा पक्ष यह है कि मानसिक तनाब स्वास्थ्य के लिए इतना खतरनाक है तो प्रार्थना, योग, सत्संग की स्वास्थ्य रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है| इसके भी दो पक्ष हैं – 1. गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं या रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों को भी प्रार्थना, ध्यान या सच्ची सांत्वना देने वाली बातचीत से कितना स्वास्थ्य लाभ मिला ? न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन में टोरंटो विश्वविद्यालय के डॉक्टरों का स्तन कैंसर से पीड़ित महिलाओं सम्बन्धी एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है| जिन मरीज़ों को सांत्वना की बातचीत का अवसर मिला इन्हें अपेक्षाकृत कम दर्द का अनुभव हुआ है| कुछ अन्य अध्ययनों में पाया गया कि जहाँ आशावादी सोच बनी रहती है, वहाँ गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीज़ की प्रतिरोधक क्षमता में सुधार पाया गया है | इसके अतिरिक्त कई अन्य अध्ययनों में यह बताया गया है कि प्रार्थना, ध्यान, योग, सत्संग, पाठ, मन्त्र जाप से मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है| कई गंभीर बिमारियों से बचाव करने में बहुत मदद मिलती है| ड्यूक विश्वविद्यालय के अनुसन्धान से पता चला कि जिन लोगों में धार्मिक आस्था का आधार है, उनमें रोगों से पीड़ित होने या अस्पताल में भर्ती होने की सम्भावना कम पाई गई है|
शिकागो के रश विश्वविद्यालय चिकित्सा केंद्र में लिंडा पॉवेल ने प्रार्थना व आस्था के स्वास्थ्य सुधार के पक्षों पर लिखे गए 150 अनुसन्धान पत्रों का विश्लेषण किया| उनका निष्कर्ष यह है कि अध्यात्म से दीर्घायु प्राप्त होती है| बेहतर स्वास्थ्य पर तो निश्चित प्रमाण उपलब्ध हैं| जबकि ह्रदय रोग से बचाने की क्षमता के बारे में भी थोड़े प्रमाण उपलब्ध हैं| केवल ध्यान, योग, प्रार्थना को ही आध्यात्मिक विकास का समग्र रूप नहीं माना जा सकता है| आध्यात्मिक विकास के लिए यह अनिवार्य है कि आतंरिक शांति प्राप्त करने के अपने प्रयासों को हम पूरी दुनिया की, सभी की भलाई से जोड़ें| दूसरे लोगों या जीवन के अन्य रूपों की भलाई से जुड़कर ही आध्यात्मिक विकास का कोई प्रयास समग्र व सच्चा बनता है| जटिलताओं और अनिश्चितताओं के बढ़ते दौर में मानव जीवन को जिस ठहराव, आधार और उद्देश्य-पूर्णता की ज़रूरत है, वह दूसरों की भलाई से जुड़ने से ही मिल सकती है|
हमें दूसरों पर निर्भरता कम करनी होगी| अपने को दूसरों की सेवा में लगाना ही होगा| अपना जीवन संयमित एवं कम से कम आवश्यकताओं में पूर्ण करना ही होगा, फिर हम प्रसन्न होंगे| यह अपने को गोविन्द के साकार रूप, गुरु से जोड़ने की चेष्टा है| सुना है, एक फ़क़ीर अकेला आनंद पूर्वक रहता था| समयानुसार लोगों की निष्कर्म सेवा भी कर देता था| एक दिन एक उदार दानी राजा उसकी झोंपड़ी की बगल से गुज़र रहा था| राजा ने फ़क़ीर से पूछा – ‘क्या तुम मेरे साथ रहना चाहोगे?’
फ़क़ीर बोला – ‘एक शर्त पर| जब मैं सोऊँ तो तुम जागकर मेरी रक्षा करना| मुझे अच्छा खिलाना और पहनाना| खुद कुछ न खाना, न पहनना | जहाँ मैं जाऊँ, वहीं तुम भी जाना|’
राजा बोला – यह कैसे हो सकता है? मुझे राज्य भी चलाना है | मैं राजमहल में बिना कपड़ों के कैसे रह सकता हूँ?’
फ़क़ीर ने कहा – ‘मैं आपके साथ नहीं रह सकता|’
‘तब मैं अपने ही मालिक (गुरु-गोविन्द) के साथ रहूँगा| वह हमेशा मेरे साथ चलता है| मैं सोता हूँ तो वह मेरी रक्षा करता है| वही मुझे खिलाता है | खुद भूखा रहता है| ऐसे मालिक को छोड़कर मैं तुम्हारे साथ कैसे रहूँगा?’
राजा निरुत्तर हो गया|
वर्तमान समय एवं परिप्रेक्ष्य में समय का डॉक्टर ही रोगियों को उचित दवा देता है| उसी तरह गुरु भी वैद्य होता है, जो समय के परिप्रेक्ष्य में दवा देता है| सभी के लिए दिव्य गुप्त विज्ञान नामक साधना प्रत्येक स्थिति में रामबाण दवा है, तो आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कामधेनु भी है| इसे आप ग्रहण कर, अपने जीवन में उतारकर ही समाज सेवा में उतर सकते हैं| वही सेवा सम्यक् होगी|
मैंने दिव्यास्त्रों और देवास्त्रों से सीधे अमृत देने की व्यवस्था दी है| वह अमृत भी ऐसा है, जो आपको रक्षा, सुरक्षा से लेकर भविष्य निर्माण का भी मार्ग प्रशस्त करता है| आपको दिव्य गुणों से भर देता है| यह महा-औषधि इस पृथ्वी पर एक लम्बे अंतराल के बाद प्रकट हुई है| इसमें कोई मिलावट नहीं है| मैंने किसी भी तरह का समझौता नहीं किया है| औषधि मधुर हो, इसकी फ़िक्र भी नहीं की है| मैंने ऐसा ज़रूर किया कि वही सीधे साधक के घाव पर, रोग पर प्रहार करे| जड़ समेत दुःख समाप्त करे|
(गुरुदेव की अनमोल कृति ‘लोक परलोक’ से साभार)
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
बहुत सुन्दर धन्यवाद 🙏🙏🙏