हृदय की विरह वेदना
हृदय जल रहा है विरह श्वास लेकर,
कहो पास कैसे तुम्हारे मैं आउं |
हृदय की गली में मधुर स्वप्न सी,
खड़ी मुस्कुराती ही तुमको मैं पाऊं |
हृदय जल रहा है विरह श्वास लेकर,
कहो पास कैसे तुम्हारे मैं आऊँ |
वही रूपसी तुम भरी धूप में भी,
वही कांच सी तुम घनी छाँव में भी |
निमंत्रण झुके नेत्र से तुम थीं देतीं,
मूंदी सी पलकों से आवाज़ देतीं|
यही सोच कर मैं स्तब्ध पड़ा हूँ,
वही सोच कर मैं निःशब्द पड़ा हूँ |
हृदय जल रहा है विरह श्वास लेकर,
कहो पास कैसे तुम्हारे मैं आऊँ |
ना रत्नों से शोभा तुम्हारी बढ़ी है,
न श्रृंगार से आभा ही बढ़ी है|
उसी रूप में तुम सदैव हो भाति,
खिले मुख पर जब तुम केशों को लाती|
इसी ध्यान में है हृदय की जलन आज,
इसी ध्यान में है मन में चुभन आज |
मन की चुभन को कैसे जताऊँ,
समुद्रों परे तुम कैसे मैं आऊँ |
हृदय जल रहा है विरह श्वास लेकर,
कहो पास कैसे तुम्हारे मैं आऊँ |
हृदय की गली में मधुर स्वप्न सी,
खड़ी मुस्कुराती ही तुमको मैं पाऊं |
रचयिता :
आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”